श्री मद् भगवद् गीता - अध्याय - 06
निष्काम
कर्म वर्णन (अध्याय 6 शलोक 1 से 4)
श्रीभगवानुवाच :
श्रीभगवानुवाच :
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥६- १॥
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥६- १॥
कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी। वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह
जो अक्रिय है।
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसं0न्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥६- २॥
न ह्यसं0न्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥६- २॥
जिसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे
पाण्डव। क्योंकि सन्यास अर्थात
त्याग के संकल्प के बिना कोई योगी नहीं बनता।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥६- ३॥
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥६- ३॥
एक मुनि के लिये योग में स्थित होने के लिये कर्म साधन
कहा जाता है। योग मे स्थित
हो जाने पर शान्ति उस के लिये साधन कही जाती है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६- ४॥
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६- ४॥
जब वह न इन्द्रियों के विषयों की ओर और न कर्मों की ओर
आकर्षित होता है, सभी संकल्पों का त्यागी, तब
उसे योग में स्थित कहा जाता है।
आत्मोत्थान प्रेरणा (अध्याय 6 शलोक 5 से 10)
श्रीभगवानुवाच :
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६- ५॥
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६- ५॥
सवयंम से अपना उद्धार करो, सवयंम ही अपना पतन नहीं। मनुष्य सवयंम ही अपना मित्र होता है और सवयंम ही अपना शत्रू।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६- ६॥
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६- ६॥
जिसने अपने आप पर जीत पा ली है उसके लिये उसका आत्म
उसका मित्र है। लेकिन सवयंम पर
जीत नही प्राप्त की है उसके लिये उसका आत्म ही शत्रु की तरह वर्तता है।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६- ७॥
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६- ७॥
अपने आत्मन पर जीत प्राप्त किया, सरदी गरमी, सुख
दुख तथा मान अपमान में एक सा रहने
वाला, प्रसन्न चित्त मनुष्य परमात्मा मे
बसता है।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥६- ८॥
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥६- ८॥
ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुई आत्मा, अ-हिल, अपनी
इन्द्रीयों पर जीत प्राप्त कीये, इस प्रकार युक्त व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है, जो लोहे, पत्थर
और सोने को एक सा देखता है।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥६- ९॥
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥६- ९॥
जो अपने सुहृद को, मित्र
को, वैरी को, कोई मतलब न रखने वाले को, बिचोले
को, घृणा करने वाले को, सम्बन्धी को, यहाँ
तक की एक साधू पुरूष को और पापी पुरूष को एक ही बुद्धि से
देखता है वह उत्तम है।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६- १०॥
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६- १०॥
योगी को एकान्त स्थान पर स्थित होकर सदा अपनी आत्मा को
नियमित करना चाहिये। एकान्त
मे इच्छाओं और घर, धन आदि मान्सिक परिग्रहों से रहित
हो अपने चित और
आत्मा को नियमित करता हुआ।
ध्यानयोग वर्णन (अध्याय 6 शलोक 11 से 32)
श्रीभगवानुवाच :
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥६- ११॥
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥६- ११॥
उसे ऍसे आसन पर बैठना चाहिये जो साफ और पवित्र स्थान पर
स्थित हो, स्थिर हो, और जो
न ज़्यादा ऊँचा हो और न ज़्यादा नीचा हो, और
कपड़े, खाल या कुश नामक घास से बना हो।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥६- १२॥
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥६- १२॥
वहाँ अपने मन को एकाग्र कर, चित्त और इन्द्रीयों को अक्रिय कर, उसे आत्म शुद्धि
के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥६- १३॥
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥६- १३॥
अपनी काया, सिर
और गर्दन को एक सा सीधा धारण कर, अचल
रखते हुऐ, स्थिर रह कर, अपनी नाक के आगे वाले भाग की ओर एकाग्रता से देखते हुये, और किसी दिशा में नहीं देखना चाहिये।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६- १४॥
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६- १४॥
प्रसन्न आत्मा, भय
मुक्त, ब्रह्मचार्य के व्रत में स्थित, मन को संयमित कर, मुझ मे चित्त लगाये हुऐ, इस
प्रकार युक्त हो मेरी ही परम चाह रखते हुऐ।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६- १५॥
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६- १५॥
इस प्रकार योगी सदा अपने आप को नियमित करता हुआ, नियमित मन वाला, मुझ
मे स्थित होने ने कारण परम शान्ति और
निर्वाण प्राप्त करता है।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥६- १६॥
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥६- १६॥
हे अर्जुन, न
बहुत खाने वाला योग प्राप्त करता है, न वह
जो बहुत ही कम खाता है। न
वह जो बहुत सोता है और न वह जो जागता ही रहता है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥६- १७॥
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥६- १७॥
जो नियमित आहार लेता है और नियमित निर-आहार रहता है, नियमित ही कर्म करता है, नियमित
ही सोता और जागता है,
उसके लिये यह योगा दुखों का अन्त
कर देने वाली
हो जाती है।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६- १८॥
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६- १८॥
जब सवंयम ही उसका चित्त, बिना
हलचल के और सभी कामनाओं से मुक्त, उसकी
आत्मा मे विराजमान रहता है, तब उसे युक्त कहा जाता है।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६- १९॥
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६- १९॥
जैसे एक दीपक वायु न होने पर हिलता नहीं है, उसी प्रकार योग द्वारा नियमित किया हुआ योगी का चित्त होता है।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥६- २०॥
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥६- २०॥
जब उस योगी का चित्त योग द्वारा विषयों से हट जाता है
तब वह सवयं अपनी आत्मा को सवयं अपनी आत्मा द्वारा देख तुष्ठ होता है।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥६- २१॥
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥६- २१॥
वह अत्यन्त सुख जो इन्द्रियों से पार उसकी बुद्धि मे
समाता है, उसे देख लेने के
बाद योगी उसी मे स्थित रहता है और सार से हिलता नहीं।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६- २२॥
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६- २२॥
तब बड़े से बड़ा लाभ प्राप्त कर लेने पर भी वह उसे अधिक
नहीं मानता, और न ही, उस
सुख में स्थित, वह भयानक से भयानक दुख से भी
विचलित होता है।
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥६- २३॥
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥६- २३॥
दुख से जो जोड़ है उसके इस टुट जाने को ही योग का नाम
दिया जाता है। निश्चय कर और पूरे मन से इस योग मे जुटना चाहिये।
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६- २४॥
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६- २४॥
शुरू होने वालीं सभी कामनाओं को त्याग देने का संकल्प
कर, मन से सभी इन्द्रियों को हर ओर से रोक कर।
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥६- २५॥
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥६- २५॥
धीरे धीरे बुद्धि की स्थिरता ग्ररण करते हुऐ मन को आत्म
मे स्थित कर, कुछ भी नहीं सोचना चाहिये।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६- २६॥
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६- २६॥
जब जब चंचल और अस्थिर मन किसी भी ओर जाये, तब तब उसे नियमित कर अपने वश में कर लेना चाहिये।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥६- २७॥
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥६- २७॥
ऍसे प्रसन्न चित्त योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है
जिसका रजो गुण
शान्त हो चुका है, जो
पाप मुक्त है और ब्रह्म मे समा चुका है।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥६- २८॥
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥६- २८॥
अपनी आत्मा को सदा योग मे लगाये, पाप मुक्त हुआ योगी, आसानी
से ब्रह्म से
स्पर्श होने का अत्यन्त सुख भोगता
है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६- २९॥
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६- २९॥
योग से युक्त आत्मा, अपनी
आत्मा को सभी जीवों में देखते हुऐ और सभी जीवों मे अपनी
आत्मा को देखते हुऐ हर जगह एक सा रहता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६- ३०॥
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६- ३०॥
जो मुझे हर जगह देखता है और हर चीज़ को मुझ में देखता
है, उसके लिये मैं कभी ओझल नहीं होता और न ही वो मेरे लिये ओझल होता है।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६- ३१॥
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६- ३१॥
सभी भूतों में स्थित मुझे जो अन्नय भाव से स्थित हो कर
भजता है, वह सब कुछ करते हुऐ भी मुझ ही में रहता है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥६- ३२॥
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥६- ३२॥
हे अर्जुन, जो
सदा दूसरों के दुख सुख और अपने दुख सुख को एक सा देखता है, वही योगी
सबसे परम है।
मनोसंयम विधि (अध्याय 6 शलोक 33 से 36)
अर्जुन उवाच :
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥६- ३३॥
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥६- ३३॥
हे मधुसूदन, जो
आपने यह समता भरा योग बताया है, इसमें
मैं स्थिरता नहीं देख पा रहा
हूँ, मन की चंचलता के कारण।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥६- ३४॥
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥६- ३४॥
हे कृष्ण, मन तो
चंचल, हलचल भरा, बलवान और दृढ होता है। उसे रोक पाना तो मैं वैसे अत्यन्त कठिन मानता हूँ जैसे वायु को रोक पाना।
श्रीभगवानुवाच :
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६- ३५॥
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६- ३५॥
बेशक, हे
महाबाहो, चंचल मन को रोक पाना कठिन है, लेकिन हे कौन्तेय, अभ्यास
और वैराग्य से इसे काबू किया जा सकता
है।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥६- ३६॥
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥६- ३६॥
मेरे मत में, आत्म
संयम बिना योग प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। लेकिन अपने आप को वश मे कर अभ्यास द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता
है।
योगभ्रष्ट की गति (अध्याय 6 शलोक 37 से 47)
अर्जुन उवाच :
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥६- ३७॥
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥६- ३७॥
हे कृष्ण, श्रद्धा
होते हुए भी जिसका मन योग से हिल जाता है, योग
सिद्धि को प्राप्त न कर पाने पर उसको क्या
परिणाम होता है।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥६- ३८॥
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥६- ३८॥
क्या वह दोनों पथों में असफल हुआ, टूटे बादल की तरह नष्ट नहीं हो जाता। हे महाबाहो, अप्रतिष्ठित
और ब्रह्म पथ से विमूढ हुआ।
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥६- ३९॥
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥६- ३९॥
हे कृष्ण, मेरे
इस संशय को आप पूरी तरह मिटा दीजीऐ क्योंकि आप के अलावा और कोई नहीं
है जो इस संशय को छेद पाये।
श्रीभगवानुवाच :
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥६- ४०॥
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥६- ४०॥
हे पार्थ, उसके
लिये विनाश न यहाँ है और न कहीं और ही। क्योंकि, हे
तात, कल्याण कारी कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥६- ४१॥
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥६- ४१॥
योग पथ में भ्रष्ट हुआ मनुष्य, पुन्यवान लोगों के लोकों को प्राप्त कर, वहाँ बहुत
समय तक रहता है और फिर पवित्र और श्रीमान घर में जन्म लेता है।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥६- ४२॥
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥६- ४२॥
या फिर वह बुद्धिमान योगियों के घर मे जन्म लेता है। ऍसा जन्म मिलना इस संसार में बहुत मुश्किल है।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥६- ४३॥
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥६- ४३॥
वहाँ उसे अपने पहले वाले जन्म की ही बुद्धि से फिर से
संयोग प्राप्त होता है। फिर दोबारा अभ्यास करते हुऐ, हे कुरुनन्दन, वह
सिद्धि प्राप्त करता है।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥६- ४४॥
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥६- ४४॥
पुर्व जन्म में किये अभ्यास की तरफ वह बिना वश ही खिच
जाता है। क्योंकि योग
मे जिज्ञासा रखने वाला भी वेदों से
ऊपर उठ जाता है।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥६- ४५॥
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥६- ४५॥
अनेक जन्मों मे किये प्रयत्न से योगी विशुद्ध और पाप
मुक्त हो, अन्त में परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥६- ४६॥
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥६- ४६॥
योगी तपस्वियों से अधिक है, विद्वानों से भी अधिक है, कर्म
से जुड़े लोगों
से भी अधिक है, इसलिये
हे अर्जुन तुम योगी बनो।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥६- ४७॥
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥६- ४७॥
और सभी योगीयों में जो अन्तर आत्मा को मुझ में ही बसा
कर श्रद्धा से मुझे याद करता
है, वही सबसे उत्तम है।
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।