हम वर्ल्ड ऑफ़ साईं ग्रुप के माध्यम से आप सब से अपील करते है की यदि आप के पास गैर जरूरी (न काम आने वाले हर रोज़ मर्रा का कोई भी जरूरी सामान जो शायद आज आपकी जरूरत का हिस्सा न हो) जैसे वस्त्र (किसी भी तरह के वस्त्र, हर उम्र एवं हर श्रेणी के), खिलौने अथवा बिस्तर (पुराने या नए चादर, तकिया, कम्बल, इत्यादि) अथवा अन्नदान, जरूरतमंद कौड़ियों के आश्रम के लिए दान दे | ग़रीबों को भोजन अवश्य दें क्यों कि बाबा ने स्वयं कहा है कि जो ग़रीबों को भोजन खिलाता है वो वास्तव में मुझे भोजन खिलाता है |
शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण... अधिक जानने के लियें पूरा पेज अवश्य देखें
शिर्डी से सीधा प्रसारण ,...
"श्री साँई बाबा संस्थान, शिर्डी " ...
के सौजन्य से...
सीधे प्रसारण का समय ...
प्रात: काल 4:00 बजे से रात्री 11:15 बजे तक ...
सीधे प्रसारण का इस ब्लॉग पर प्रसारण केवल उन्ही साँई भक्तो को
ध्यान में रख कर किया जा रहा है जो किसी कारणवश बाबा जी के दर्शन
नहीं कर पाते है और वह भक्त उससे अछूता भी नहीं रहना चाहते,...
हम इसे अपने ब्लॉग पर किसी व्यव्सायिक मकसद से प्रदर्शित नहीं कर रहे है।
...ॐ साँई राम जी...
Thursday, 11 December 2014
Monday, 15 September 2014
श्री साईं लीलाएं - साईं बाबा की भक्तों को शिक्षाएं - अमृतोपदेश (अंतिम चरण)
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा
श्री साईं लीलाएं
श्री साँई नाथ महाराज जी की पलकी की यह तस्वीर 11/09/2014 को रात्री 09:33 बजे उस समय ली गयी, जब बाबा जी की पालकी द्वारकामाँई से चावड़ी की ओर प्रस्थान कर रही थी..
साईं बाबा की भक्तों को शिक्षाएं - अमृतोपदेश
आत्मचिंतन:
अपने आपकी पहचान करो, कि मेरा जन्म क्यों हुआ? मैं कौन हूँ? आत्म-चिंतन व्यक्ति को ज्ञान की ओर ले जाता है|
विनम्रता:
जब तक तुममें विनम्रता का वास नहीं होगा तब तक तुम गुरु के प्रिय शिष्य नहीं बन सकते और जो शिष्य गुरु को प्रिय नहीं, उसे ज्ञान हो ही नहीं सकता|
क्षमा:
दूसरों को क्षमा करना ही महानता है| मैं उसी की भूलें क्षमा करता हूँ जो दूसरों की भूले क्षमा करता है|
श्रद्धा और सबुरी (धीरज और विश्वास): पूर्णश्रद्धा और विश्वास के साथ गुरु का पूजन करो समय आने पर मनोकामना भी पूरी होंगी|
कर्मचक्र:
कर्म देह प्रारम्भ (वर्तमान भाग्य) पिछले कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ेगा, गुरु इन कष्टों को सहकर सहना सिखाता है, गुरु सृष्टि नहीं दृष्टि बदलता है|
दया:
मेरे भक्तों में दया कूट-कूटकर भरी रहती है, दूसरों पर दया करने का अर्थ है मुझे प्रेम करना चाहिए, मेरी भक्ति करना|
संतोष:
ईश्वर से जो कुछ भी (अच्छा या बुरा) प्राप्त है, हमें उसी में संतोष रखना चाहिए|
सादगी, सच्चाई और सरलता: सदैव सादगी से रहना चाहिए और सच्चाई तथा सरलता को जीवन में पूरी तरह से उतार लेना चाहिए|
अनासक्ति:
सभी वस्तुएं हमरे उपयोग के लिए हैं, पर उन्हें एकत्रित करके रखने का हमें कोई अधिकार नहीं है| प्रत्येक जीव में मैं हूँ: प्रत्येक जीव में मैं हूँ, सभी जगह मेरे दर्शन करो|
गुरु अर्पण:
तुम्हारा प्रतेक कार्य मुझे अर्पण होता है, तुम किसी दूसरे प्राणी के साथ जैसा भी अच्छा या बुरा व्यवहार करते हो, सब मुझे पता होता है, व्यवहार जो दूसरों से होता है सीधा मेरे साथ होता है| यदि तुम किसी को गाली देते हो, तो वह मुझे मिलती है, प्रेम करते हो तो वह भी मुझे ही प्राप्त होता है|
भक्त:
जो भी व्यक्ति पत्नी, संतान और माता-पिता से पूर्णतया विमुख होकर केवल मुझसे प्रेम करता है, वही मेरा सच्चा भक्त है, वह भक्त मुझमे इस प्रकार से लीन हो जाता है, जैसे नदियां समुद्र में मिलकर उसमें लीन हो जाती हैं|
एकस्वरुप:
भोजन करने से पहले तुमने जिस कुत्ते को देखा, जिसे तुमने रोटी का टुकड़ा दिया, वह मेरा ही रूप है| इसी तरह समस्त जीव-जन्तु इत्यादि सभी मेरे ही रूप हैं| मैं उन्ही का रूप धरकर घूम रहा हूं| इसलिए द्वैत-भाव त्याग के कुत्ते को भोजन कराने की तरह ही मेरी सेवा किया करो|
कर्त्तव्य:
विधि अनुसार प्रतेक जीवन अपना एक निश्चित लक्ष्य लेकर आता है| जब तक वह अपने जीवन में उस लक्ष्य का संतोषजनक रूप और असंबद्ध भाव से पालन नहीं करता, तब तक उसका मन निर्विकार नहीं हो सकता यानि वह मोक्ष और ब्रह्म ज्ञान पने का अधिकारी नहीं हो सकता|
लोभ (लालच): लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|
लोभ (लालच):
लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|
दरिद्रता:
दरिद्रता (गरीबी) सर्वोच्च संपत्ति है और ईश्वर से भी उच्च है| ईश्वर गरीब का भाई होता है| फकीर ही सच्चा बादशाह है| फकीर का नाश नहीं होता, लकिन अमीर का साम्राज्य शीघ्र ही मिट जाता है|
भेदभाव:
अपने मध्य से भेदभाव रुपी दीवार को सदैव के लिए मिटा दो तभी तुम्हारे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| ध्यान रखो साईं सूक्ष्म रूप से तुम्हारे भीतर समाए हुए है और तुम उनके अंदर समाए हुए हो| इसलिए मैं कौन हूं? इस प्रशन के साथ सदैव आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करो| वैसे जो बिना किसी भेदभाव के परस्पर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, वे सच में बड़े महान होते हैं|
मृत्यु:
प्राणी सदा से मृत्यु के अधीन रहा है| मृत्यु की कल्पना करके ही वह भयभीत हो उठता है| कोई मरता नहीं है| यदि तुम अपने अंदर की आंखे खोलकर देखोगे| तब तुम्हें अनुभव होगा कि तुम ईश्वर हो और उससे भिन्न नहीं हो| वास्तव में किसी भी प्राणी की मृतु नहीं होती| वह अपने कर्मों के अनुसार, शरीर का चोला बदल लेता है| जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्यक कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक उसी के समान जीवात्मा भी अपने पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को धारण कर लेती है|
ईश्वर:
उस महान् सर्वशक्तिमान् का सर्वभूतों में वास है| वह सत्य स्वरुप परमतत्व है| जो समस्त चराचर जगत का पालन-पोषण एवं विनाश करने वाला एवं कर्मों के फल देने वाला है| वह अपनी योग माया से सत्य साईं का अंश धारण करके इस धरती के प्रत्येक जीव में वास करता है| चाहे वह विषैले बिच्छू हों या जहरीले नाग-समस्त जीव केवल उसी की आज्ञा का ही पालन करते हैं|
ईश्वर का अनुग्रह:
तुमको सदैव सत्य का पालन पूर्ण दृढ़ता के साथ करना चाहिए और दिए गए वचनों का सदा निर्वाह करना चाहिए| श्रद्धा और धैर्य सदैव ह्रदय में धारण करो| फिर तुम जहाँ भी रहोगे, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा|
ईश्वर प्रदत्त उपहार:
मनुष्य द्वरा दिया गया उपहार चिरस्थायी नहीं होता और वह सदैव अपूर्ण होता है| चाहकर भी तुम उसे सारा जीवन अपने पास सहेजकर सुरक्षित नहीं रख सकते| परन्तु ईश्वर जो उपहार प्रत्तेकप्राणी को देता है वह जीवन भर उसके पास रहता है| ईश्वर के पांच मूल्यवान उपहार - सादगी, सच्चाई, सुमिरन, सेवा, सत्संग की तुलना मनुष्य प्रदत्त किसी उपहार से नहीं हो सकती है|
ईश्वर की इच्छा:
जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं होगी-तब तक तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा कभी नहीं हो सकता| जब तक तुम ईश्वर की शरण में हो, तो कोई चहाकर भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकता|
आत्मसमर्पण:
जो पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पित हो चुका है, जो श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मेरी पूजा करता है, जो मुझे सदैव याद करता है और जो निरन्तर मेरे इस स्वरूप का ध्यान करता है, उसे मोक्ष प्रदान करना मेरा विशिष्ट गुण है|
सार-तत्त्व:
केवल ब्रह्म ही सार-तत्त्व है और संसार नश्वर है| इस संसार में वस्तुतः हमार कोई नहीं, चाहे वह पुत्र हो, पिता हो या पत्नी ही क्यों न हो|
भलाई:
यदि तुम भलाई के कार्य करते हो तो भलाई सचमुच में तुम्हारा अनुसरण करेगी|
सौन्दर्य:
हमको किसी भी व्यक्ति की सुंदरता अथवा कुरूपता से परेशान नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके रूप में निहित ईश्वर पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए|
दक्षिणा:
दक्षिणा (श्रद्धापूर्वक भेंट) देना वैराग्ये में बढोत्तरी करता है और वैराग्ये के द्वारा भक्ति की वृद्धि होती है|
मोक्ष:
मोक्ष की आशा में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में, मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु-चरणों की सेवा अनिवार्य है|
दान:
दाता देता है यानी वह भविष्य में अच्छी फसल काटने के लिए बीज बोता है| धन को धर्मार्थ कार्यों का साधन बनाना चाहिए| यदि यह पहले नहीं दिया गया है तो अब तुम उसे नहीं पाओगे| अतएव पाने के लिए उत्तम मार्ग दान देना है|
सेवा:
इस धारणा के साथ सेवा करना कि मैं स्वतंत्र हूं, सेवा करूं या न करूं, सेवा नहीं है| शिष्य को यह जानना चाहिए कि उसके शरीर पर उसका नहीं बल्कि उसके 'गुरु' का अधिकार है और इस शरीर का अस्तित्व केवल 'गुरु' की सेवा करने में ही सार्थक है|
शोषण:
किसी को किसी से भी मुफ्त में कोई काम नहीं लेना चाहिए| काम करने वाले को उसके काम के बदले शीघ्र और उदारतापूर्वक पारिश्रमिक देना चाहिए|
अन्नदान:
यह निश्चित समझो कि जो भूखे को भोजन कराता है, वह वास्तव में उस भोजन द्वारा मेरी सेवा किया करता है| इसे अटल सत्य समझो|
भोजन:
इस मस्जित में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा| इसी तरह मेरे ऊपर दया करते रहो| पहले भूखे को रोटी दो, फिर तुम स्वंय खाओ| इस बात को गांठ बांध लो|
बुद्धिमान:
जिसे ईश्वर की कृपालुता (दया) का वरदान मिल चुका है, वह फालतू (ज्यादा) बातें नहीं किया करता| भगवान की दया के अभाव में व्यक्ति अनावश्यक बातें करता है|
झगड़े:
यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर तुम्हें गालियां देता है या दण्ड देता है तो उससे झगड़ा मत करो| यदि तुम इसे सहन नहीं कर सकते तो उससे एक-दो सरलतापूर्वक शब्द बोलो अथवा उस स्थान से हट जाओ, लेकिन उससे हाथापाई (झगड़ा) मत करो|
वासना:
जिसने वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त की है, उसे प्रभु के दर्शन (आत्म-साक्षात्कार) नहीं हो सकता|
पाप:
मन-वचन-कर्म द्वारा दूसरों के शरीर को चोट पहुंचाना पाप है और दूसरे को सुख पहुंचना पुण्य है, भलाई है|
सहिष्णुता:
सुख और दुख तो हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं| इसलिए जो भी सुख-दुःख सामने आये, उसे उसे अविचल रहकर सहन करो|
त्य:
तुम्हें सदैव सत्य ही बोलना चाहिए| फिर चाहे तुम जहां भी रहो और हर समय मैं सदा तुम्हारे साथ ही रहूंगा|
एकत्व:
राम और रहीम दोनों एक ही थे और समान थे| उन दोनों में किंचित मात्र भी भेद नहीं था| तुम नासमझ लोगों, बच्चों, एक-दूसरे से हाथ मिला और दोनों समुदायों को एक साथ मिलकर रहना चाहिए| बुद्धिमानी के साथ एक-दूसरे से व्यवहार करो-तभी तुम अपने राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पूरा कर पाओगे|
अहंकार:
कौन किसका शत्रु है? किसी के लिए ऐसा मत कहो, कि वह तुम्हारा शत्रु है? सभी एक हैं और वही हैं|
आधार स्तम्भ:
चाहे जो हो जाये, अपने आधार स्तम्भ 'गुरु' पर दृढ़ रहो और सदैव उसके साथ एककार रूप में रहकर स्थित रहो|
आश्वासन:
यदि कोई व्यक्ति सदैव मेरे नाम का उच्चारण करता है तो मैं उसकी समस्त इच्छायें पूरी करूंगा| यदि वह निष्ठापूर्वक मेरी जीवन गाथाओं और लीलाओं का गायन करता है तो मैं सदैव उसके आगे-पीछे, दायें-बायें सदैव उपस्थित रहूंगा|
मन-शक्ति:
चाहे संसार उलट-पलट क्यों न हो जाये, तुम अपने स्थान पर स्थित बने रहो| अपनी जगह पर खड़े रहकर या स्थित रहकर शांतिपूर्वक अपने सामने से गुजरते हुए सभी वस्तुओं के दृश्यों के अविचलित देखते रहो|
भक्ति:
वेदों के ज्ञान अथवा महान् ज्ञानी (विद्वान) के रूप में प्रसिद्धि अथवा औपचारिकता भजन (उपासना) का कोई महत्त्व नहीं है, जब तक उसमे भक्ति का योग न हो|
भक्त और भक्ति:
जो भी कोई प्राणी अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के बाद, निष्काम भाव से मेरी शरण में आ जाता है| जिसे मेरी भक्ति बिना यह संसार सुना-सुना जान पड़ता है जो दिन रात मेरे नाम का जप करता है मैं उसकी इस अमूल्य भक्ति का ऋण, उसकी मुक्ति करके चुका देता हूँ|
भाग्य:
जिसे दण्ड निर्धारित है, उसे दण्ड अवश्य मिलेगा| जिसे मरना है, वह मरेगा| जिसे प्रेम मिलना है उसे प्रेम मिलेगा| यह निश्चित जानो|
नाम स्मरण:
यदि तुम नित्य 'राजाराम-राजाराम' रटते रहोगे तो तुम्हें शांति प्राप्त होगी और तुमको लाभ होगा|
अतिथि सत्कार:
पूर्व ऋणानुबन्ध के बिना कोई भी हमारे संपर्क में नहीं आता| पुराने जन्म के बकाया लेन-देन 'ऋणानुबन्ध' कहलाता है| इसलिए कोई कुत्ता, बिल्ली, सूअर, मक्खियां अथवा कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आता है तो उसे दुत्कार कर भगाओ मत|
गुरु:
अपने गुरु के प्रति अडिग श्रद्धा रखो| अन्य गुरूओं में चाहे जो भी गुण हों और तुम्हारे गुरु में चाहे जितने कम गुण हों|
आत्मानुभव:
हमको स्वंय वस्तुओं का अनुभव करना चाहिए| किसी विषय में दूसरे के पास जाकर उसके विचार या अनुभवों के बारे में जानने की क्या आवश्यकता है?
गुरु-कृपा:
मां कछुवी नदी के दूसरे किनारे पर रहती है और उसके छोटे-छोटे बच्चे दूसरे किनारे पर| कछुवी न तो उन बच्चों को दूध पिलाती है और न ही उष्णता प्रदान करती है| पर उसकी दृष्टिमात्र ही उन्हें उष्णता प्रदान करती है| वे छोटे-छोटे बच्चे अपने मां को याद करने के अलावा कुछ नहीं करते| कछुवी की दृष्टि उसके बच्चों के लिए अमृत वर्षा है, उनके जीवन का एक मात्र आधार है, वही उनके सुख का भी आधार है| गुरु और शिष्य के परस्पर सम्बन्ध भी इसी प्रकार के हैं|
सहायता:
जो भी अहंकार त्याग करके, अपने को कृतज्ञ मानकर साईं पर पूर्ण विश्वास करेगा और जब भी वह अपनी मदद के लिए साईं को पुकारेगा तो उसके कष्ट स्वयं ही अपने आप दूर हो जायेगें| ठीक उसी प्रकार यदि कोई तुमसे कुछ मांगता है और वह वास्तु देना तुम्हारे हाथ में है या उसे देने की सामर्थ्य तुममे है और तुम उसकी प्रार्थना स्वीकार कर सकते हो तो वह वस्तु उसे दो| मना मत करो| यदि उसे देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो उसे नम्रतापूर्वक इंकार कर दो, पर उसका उपहास मत उड़ाओ और न ही उस पर क्रोध करो| ऐसा करना साईं के आदेश पर चलने के समान है|
विवेक:
संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं - अच्छी और आकर्षक| ये दोनों ही मनुष्य द्वारा अपनाये जाने के लिए उसे आकर्षित करती हैं| उसे सोच-विचार कर इन दोनों में से कोई एक वस्तु का चुनाव करना चाहिए| बुद्धिमान व्यक्ति आकर्षक वस्तु की उपेक्षा अच्छी वस्तु का चुनाव करता है, लेकिन मूर्ख व्यक्ति लोभ और आसक्ति के वशीभूत होकर आकर्षक या सुखद वस्तु का चयन कर लेता है और परिणामतः ब्रह्मज्ञान (आत्मानुभूति) से वंचित हो जाता है|
जीवन के उतार-चढ़ाव:
लाभ और हानि, जीवन और मृत्यु-भगवान के हाथों में है, लेकिन लोग कैसे उस भगवान को भूल जाते हैं, जो इस जीवन की अंत तक देखभाल करता है|
सांसारिक सम्मान:
सांसारिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर भ्रमित मत हो| इष्टदेव के स्वरुप तुम्हारे रूप तुम्हारे मानस पटल पर सदैव अंकित रहना चाहिए| अपनी समस्त एन्द्रिक वासनाओं और अपने मन को सदैव भगवान की पूजा में निरंतर लगाये रखो|
जिज्ञासा प्रश्न:
केवल प्रश्न पूछना ही पर्याप्त नहीं है| प्रश्न किसी अनुचित धारणा से या गुरु को फंसाने और उसकी गलतियां पकड़ने के विचार से या केवल निष्किय अत्सुकतावश नहीं पूछे जाने चाहिए| प्रश्न पूछने के मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति अथवा आध्यात्मिक के मार्ग में प्रगति करना होना चाहिए|
आत्मानुभूति:
मैं एक शरीर हूं, इस प्रकार की धारणा केवल कोरा भ्रम है और इस धारणा के प्रति प्रतिबद्धता ही सांसारिक बंधनों का मुख्य कारण है| यदि सच में तुम आत्मानुभूति के लक्ष्य को पाना चाहते हो तो इस धारणा और आसक्ति का त्याग कर दो|
आत्मीय सुख:
यदि कोई तुमसे घृणा और नफरत करता है तो तुम स्वयं को निर्दोष मत समझो| क्योंकि तुम्हारा कोई दोष ही उसकी घृणा और नफरत का कारण बाना होगा| अपने अहं की झूठी संतुष्टि के लिए उससे व्यर्थ झगड़ा मोल मत लो, उस व्यक्ति की उपेक्षा करके, अपने उस दोष को दूर करने का प्रयास करो जिससे कारण यह सब घटित हुआ है| यदि तुम ऐसा कर सकोगे तो तुम आत्मीय सुख का अनुभव कर सकोगे| यही सुख और प्रसन्नता का सच्चा मार्ग है|
विधि अनुसार प्रतेक जीवन अपना एक निश्चित लक्ष्य लेकर आता है| जब तक वह अपने जीवन में उस लक्ष्य का संतोषजनक रूप और असंबद्ध भाव से पालन नहीं करता, तब तक उसका मन निर्विकार नहीं हो सकता यानि वह मोक्ष और ब्रह्म ज्ञान पने का अधिकारी नहीं हो सकता|
लोभ (लालच): लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|
लोभ (लालच):
लोभ और लालच एक-दूसरे के परस्पर द्वेषी हैं| वे सनातक काल से एक-दूसरे के विरोधी हैं| जहां लाभ है वहां ब्रह्म का ध्यान करने की कोई गूंजाइश नहीं है| फिर लोभी व्यक्ति को अनासक्ति और मोक्ष को प्राप्ति कैसे हो सकती है|
दरिद्रता:
दरिद्रता (गरीबी) सर्वोच्च संपत्ति है और ईश्वर से भी उच्च है| ईश्वर गरीब का भाई होता है| फकीर ही सच्चा बादशाह है| फकीर का नाश नहीं होता, लकिन अमीर का साम्राज्य शीघ्र ही मिट जाता है|
भेदभाव:
अपने मध्य से भेदभाव रुपी दीवार को सदैव के लिए मिटा दो तभी तुम्हारे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| ध्यान रखो साईं सूक्ष्म रूप से तुम्हारे भीतर समाए हुए है और तुम उनके अंदर समाए हुए हो| इसलिए मैं कौन हूं? इस प्रशन के साथ सदैव आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करो| वैसे जो बिना किसी भेदभाव के परस्पर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, वे सच में बड़े महान होते हैं|
मृत्यु:
प्राणी सदा से मृत्यु के अधीन रहा है| मृत्यु की कल्पना करके ही वह भयभीत हो उठता है| कोई मरता नहीं है| यदि तुम अपने अंदर की आंखे खोलकर देखोगे| तब तुम्हें अनुभव होगा कि तुम ईश्वर हो और उससे भिन्न नहीं हो| वास्तव में किसी भी प्राणी की मृतु नहीं होती| वह अपने कर्मों के अनुसार, शरीर का चोला बदल लेता है| जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्यक कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक उसी के समान जीवात्मा भी अपने पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को धारण कर लेती है|
ईश्वर:
उस महान् सर्वशक्तिमान् का सर्वभूतों में वास है| वह सत्य स्वरुप परमतत्व है| जो समस्त चराचर जगत का पालन-पोषण एवं विनाश करने वाला एवं कर्मों के फल देने वाला है| वह अपनी योग माया से सत्य साईं का अंश धारण करके इस धरती के प्रत्येक जीव में वास करता है| चाहे वह विषैले बिच्छू हों या जहरीले नाग-समस्त जीव केवल उसी की आज्ञा का ही पालन करते हैं|
ईश्वर का अनुग्रह:
तुमको सदैव सत्य का पालन पूर्ण दृढ़ता के साथ करना चाहिए और दिए गए वचनों का सदा निर्वाह करना चाहिए| श्रद्धा और धैर्य सदैव ह्रदय में धारण करो| फिर तुम जहाँ भी रहोगे, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूंगा|
ईश्वर प्रदत्त उपहार:
मनुष्य द्वरा दिया गया उपहार चिरस्थायी नहीं होता और वह सदैव अपूर्ण होता है| चाहकर भी तुम उसे सारा जीवन अपने पास सहेजकर सुरक्षित नहीं रख सकते| परन्तु ईश्वर जो उपहार प्रत्तेकप्राणी को देता है वह जीवन भर उसके पास रहता है| ईश्वर के पांच मूल्यवान उपहार - सादगी, सच्चाई, सुमिरन, सेवा, सत्संग की तुलना मनुष्य प्रदत्त किसी उपहार से नहीं हो सकती है|
ईश्वर की इच्छा:
जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं होगी-तब तक तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा कभी नहीं हो सकता| जब तक तुम ईश्वर की शरण में हो, तो कोई चहाकर भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकता|
आत्मसमर्पण:
जो पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पित हो चुका है, जो श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मेरी पूजा करता है, जो मुझे सदैव याद करता है और जो निरन्तर मेरे इस स्वरूप का ध्यान करता है, उसे मोक्ष प्रदान करना मेरा विशिष्ट गुण है|
सार-तत्त्व:
केवल ब्रह्म ही सार-तत्त्व है और संसार नश्वर है| इस संसार में वस्तुतः हमार कोई नहीं, चाहे वह पुत्र हो, पिता हो या पत्नी ही क्यों न हो|
भलाई:
यदि तुम भलाई के कार्य करते हो तो भलाई सचमुच में तुम्हारा अनुसरण करेगी|
सौन्दर्य:
हमको किसी भी व्यक्ति की सुंदरता अथवा कुरूपता से परेशान नहीं होना चाहिए, बल्कि उसके रूप में निहित ईश्वर पर ही मुख्य रूप से अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए|
दक्षिणा:
दक्षिणा (श्रद्धापूर्वक भेंट) देना वैराग्ये में बढोत्तरी करता है और वैराग्ये के द्वारा भक्ति की वृद्धि होती है|
मोक्ष:
मोक्ष की आशा में आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में, मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु-चरणों की सेवा अनिवार्य है|
दान:
दाता देता है यानी वह भविष्य में अच्छी फसल काटने के लिए बीज बोता है| धन को धर्मार्थ कार्यों का साधन बनाना चाहिए| यदि यह पहले नहीं दिया गया है तो अब तुम उसे नहीं पाओगे| अतएव पाने के लिए उत्तम मार्ग दान देना है|
सेवा:
इस धारणा के साथ सेवा करना कि मैं स्वतंत्र हूं, सेवा करूं या न करूं, सेवा नहीं है| शिष्य को यह जानना चाहिए कि उसके शरीर पर उसका नहीं बल्कि उसके 'गुरु' का अधिकार है और इस शरीर का अस्तित्व केवल 'गुरु' की सेवा करने में ही सार्थक है|
शोषण:
किसी को किसी से भी मुफ्त में कोई काम नहीं लेना चाहिए| काम करने वाले को उसके काम के बदले शीघ्र और उदारतापूर्वक पारिश्रमिक देना चाहिए|
अन्नदान:
यह निश्चित समझो कि जो भूखे को भोजन कराता है, वह वास्तव में उस भोजन द्वारा मेरी सेवा किया करता है| इसे अटल सत्य समझो|
भोजन:
इस मस्जित में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा| इसी तरह मेरे ऊपर दया करते रहो| पहले भूखे को रोटी दो, फिर तुम स्वंय खाओ| इस बात को गांठ बांध लो|
बुद्धिमान:
जिसे ईश्वर की कृपालुता (दया) का वरदान मिल चुका है, वह फालतू (ज्यादा) बातें नहीं किया करता| भगवान की दया के अभाव में व्यक्ति अनावश्यक बातें करता है|
झगड़े:
यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर तुम्हें गालियां देता है या दण्ड देता है तो उससे झगड़ा मत करो| यदि तुम इसे सहन नहीं कर सकते तो उससे एक-दो सरलतापूर्वक शब्द बोलो अथवा उस स्थान से हट जाओ, लेकिन उससे हाथापाई (झगड़ा) मत करो|
वासना:
जिसने वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त की है, उसे प्रभु के दर्शन (आत्म-साक्षात्कार) नहीं हो सकता|
पाप:
मन-वचन-कर्म द्वारा दूसरों के शरीर को चोट पहुंचाना पाप है और दूसरे को सुख पहुंचना पुण्य है, भलाई है|
सहिष्णुता:
सुख और दुख तो हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं| इसलिए जो भी सुख-दुःख सामने आये, उसे उसे अविचल रहकर सहन करो|
त्य:
तुम्हें सदैव सत्य ही बोलना चाहिए| फिर चाहे तुम जहां भी रहो और हर समय मैं सदा तुम्हारे साथ ही रहूंगा|
एकत्व:
राम और रहीम दोनों एक ही थे और समान थे| उन दोनों में किंचित मात्र भी भेद नहीं था| तुम नासमझ लोगों, बच्चों, एक-दूसरे से हाथ मिला और दोनों समुदायों को एक साथ मिलकर रहना चाहिए| बुद्धिमानी के साथ एक-दूसरे से व्यवहार करो-तभी तुम अपने राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पूरा कर पाओगे|
अहंकार:
कौन किसका शत्रु है? किसी के लिए ऐसा मत कहो, कि वह तुम्हारा शत्रु है? सभी एक हैं और वही हैं|
आधार स्तम्भ:
चाहे जो हो जाये, अपने आधार स्तम्भ 'गुरु' पर दृढ़ रहो और सदैव उसके साथ एककार रूप में रहकर स्थित रहो|
आश्वासन:
यदि कोई व्यक्ति सदैव मेरे नाम का उच्चारण करता है तो मैं उसकी समस्त इच्छायें पूरी करूंगा| यदि वह निष्ठापूर्वक मेरी जीवन गाथाओं और लीलाओं का गायन करता है तो मैं सदैव उसके आगे-पीछे, दायें-बायें सदैव उपस्थित रहूंगा|
मन-शक्ति:
चाहे संसार उलट-पलट क्यों न हो जाये, तुम अपने स्थान पर स्थित बने रहो| अपनी जगह पर खड़े रहकर या स्थित रहकर शांतिपूर्वक अपने सामने से गुजरते हुए सभी वस्तुओं के दृश्यों के अविचलित देखते रहो|
भक्ति:
वेदों के ज्ञान अथवा महान् ज्ञानी (विद्वान) के रूप में प्रसिद्धि अथवा औपचारिकता भजन (उपासना) का कोई महत्त्व नहीं है, जब तक उसमे भक्ति का योग न हो|
भक्त और भक्ति:
जो भी कोई प्राणी अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के बाद, निष्काम भाव से मेरी शरण में आ जाता है| जिसे मेरी भक्ति बिना यह संसार सुना-सुना जान पड़ता है जो दिन रात मेरे नाम का जप करता है मैं उसकी इस अमूल्य भक्ति का ऋण, उसकी मुक्ति करके चुका देता हूँ|
भाग्य:
जिसे दण्ड निर्धारित है, उसे दण्ड अवश्य मिलेगा| जिसे मरना है, वह मरेगा| जिसे प्रेम मिलना है उसे प्रेम मिलेगा| यह निश्चित जानो|
नाम स्मरण:
यदि तुम नित्य 'राजाराम-राजाराम' रटते रहोगे तो तुम्हें शांति प्राप्त होगी और तुमको लाभ होगा|
अतिथि सत्कार:
पूर्व ऋणानुबन्ध के बिना कोई भी हमारे संपर्क में नहीं आता| पुराने जन्म के बकाया लेन-देन 'ऋणानुबन्ध' कहलाता है| इसलिए कोई कुत्ता, बिल्ली, सूअर, मक्खियां अथवा कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आता है तो उसे दुत्कार कर भगाओ मत|
गुरु:
अपने गुरु के प्रति अडिग श्रद्धा रखो| अन्य गुरूओं में चाहे जो भी गुण हों और तुम्हारे गुरु में चाहे जितने कम गुण हों|
आत्मानुभव:
हमको स्वंय वस्तुओं का अनुभव करना चाहिए| किसी विषय में दूसरे के पास जाकर उसके विचार या अनुभवों के बारे में जानने की क्या आवश्यकता है?
गुरु-कृपा:
मां कछुवी नदी के दूसरे किनारे पर रहती है और उसके छोटे-छोटे बच्चे दूसरे किनारे पर| कछुवी न तो उन बच्चों को दूध पिलाती है और न ही उष्णता प्रदान करती है| पर उसकी दृष्टिमात्र ही उन्हें उष्णता प्रदान करती है| वे छोटे-छोटे बच्चे अपने मां को याद करने के अलावा कुछ नहीं करते| कछुवी की दृष्टि उसके बच्चों के लिए अमृत वर्षा है, उनके जीवन का एक मात्र आधार है, वही उनके सुख का भी आधार है| गुरु और शिष्य के परस्पर सम्बन्ध भी इसी प्रकार के हैं|
सहायता:
जो भी अहंकार त्याग करके, अपने को कृतज्ञ मानकर साईं पर पूर्ण विश्वास करेगा और जब भी वह अपनी मदद के लिए साईं को पुकारेगा तो उसके कष्ट स्वयं ही अपने आप दूर हो जायेगें| ठीक उसी प्रकार यदि कोई तुमसे कुछ मांगता है और वह वास्तु देना तुम्हारे हाथ में है या उसे देने की सामर्थ्य तुममे है और तुम उसकी प्रार्थना स्वीकार कर सकते हो तो वह वस्तु उसे दो| मना मत करो| यदि उसे देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो उसे नम्रतापूर्वक इंकार कर दो, पर उसका उपहास मत उड़ाओ और न ही उस पर क्रोध करो| ऐसा करना साईं के आदेश पर चलने के समान है|
विवेक:
संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं - अच्छी और आकर्षक| ये दोनों ही मनुष्य द्वारा अपनाये जाने के लिए उसे आकर्षित करती हैं| उसे सोच-विचार कर इन दोनों में से कोई एक वस्तु का चुनाव करना चाहिए| बुद्धिमान व्यक्ति आकर्षक वस्तु की उपेक्षा अच्छी वस्तु का चुनाव करता है, लेकिन मूर्ख व्यक्ति लोभ और आसक्ति के वशीभूत होकर आकर्षक या सुखद वस्तु का चयन कर लेता है और परिणामतः ब्रह्मज्ञान (आत्मानुभूति) से वंचित हो जाता है|
जीवन के उतार-चढ़ाव:
लाभ और हानि, जीवन और मृत्यु-भगवान के हाथों में है, लेकिन लोग कैसे उस भगवान को भूल जाते हैं, जो इस जीवन की अंत तक देखभाल करता है|
सांसारिक सम्मान:
सांसारिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर भ्रमित मत हो| इष्टदेव के स्वरुप तुम्हारे रूप तुम्हारे मानस पटल पर सदैव अंकित रहना चाहिए| अपनी समस्त एन्द्रिक वासनाओं और अपने मन को सदैव भगवान की पूजा में निरंतर लगाये रखो|
जिज्ञासा प्रश्न:
केवल प्रश्न पूछना ही पर्याप्त नहीं है| प्रश्न किसी अनुचित धारणा से या गुरु को फंसाने और उसकी गलतियां पकड़ने के विचार से या केवल निष्किय अत्सुकतावश नहीं पूछे जाने चाहिए| प्रश्न पूछने के मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति अथवा आध्यात्मिक के मार्ग में प्रगति करना होना चाहिए|
आत्मानुभूति:
मैं एक शरीर हूं, इस प्रकार की धारणा केवल कोरा भ्रम है और इस धारणा के प्रति प्रतिबद्धता ही सांसारिक बंधनों का मुख्य कारण है| यदि सच में तुम आत्मानुभूति के लक्ष्य को पाना चाहते हो तो इस धारणा और आसक्ति का त्याग कर दो|
आत्मीय सुख:
यदि कोई तुमसे घृणा और नफरत करता है तो तुम स्वयं को निर्दोष मत समझो| क्योंकि तुम्हारा कोई दोष ही उसकी घृणा और नफरत का कारण बाना होगा| अपने अहं की झूठी संतुष्टि के लिए उससे व्यर्थ झगड़ा मोल मत लो, उस व्यक्ति की उपेक्षा करके, अपने उस दोष को दूर करने का प्रयास करो जिससे कारण यह सब घटित हुआ है| यदि तुम ऐसा कर सकोगे तो तुम आत्मीय सुख का अनुभव कर सकोगे| यही सुख और प्रसन्नता का सच्चा मार्ग है|
कल से हम एक नया प्रयास करने हेतू आप सभी का सहयोग चाहते हैं, हम गुरूओं की बानी को आप तक पहुँचाना अपना मकसद समझते है और इस प्रयास मे हुम कल से आप सब के समक्ष सिक्ख गुरुओं की बानी एवम उनके जीवन काल के बारे मे एक नई कड़ी आरम्भ कर रहे है...
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
Sunday, 14 September 2014
श्री साईं लीलाएं - काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
ॐ सांई राम
कल हमने पढ़ा था.. कर्म भोग न छूटे भाई
श्री साईं लीलाएं
काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि बाबा किसी का ग्रंथ वापस भी न करते और उसे शामा को रखने के लिए कहते| वह एक भक्त ने खरीदा है - ऐसा सोचकर शामा यदि उसे लौटाने के लिए बाबा से पूछते तो भी बाबा ग्रंथ नहीं लौटाते थे और यह ग्रंथ तेरे पास ही रहेगा ऐसा सीधा-सा जवाद देते| यानी कौन ग्रंथ पढ़े, क्या पढ़े, ये निर्णय बाबा ही करते थे|
एक बार की बात है कि काका महाजनी बाबा के दर्शन करने के लिए शिरडी आये| उन्हें एक ऐसा ही ग्रंथ 'नाथ भागवत' बाबा ने दिया था| वे उसे हर समय अपने साथ रखते थे और रोजाना पढ़ते थे| जब काका महाजनी शिरडी आये तो शामा उनसे मिलने गये और निकलते समय काका से बोले - "काका, यह भागवत मैं देखकर लौटा देता हूं|" और ग्रंथ को अपने साथ में ले गये| जब शामा मस्जिद में गये तो बाबा ने पूछा - "शामा, यह ग्रंथ कौन-सा है?" तो शामा ने वही ग्रंथ बाबा के हाथ में दे दिया और बाबा ने वह ग्रंथ देखकर उसे वापस देते हुए कहा - "यह ग्रंथ तू अपने पास ही रखना, आगे काम आयेगा|"
तब शामा ने कहा - "बाबा ! यह ग्रंथ तो काका साहब का है, मैं उन्हें इसे वापस लौटाने का वादा करके आया हूं| यह मैं कैसे रख लूं?" बाबा ने कहा - "जब मैंने इस ग्रंथ को तुम्हें रखने के लिए कहा है तब यह समझ ले कि यह आगे चलकर तुम्हारे काम आनेवाला है|" अब शामा करे भी तो क्या करे, उन्होंने काका के पास जाकर सारी बात उन्हें ज्यों-की-त्यों बता दी और वह ग्रंथ अपने पास रख लिया|
कुछ दिन बाद काका जब फिर से शिरडी आये तो वह अपने साथ एक और भागवत ग्रंथ लाये थे| मस्जिद में बाबा के दर्शन करने के बाद जब काका ने वह ग्रंथ बाबा के हाथ में दिया, तो बाबा ने उसे प्रसाद के रूप में लौटाते हुए कहा - "ऐ काका ! यही ग्रंथ आगे चलकर तेरे काम आने वाला है| इसलिए अब यह ग्रंथ किसी को मत दे देना|" बाबा ने जिस ढंग से यह बात कही थी, उसे देखते हुए काका ने वह ग्रंथ अपने सिर पर उठाया और फिर साथ में ले गये|
ऐसा ही पार्सल एक बार शिरडी के डाकघर में बाबू साहब जोग के पास आया| पार्सल खोलने पर उन्होंने देखा तो वह लोकमान्य तिलक की लिखी किताब थी, जिसका नाम था 'गीता रहस्य'| जोग उस किताब को बगल में दबाये हुए सीधे मस्जिद में पहुंचे| वहां पहुंचकर बाबा के दर्शन कर चरणवंदना करने लगे, तभी वह पार्सल नीचे गिर पड़ा|
तब बाबा ने पूछा - "बापू साहब, इसमें क्या है?" जोग ने पार्सल खोलकर वह पुस्तक निकालकर चुपचाप बाबा के श्रीचरणों के पास रख दी| बाबा ने उठाकर कुछ देर उसके पन्ने उल्ट-पुल्ट कर देखे और उस पर एक रुपया रखकर वह पुस्तक जोग को लौटाते हुए बाबा ने कहा - "इस ग्रंथ को तू मन लगाकर पढ़ना| इसी से तेरा कल्याण हो जायेगा|" श्री जोग को ऐसा लगा कि यह साईं बाबा ने उन पर बड़ा अनुग्रह किया, फिर वह ग्रंथ को लेकर लौट गये|
कल चर्चा करेंगे... साईं बाबा की भक्तों को शिक्षाएं - अमृतोपदेश
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
Saturday, 13 September 2014
श्री साईं लीलाएं - कर्म भोग न छूटे भाई
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
कल हमने पढ़ा था.. लाओ, अब बाकी के तीन रुपये दे दो
श्री साईं लीलाएं
शिर्डी से श्री साँई बाबा जी की श्री कमल चरण पादुका एंवम सटके की यह तस्वीर बाबा जी के म्यूज़ियम से ली गयी है
कर्म भोग न छूटे भाई
पूना के रहनेवाले गोपाल नारायण अंबेडकर बाबा के अनन्य भक्त थे| वे सरकारी कर्मचारी थे| शुरू में वे जिला ठाणे में नौकरी पर थे, बाद में तरक्की हो जाने पर उनका तबादला ज्वाहर गांव में हो गया| लगभग 10 वर्ष नौकरी करने के बाद उन्हें किसी कारणवश त्यागपत्र देना पड़ा| फिर उन्होंने दूसरी नौकरी के लिए अनथक प्रयास किये, परंतु सफलता नहीं मिली| नौकरी न मिलने के कारण माली हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती चली गयी और घर-बार चलाना उनके लिए मुसीबत बन गया| ऐसी स्थिति सात वर्ष तक चली, परन्तु ऐसी स्थिति होने के बावजूद भी प्रत्येक वर्ष शिरडी जाते और बाबा को अपनी फरियाद सुनाकर वापस आ जाते| आगे चलकर उनकी हालत इतनी बदत्तर हो गयी कि अब उनके सामने आत्महत्या करने के अलावा और कोई रास्ता न बचा था| तब वे शिरडी जाकर आत्महत्या करने का निर्णय कर परिवार सहित शिरडी आये और दो महीने तक दीक्षित के घर में रहे|
एक रात के समय दीक्षित बाड़े के सामने बैलगाड़ी पर बैठे-बैठे उन्होंने कुएं में कूदकर आत्महत्या करने का विचार किया, लेकिन बाबा ने उन्हें आत्महत्या करने से रोकने का निश्चय कर लिया था| यह देखकर कि अब कोई देखने वाला नहीं है, यह सोचकर वे कुएं के पास आये| वहां पास ही सगुण सरायवाले का घर था और उसने वहीं से पुकारा और पूछा - "गोपालराव, क्या आपने अक्कलकोट महाराज स्वामी की जीवनी पढ़ी है क्या?" गोपालराव ने कहा - "नहीं| पर जरा दिखाओ तो सही|" सगुण ने वह किताब उन्हें थमा दी| किताब के पन्ने उलटते-पलटते वे एक जगह पर रुके और वहां से पढ़ने लगे| वह एक ऐसी घटना थी कि श्री स्वामी महाराज का एक भक्त अपनी बीमारी से तंग आ चुका था| बीमारी से मुक्ति पाने के लिए उसने स्वामी जी की जी-जान से सेवा भी की, पर कोई फायदा न होते देख उसने आत्महत्या करने की सोची| रात के अंधेरे का लाभ उठाकर वह एक कुएं में कूद गया| उसी श्रण स्वामी जी वहां प्रकट हुए और उसे कुएं में से बाहर निकाल लिया| फिर उसे समझाते हुए बोले - "ऐसा करने से क्या होने वाला है? तुम्हें अपने पूर्व जन्म के शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना चाहिए| यदि इन भोगों को नहीं भोगोगे तो फिर से किसी निकृष्ट योनि में जन्म लेना पड़ेगा - और कर्म-भोग तुम्हें ही भोगने पड़ेंगे| इसलिए जो भी अपना कर्मफल है, उसे यहीं इसी जन्म में भोगकर तुम सदैव के लिए मुक्त हो जाओ|" इन वचनों को सुनकर भक्त को अपनी गलती का अहसास हो गया| फिर उसने विचार किया कि जब स्वामी जी जैसे मेरे रखवाले हों तो मैं कर्मफल से क्यों डरूं?
यह कहानी पढ़कर गोपालराव के विचार भी बदल गये और उसने आत्महत्या करने का विचार त्याग दिया| उसे इस बात का अनुभव हो गया कि साईं बाबा ने मुझे सगुण के द्वारा आज बचाया है| यदि सगुण न बुलाता तो आज मैं गलत रास्ते पर चल दिया होता और मेरा परिवार अनाथ हो जाता| फिर उसने मन-ही-मन बाबा की चरणवंदना की और लौट गया| बाबा के आशीर्वाद से उसका भाग्य चमक गया| आगे चलकर उसे बाबा की कृपा से ज्योतिष विद्या की प्राप्ति हुई और उस विद्या के बल पर उसने धनोपार्जन कर अपना कर्ज उतार दिया और शेष जीवन सुख-शांति से बिताया|
कल चर्चा करेंगे... काका, नाथ भागवत पढ़ो, यही एक दिन तुम्हारे काम आयेगा
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
Friday, 12 September 2014
श्री साईं लीलाएं - लाओ, अब बाकी के तीन रुपये दे दो
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
कल हमने पढ़ा था.. गुरु-गुरु में अंतर न करें
श्री साईं लीलाएं
लाओ, अब बाकी के तीन रुपये दे दो
सन् 1910 में दासगणु महाराज के कीर्तन मुम्बई में अनेक जगहों पर हुए और बाबा का नाम भी सारे मुम्बई में प्रसिद्ध हो गया था| पिल्ले ने भी एक दिन दासगणु का संकीर्तन सुना| वे जानते थे कि यदि बाबा ने इस पर अपना वरदहस्त रख दिया तो इसका रोग क्षणमात्र में ही नष्ट हो, यह स्वस्थ हो जायेगा|
फिर एक दिन वह अपने परिवार सहित शिरडी में पहुंचे| वहां मस्जिद में जाकर उन्होंने परिवार सहित बाबा की चरणवंदना की| बाबा की मंगल मूरत देख पिल्ले की आँखें भर आयीं और उन्होंने अपना रोगी पुत्र बाबा के चरणों में लिटा दिया| जैसे ही बाबा ने रोगी पुत्र पर दृष्टिपात किया, अचानक उसमें एकदम बदलाव-सा आया| उसकी आँखें फिर गईं और वह बेहोश हो गया| मुंह से झाग निकलने लगे, शरीर पसीने से बुरी तरह भीग गया| ऐसा लगने लगा कि शायद अब जीवित न बचेगा|
अपने पुत्र की ऐसी हालत देखकर वे घबरा गये, क्योंकि अब से पहले वह इतनी ज्यादा देर तक बेहोश कभी नहीं रहा था| उनकी पत्नी की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी| वे तो अपने पुत्र को इलाज के लिए लाये थे, लेकिन दिखता कुछ और ही है|
साईं बाबा उनका दर्द समझते थे| इसलिए बाबा उनसे बोले - "व्यक्ति को कभी भी अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए| एक पल में कुछ नहीं होता| इसे उठाकर अपने निवास स्थान पर उठाकर ले जाओ| जल्दी ही होश आ जायेगा| चिंता मत करना|"
दोनों बच्चे को उठाकर बाड़े में ले आये| वहां आने पर कुछ ही देर में उसे होश आ गया| यह देख वह बहुत प्रसन्न हुए| उनकी चिंता दूर हो गयी| शाम को पति-पत्नी दोनों बच्चे को लेकर बाबा के दर्शन करने मस्जिद में आये और बाबा की चरणवंदना की| तब बाबा ने मुस्कराते हुए कहा - "अब तो तुम्हें विश्वास हो गया? जो विश्वास रहते हुए धैर्य से रहता है, ईश्वर उसकी रक्षा अवश्य करता है|"
पिल्ले खानदानी रईस व्यक्ति थे| अपना पुत्र ठीक हो जाने की खुशी में उन्होंने वहां उपस्थित सभी लोगों को मिठाई बांटी| बाबा को उत्तम फल, फूल, वस्त्र, दक्षिणा आदि श्रीचरणों में भेंट की| अब पति-पत्नी दोनों की निष्ठा बाबा के प्रति और भी गहरी हो गयी और वे पूरी श्रद्धा और भक्ति-भाव से बाबा की सेवा करने लगे|
कुछ दिनों तक शिरडी में रहने के बाद जब मस्जिद में जाकर पिल्ले ने बाबा से मुम्बई जाने की अनुमति मांगी, तब बाबा ने उन्हें ऊदी और आशीर्वाद देते हुए पिल्ले से कहा - "बापू ! दो रुपये मैं तुम्हें पहले दे चुका हूं| अब तीन रुपये और देता हूं| इन्हें घर पर पूजा-स्थान पर रखकर, इनका नित्य पूजन करना| इसी से तुम्हारा कल्याण होगा|"
पिल्ले ने प्रसाद रूप में रुपये लेकर बाबा को साष्टांग प्रणाम किया| वे इस बात को नहीं समझ पाये कि वह तो अपने जीवन में पहली बार शिरडी आये हैं फिर बाबा ने उन्हें दो रुपये कब दिये? परन्तु वे बाबा से न पूछ सके और वापस लौटते समय इसके बारे में ही सोच-विचार करते रहे| जब कुछ समझ में नहीं आया तो वे चुपचाप बैठ गये| घर लौटने पर उन्होंने अपनी बूढ़ी माँ को शिरडी का सारा हाल कह सुनाया| पहले तो उनकी माँ भी दो रुपये वाली बात न समझ पायी, फिर सोच-विचार करने पर उन्हें एक घटना याद आ गयी| वे अपने पुत्र से बोलीं - "बेटा, जैसे तुम अपने पुत्र को लेकर साईं बाबा के पास शिरडी गये थे, उसी तरह तेरे बचपन में तुम्हारे पिता मुझे लेकर अक्कलकोट महाराज के दर्शन के लिए गये थे| तुम्हारे पिता उनके परमभक्त थे| महाराज सिद्धपुरुष त्रिकालज्ञ थे| महाराज ने तुम्हारे पिताजी की सेवा स्वीकार करके उन्हें दो रुपये दिये थे और उन रुपयों का पूजन करने को कहा था| तुम्हारे पिता उन रुपयों का जीवनभर पूजन करते रहे थे, लेकिन उनके देहान्त के बाद पूजन यथाविधि नहीं हो पाया और वे रुपये न जाने कहां खो गये| हम तो उन रुपयों को भूल ही गये थे|
खैर, अब पिछली बातों को जाने दो| यह तुम्हारा सौभाग्य है कि साईं बाबा के रूप में तुम्हें अक्कलकोट महाराज ने अपने कर्त्तव्य को याद करा दिया| अब तुम इन रुपयों का पूजन कर उनकी वास्तविकता को समझो और संतों का आशीर्वाद पाने पर अपने को गर्वित मानो| अब तुम साईं बाबा का दामन कभी न छोड़ना, इसी में तुम्हारी भलाई है|"
माता के मुख से सारी बात सुनकर वे दो रुपयों का रहस्य भी जान गये और बाबा की त्रिकालज्ञता का ज्ञान भी हो गया और वे बाबा के परम भक्त बन गये|
कल चर्चा करेंगे... कर्म भोग न छूटे भाई
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
Thursday, 11 September 2014
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 45 - संदेह निवारण
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
आप सभी को वर्ल्ड ऑफ साँई ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 45 - संदेह निवारण
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काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न, बाबा के विश्राम के लिये लकड़ी का तख्ता ।
प्रस्तावना
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गत तीन अध्यायों में बाबा के निर्वाण का वर्णन किया गया है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि अब बाबा का साकार स्वरुप लुप्त हो गया है, परन्तु उनका निराकार स्वरुप तो सदैव ही विघमान रहेगा । अभी तक केवल उन्हीं घटनाओं और लीलाओं का उल्लेख किया गया है, जो बाबा के जीवमकाल में घटित हुई थी । उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् भी अनेक लीलाएँ हो चुकी है और अभी भी देखने में आ रही है, जिनसे यह सिदृ होता है कि बाबा अभी भी विघमान है और पूर्व की ही भाँति अपने भक्तों को सहायता पहुँचाया करते है । बाबा के जीवन-काल में जिन व्यक्तियों को उनका सानिध्य या सत्संग प्राप्त हुआ, यथार्थ में उनके भाग्य की सराहना कौन कर सकता है । यदि किसी को फिर भी ऐंद्रिक और सांसारिक सुखों से वैराग्य प्राप्त नहीं हो सका तो इस दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । जो उस समय आचरण में लाया जाना चाहिये था और अभी भी लाया जाना चाहिये, वह है अनन्य भाव से बाबा की भक्ति । समस्त चेतनाओं, इन्द्रिय-प्रवृतियों और मन को एकाग्र कर बाबा के पूजन और सेवा की ओर लगाना चाहिये । कृत्रिम पूजन से क्या लाभ । यदि पूजन या ध्यानादि करने की ही अभिलाषा है तो वह शुदृ मन और अन्तःकरण से होनी चाहिये ।
जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री का विशुदृ प्रेम अपने पति पर होता है, इस प्रेम की उपमा कभी-कभी लोग शिष्य और गुरु के प्रेम से भी दिया करते है । परन्तु फिर भी शिष्य और गुरु-प्रेम के समक्ष पतिव्रता का प्रेम फीका है और उसकी कोई समानता नहीं की जा सकती । माता, पिता, भाई या अन्य सम्बन्धी जीवन का ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करने में कोई सहायता नहीं पहुँचा सकते । इसके लिये हमें स्वयं अपना मार्ग अन्वेषण कर आत्मानुभूति के पथ पर अग्रसर होना पड़ता है । सत्य और असत्य में विवेक, इहलौकिक तथा पारलौकिक सुखों का त्याग, इन्द्रियनिग्रह और केवल मोक्ष की धारणा रखते हुए अग्रसर होना पड़ता है । दूसरों पर निर्भर रहने के बदले हमें आत्मविश्वास बढ़ाना उचित है । जब हम इस प्रकार विवेक-बुद्घि से कार्य करने का अभ्यास करेंगे तो हमें अनुभव होगा कि यह संसार नाशवान् और मिथ्या है । इस प्रकार की धारणा से सांसारिक पदार्थों में हमारी आसक्ति उत्तरोत्तर घटती जायेगी और अन्त में हमें उनसे वैराग्य उत्पन्न हो जायेगा । तब कहीं आगे चलकर यह रहस्य प्रकट होगा कि ब्रहृ हमारे गुरु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, वरन् यथार्थ में वे ही सदवस्तु (परमात्मा) है और यह रहस्योदघाटन होता है कि यह दृश्यमान जगत् उनका ही प्रतिबिम्ब है । अतः इस प्रकार हम सभी प्राणियों में उनके ही रुप का दर्शन कर उनका पूजन करना प्रारम्भ कर देते है और यही समत्वभाव दृश्यमान जगत् से विरक्ति प्राप्त करानेवाला भजन या मूलमंत्र है । इस प्रकार जब हम ब्रहृ या गुरु की अनन्यभाव से भक्ति करेंगे तो हमें उनसे अभिन्नता की प्राप्ति होगी और आत्मानुभूति की प्राप्ति सहज हो जायेगी । संक्षेप में यह कि सदैव गुरु का कीर्तन और उनका ध्यान करना ही हमें सर्वभूतों में भगवत् दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है और इसी से परमानंद की प्राप्ति होती है । निम्नलिखित कथा इस तथ्य का प्रमाण है ।
काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न
....................................
यह तो सर्वविदित ही है कि बाबा ने काकासाहेब दीक्षित को श्री एकनाथ महाराज के दो ग्रन्थ
1.श्री मदभागवत और
2.भावार्थ रामायण
का नित्य पठन करने की आज्ञा दी थी । काकासाहेब इन ग्रन्थों का नियमपूर्वक पठन बाबा के समय से करते आये है और बाबा के सम्धिस्थ होने के उपरान्त अभी भी वे उसी प्रकार अध्ययन कर रहे । एक समय चौपाटी (बम्बई) में काकासाहेब प्रातःकाल एकनाथी भागवत का पाठ कर रहे थे । माधवराव देशपांडे (शामा) और काका महाजनी भी उस समय वहाँ उपस्थित थे तथा ये दोनों ध्यानपूर्वक पाठ श्रवण कर रहे थे । उस समय 11वें स्कन्ध के द्घितीय अध्याय का वाचन चल रहा था, जिसमें नवनाथ अर्थात् ऋषभ वंश के सिद्घ यानी कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुदृ, पिप्पलायन, आविहोर्त्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन का वर्णन है, जिन्होंने भागवत धर्म की महिमा राजा जनक को समझायी थी । राजा जनक ने इन नव-नाथों से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे और इन सभी ने उनकी शंकाओं का बड़ा सन्तोषजनक समाधान किया था, अर्थात् कवि ने भागवत धर्म, हरि ने भक्ति की विशेषताएँ, अतंरिक्ष ने माया क्या है, प्रबुदृ ने माया से मुक्त होने की विधि, पिप्लायन ने परब्रहृ के स्वरुप, आविहोर्त्र ने कर्म के स्वरुप, द्रुमिल ने परमात्मा के अवतार और उनके कार्य, चमस ने नास्तिक की मृत्यु के पश्चात् की गति एवं करभाजन ने कलिकाल में भक्ति की पद्घतियों का यथाविधि वर्णन किया । इन सबका अर्थ यही था कि कलियुग में मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन केवल हरिकीर्तन या गुरु-चरणों का चिंतन ही है । पठन समाप्त होने पर काकसाहेब बहुत निराशापूर्ण स्वर में माधवराव और अन्य लोगों से कहने लगे कि नवनाथों की भक्ति पदृति का क्या कहना है, परन्तु उसे आचरण में लाना कितना दुष्कर है । नाथ तो सिदृ थे, परन्तु हमारे समान मूर्खों में इस प्रकार की भक्ति का उत्पन्न होना क्या कभी संभव हो सकता है । अनेक जन्म धारण करने पर भी वैसी भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती तो फिर हमें मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे लिये तो कोई आशा ही नहीं है । माधवराव को यह निराशावादी धारणा अच्छी न लगी । व कहने लगे कि हमारा अहोभाग्य है, जिसके फलस्वरुप ही हमें साई सदृश अमूल्य हीरा हाथ लग गया है, तब फिर इस प्रकार का राग अलापना बड़ी निन्दनीय बात है । यदि तुम्हें बाबा पर अटल विश्वास है तो फिर इस प्रकार चिंतित होने की आवश्यकता ही क्या है । माना कि नवनाथों की भक्ति अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ा और प्रबल होगी, परन्तु क्या हम लोग भी प्रेम और स्नेहपूर्वक भक्ति नहीं कर रहे है । क्या बाबा ने अधिकारपूर्ण वाणी में नहीं कहा है कि श्रीहरि या गुरु के नाम जप से मोक्ष की प्राप्ति होती है । तब फिर भय और चिन्ता को स्थान ही कहाँ रह जाता है । परन्तु फिर भी माधवराव के वचनों से काकासाहेब का समाधान न हुआ । वे फिर भी दिन भर व्यग्र और चिन्तित ही बने रहे । यह विचार उनके मस्तिष्क में बार-बार चक्कर काट रहा था कि किस विधि से नवनाथों के समान भक्ति की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी ।
एक महाशय, जिनका नाम आनन्दराव पाखाडे था, माधवराव को ढूँढते-ढूँढते वहाँ आ पहुँचे । उस समय भागवत का पठन हो रहा था । श्री. पाखाडे भी माधवराव के समीप ही जाकर बैठ गये और उनसे धीरे-धीरे कुछ वार्ता भी करने लगे । वे अपना स्वप्न माधवराव को सुना रहे थे । इनकी कानाफूसी के कारण पाठ में विघ्न उपस्थित होने लगा । अतएव काकासाहेब ने पाठ स्थगित कर माधवराव से पूछा कि क्यों, क्या बात हो रही है । माधवराव ने कहा कि कल तुमने जो सन्देह प्रगट किया था, यह चर्चा भी उसी का समाधान है । कल बाबा ने श्री. पाखाडे को जो स्वप्न दिया है, उसे इनसे ही सुनो । इसमें बताया गया है कि विशेष भक्ति की कोई आवश्यकता नही, केवल गुरु को नमन या उनका पूजन करना ही पर्याप्त है । सभी को स्वप्न सुनने की तीव्र उत्कंठा थी और सबसे अधिक काकासाहेब को । सभी के कहने पर श्री. पाखाडे अपना स्वप्न सुनाने लगे, जो इस प्रकार है – मैंने देखा कि मैं एक अथाह सागर में खड़ा हुआ हूँ । पानी मेरी कमर तक है और अचानक ही जब मैंने ऊपर देखा तो साईबाबा के श्री-दर्शन हुए । वे एक रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थे और उनके श्री-चरण जल के भीतर थे । यह सुन्र दृश्य और बाबा का मनोहर स्वरुप देक मेरा चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ । इस स्वप्न को भला कौन स्वप्न कह सकेगा । मैंने देखा कि माधवराव भी बाबा के समीप ही खड़े है और उन्होंने मुझसे भावुकतापूर्ण शब्दों में कहा कि आनन्दराव । बाबा के श्री-चरणों पर गिरो । मैंने उत्तर दिया कि मैं भी तो यही करना चाहता हूँ । परन्तु उनके श्री-चरण तो जल के भीतर है । अब बताओ कि मैं कैसे अपना शीश उनके चरणों पर रखूँ । मैं तो निस्सहाय हूँ । इन शब्दों को सुनकर शामा ने बाबा से कहा कि अरे देवा । जल में से कृपाकर अपने चरण बाहर निकालिये न । बाबा ने तुरन्त चरण बाहर निकाले और मैं उनसे तुरन्त लिपट गया । बाबा ने मुझे यह कहते हुये आशीर्वाद दिया कि अब तुम आनंदपूर्वक जाओ । घबराने या चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । अब तुम्हारा कल्याण होगा । उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि एक जरी के किनारों की धोती मेरे शामा को दे देना, उससे तुम्हें बहुत लाभ होगा । बाबा की आज्ञा को पूर्ण करने के लिये ही श्री. पाखाडे धोती लाये और काकासाहेब से प्रार्थना की कि कृपा करके इसे माधवराव को दे दीजिये, परन्तु माधवराव ने उसे लेना स्वीकार नहीं किया ।
उन्होंने कहा कि जब तक बाबा से मुझे कोई आदेश या अनुमति प्राप्त नहीं होती, तब तक मैं ऐसा करने में असमर्थ हूँ । कुछ तर्क-वतर्क के पश्चात काका ने दैवी आदेशसूचक पर्चियाँ निकालकर इस बात का निर्णय करने का विचार किया । काकासाहेब का यह नियम था कि जब उन्हें कोई सन्देह हो जाता तो वे कागज की दो पर्चियों पर स्वीकार-अश्वीकार लिखकर उसमेंसे एक पर्ची निकालते थे और जो कुछ उत्तर प्राप्त होता था, उसके अनुसार ही कार्य किया करते थे । इसका भी निपटारा करने के लिये उन्होंने उपयुक्त विधि के अनुसार ही दो पर्चियाँ लिखकर बाबा के चित्र के समक्ष रखकर एक अबोध बालक को उसमें से एक पर्ची उठाने को कहा । बालक द्घारा उठाई गई पर्ची जब खोलकर देखी गई तो वह स्वीकारसूचक पर्ची ही निकली और तब माधवराव को धोती स्वीकार करनी पड़ी । इस प्रकार आनन्दराव और माधवराव सन्तुष्ट हो गये और काकासाहेब का भी सन्देह दूर हो गया ।
इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अन्य सन्तों के वचनों का उचित आदर करना चाहिये, परन्तु साथ ही साथ यह भी परम आवश्यक है कि हमें अपनी माँ अर्थात् गुरु पर पूर्ण विश्वास रखस उनके आदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिये, क्योंकि अन्य लोगों की अपेक्षा हमारे कल्याण की उन्हें अधिक चिन्ता है ।
बाबा के निम्नलिखित वचनों को हृदयपटल पर अंकित कर लो – इस विश्व में असंख्य सन्त है, परन्तु अपना पिता (गुरु) ही सच्चा पिता (सच्चा गुरु) है । दूसरे चाहे कितने ही मधुर वचन क्यों न कहते हो, परन्तु अपना गुरु-उपदेश कभी नहीं भूलना चाहिये । संक्षेप में सार यही है कि शुगृ हृदय से अपने गुरु से प्रेम कर, उनकी शरण जाओ और उन्हें श्रद्घापूर्वक साष्टांग नमस्कार करो । तभी तुम देखोगे कि तुम्हारे सम्मुख भवसागर का अस्तित्व वैसा ही है, जैसा सूर्य के समक्ष अँधेरे का ।
बाबा की शयन शैया-लकड़ी का तख्ता
...................................
बाबा अपने जीवन के पूर्वार्द्घ में एक लकड़ी के तख्ते पर शयन किया करते थे । वह तख्ता चार हाथ लम्बा और एक बीता चौड़ा था, जिसके चारों कोनों पर चार मिट्टी के जलते दीपक रखे जाया करते थे । पश्चात् बाबा ने उसके टुकड़े टुकडे कर डाले थे । (जिसका वर्णन गत अध्याय 10 में हो चुका है ) । एक समय बाबा उस पटिये की महत्ता का वर्णन काकासाहेब को सुना रहे थे, जिसको सुनकर काकासाहेब ने बाबा से कहा कि यदि अभी भी आपको उससे विशेष स्नेह है तो मैं मसजिद में एक दूसरी पटिया लटकाये देता हूँ । आप सूखपूर्वक उस पर शयन किया करें । तब बाबा कहने लगे कि अब म्हालसापति को नीचे छोड़कर मैं ऊपर नहीं सोना चाहता । काकासाहेब ने कहा कि यदि आज्ञा दें तो मैं एक और तख्ता म्हालसापति के लिये भी टाँग दूँ ।
बाबा बोले कि वे इस पर कैसे सो सकते है । क्या यह कोई सहज कार्य है जो उसके गुण से सम्पन्न हो, वही ऐसा कार्य कर सकता है । जो खुले नेत्र रखकर निद्रा ले सके, वही इसके योग्य है । जब मैं शयन करता हूँ तो बहुधा म्हालसापति को अपने बाजू में बिठाकर उनसे कहता हूँ कि मेरे हृदय पर अपना हाथ रखकर देखते रहो कि कहीं मेरा भगवज्जप बन्द न हो जाय और मुझे थोड़ा- सा भी निद्रित देखो तो तुरन्त जागृत कर दो, परन्तु उससे तो भला यह भी नहीं हो सकता । वह तो स्वंय ही झपकी लेने लगता है और निद्रामग्न होकर अपना सिर डुलाने लगता है और जब मुझे भगत का हाथ पत्थर-सा भारी प्रतीत होने लगता है तो मैं जोर से पुकार कर उठता हूँ कि ओ भगत । तब कहीं वह घबड़ा कर नेत्र खोलता है । जो पृथ्वी पर अच्छी तरह बैठ और सो नहीं सकता तथा जिसका आसन सिदृ नहीं है और जो निद्रा का दास है, वह क्या तख्ते पर सो सकेगा । अन्य अनेक अवसरों पर वे भक्तों के स्नेहवश ऐसा कहा करते थे कि अपना अपने साथ और उसका उसके साथ ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
Wednesday, 10 September 2014
श्री साईं लीलाएं - गुरु-गुरु में अंतर न करें
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
कल हमने पढ़ा था.. आमों का कमाल
श्री साईं लीलाएं
गुरु-गुरु में अंतर न करें
किसी अन्य गुरु के शिष्य पंत नाम के एक सज्जन कहीं जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठे थे| वे शिरडी नहीं आना चाहते थे, पर विधाता के लिखे को कौन टाल सकता है ! जो मनुष्य सोचता है, वह पूरा कभी नहीं होता| होता वही है जो परमात्मा चाहता है| जिस डिब्बे में वह बैठे थे| अगले स्टेशन पर उसी डिब्बे में कुछ और लोग भी आ गये| इनमें से कुछ उनके मित्र और सम्बंधी भी थे| वे सभी लोग शिरडी जा रहे थे| संत से मिलकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई| सब लोगों ने पंत से शिरडी चलने को कहा| पंत स्वयं दूसरे गुरु के शिष्य थे| वे सोचने लगे, मैं अपने गुरु के होते हुए दूसरे गुरु के दर्शन करने क्यों जाऊं? उन्होंने उन्हें बहुत टालना चाहा लेकिन सबके बार-बार आग्रह करने पर आखिर वे तैयार हो गए|
शिरडी पहुंचने पर सब लोग सुबह ग्यारह बजे बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद गये| साईं बाबा को देखकर पंत का मन आनंदित हो उठा, परन्तु तभी पंत बेहोश होकर गिर पड़े| उन्हें बेहोश देख उनके मित्रादि व अन्य उपस्थित भक्त घबरा गये| तब साईं बाबा ने उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे, तो वह तुरंत होश में आकर उठ बैठे| बाबा तो जान चुके थे कि यह किसी अन्य गुरु के शिष्य हैं| तब बाबा बोले - "देखो पंत, व्यक्ति को हर हालत में अपने गुरु पर निष्ठा कायम रखनी चाहिए| सदैव उस पर स्थिर रहे, लेकिन सब संतों में अंतर न करो| सभी एक ही डाल के पंछी हैं| सब में एक ही ईश्वर रहता है|"
बाबा के ऐसे वचन सुनकर पंत को अपने गुरु का स्मरण हो आया| गुरु और बाबा का शरीर अलग होने पर ही दोनों में एक ही परमात्मा रहता है, यह जान गये और जीवन भर बाबा की कृपा को नहीं भूले|
कल चर्चा करेंगे... लाओ, अब बाकी के तीन रुपये दे दो
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
Tuesday, 9 September 2014
श्री साईं लीलाएं - आमों का कमाल
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
कल हमने पढ़ा था.. लालच बुरी बला
श्री साईं लीलाएं
आमों का कमाल
एक दिन गोना के तहसीलदार श्री राले ने तीन सौ आमों की एक पेटी बाबा के चरणों में शामा के पते पर शिरडी भेजी| शामा वह पेटी बाबा के पास ले गया और बाबा के सामने खोली| सभी आब अच्छे थे| बाबा के उन आमों में से चार आप अलग निकालकर इस ताकीद के साथ रख दिये कि दामू अण्णा के लिये हैं - और बाकी आम भक्तों के बांटने के लिए शामा को दे दिए|
लगभग दो घंटे बाद जब दामू अण्णा बाबा का पूजन करने के लिए मस्जिद आये तो बाबा ने उन्हें प्रसाद रूप में चार आम यह कहकर दिए कि इन्हें अपनी पत्नी को दे देना| दामू अण्णा संतान न होने के कारण बहुत निराश रहते थे| उन्होंने तीन शादियां की थीं, परंतु संतान की इच्छा फिर भी पूरी नहीं हो सकी| उन्होंने इसके लिए बहुत उपाय भी किये थे| लेकिन साईं बाबा के प्रति उनके मन में गहरी श्रद्धा थी| वे पुरे भक्तिभाव से बाबा की सेवा किया करते थे|
जब वे मस्जिद से आम लेकर जाने लगे तो उन्होंने बाबा से पूछा - "बाबा ! ये आम बड़ी को दूं या छोटी को?" बाबा ने जवाब दिया - "अपनी सबसे छोटी पत्नी को देना| उसे चार लड़के और चार लड़कियां कुल मिलाकर आठ बच्चे होंगे|" दामू अण्णा ने बाबा की आज्ञा अनुसार वे आम अपनी सबसे छोटी पत्नी को खाने को दिए और बाबा के आशीर्वाद से उन्हें आठ बच्चे हुए|
कल चर्चा करेंगे... गुरु-गुरु में अंतर न करें
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
Monday, 8 September 2014
श्री साईं लीलाएं - लालच बुरी बला
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
कल हमने पढ़ा था.. बाबा के सेवक को कुछ न कहना, बाबा गुस्सा होंगे
श्री साईं लीलाएं
लालच बुरी बला
अहमदनगर के रहनेवाले दामू अण्णा जो बाबा के भक्त थे| इनका वर्णन रामनवमी के उत्सव के प्रसंग में आ चुका है| उनके साथ घटी एक और घटना का वर्णन किया जा रहा है, कि साईं बाबा ने उन पर जाने वाला संकट कैसे टाल दिया?
एक बार दामू अण्णा के मुम्बई में रहनेवाले मित्र का पत्र आया| उसने उसमें लिखा था कि इस वर्ष रूई का सौदा करनेवाला है और जब बाजार में भाव चढ़ जायेंगे तब उसे बेच देगा| इस सौदे में वह उसे साझीदार बनाना चाहता था| उसने आशा व्यक्त की थी कि इस सौदे में लगभग दो लाख रुपये का लाभ होने की उम्मीद है| यदि वह आधे का साझीदार बन जायेगा तो उसे एक लाख रुपये मिल जायेंगे| यह मौका चूकना नहीं चाहिए, इसलिए इसका लाभ उठाया जाए|पत्र को पढ़ने के बाद दामू अण्णा के मन में हलचल पैदा हो गयी| पैसा कमाने का सुनहरी मौका सामने खड़ा था| यदि लाभ हुआ तो बैठे-बिठाये एक लाख मिल जायेंगे, यदि बदकिस्मती से भाव गिर गये तो... ! ऐसे विचार मन में निरंतर आ-जा रहे थे| वे कोई निर्णय नहीं कर पा रहे थे| वे साईं बाबा के परमभक्त थे| अंतत: उन्होंने इस बारे में बाबा से पूछने का निर्णय किया| उन्होंने एक पत्र में सारा विवरण लिखकर शामा को भेजा और प्रार्थना की कि बाबा को सारी बात बताकर जो भी बाबा की आज्ञा हो, उन्हें पत्र द्वारा सूचित कर दे|
अगले दिन ही पत्र शामा को मिल गया| शामा ने वह पत्र लेकर मस्जिद में बाबा के चरणों में रख दिया| बाबा ने जब शामा से पत्र के बारे में पूछा तो शामा ने बाबा को बताया - "देवा ! अहमदनगर के दामू अण्णा ने भेजी है और आपसे आज्ञा मांगी है|" बाबा सब कुछ जानते थे| फिर भी अनजान बनते हुए उन्होंने शामा से पूछा - "इस पत्र में क्या लिखा है? उसने क्या योजना बनाई है? इसका भगवान ने जो दिया है उसमें संतोष नहीं है| आसमान को छूना चाहता है| अच्छा, जरा पढ़कर तो सुना, देखूं क्या लिखा है?"
शामा ने पत्र को पढ़कर कहा कि इसमें तो वही सब कुछ लिखा है जो अपने बताया है| इस पर बाबा ने कहा - "शामा, इस सेठ की अक्ल मारी गयी है| इसे किसी चीज का अभाव नहीं है| फिर भी पैसों का लालच क्यों? वह आधी रोटी में ही संतोष करे, लाखों के चक्कर में न पड़े|"
इधर दामू अण्णा बाबा की आज्ञा का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे| शामा ने बाबा की आज्ञानुसार पत्र का उत्तर लिखकर भेज दिया| पत्र मिलने के बाद वह निराश हो गये| उनके लखपति बनने की राह में रोड़ा अटक गया| यदि बाबा की आज्ञा मिल जाती तो मैं लखपति बन जाता| फिर उसने सोचा कि पत्र भेजकर उसने गलती की है| मुझे स्वयं जाकर बाबा से पूछना चाहिए था| पत्र के द्वारा बताने और सामने कहने में अंतर तो है ही| मैं स्वयं जाकर बात करता हूं| यदि बाबा ने आज्ञा दे दी तो फिर क्या कहने !
अगले ही दिन दामू अण्णा बाबा की आज्ञा प्राप्त करने के लिए शिरडी पहुंच गये| बाबा के दर्शन करके वह उनकी सेवा करते रहे, परंतु सौदे वाली बात करने के बारे में बाबा से पूछने का साहस नहीं जुटा पाए| फिर उन्होंने मन में बाबा की आज्ञा पाने के लिए विनती की कि यदि बाबा ने कृपा कर दी तो, इस सौदे में जो लाभ होगा, उसमें से कुछ अंश बाबा को भेंट कर देंगे| बाबा तो अंतर्यामी थे| वे दामू अण्णा के मन की बात जान गए| बाबा ने उससे कहा - "मुझे तेरे मुनाफे में से एक पाई भी नहीं चाहिए, यह समझ ले|"
बाबा की अस्वीकृति का संकेत सुनकर, उन्होंने बड़े बेमन से अपने मुम्बईवाले मित्र को साझेदार न बनने की बात लिखते हुए पत्र भेज दिया| पत्र पढ़ने के बाद दोस्त ने सोचा, भाग्य ने उसके साथ खिलवाड़ किया है| मैं दूसरा साझीदार ढूंढ लूंगा|
इधर दामू अण्णा हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे| कुछ समय बाद बाजार ने ऐसी पलटी खाई कि उनका मुम्बई वाला दोस्त पूरी तरह से डूब गया| मुनाफा तो दूर बल्कि वह कर्ज के भारी बोझ से दब गया| पता चलने पर दामू अण्णा को बहुत दुःख हुआ और फिर वह मन-ही-मन बाबा के चरणों में प्रणाम करने लगा कि बाबा की कृपा से वह इस मुसीबत से बच गया|
कल चर्चा करेंगे... आमों का कमाल
ॐ सांई राम
===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===
बाबा के श्री चरणों में विनती है कि बाबा अपनी कृपा की वर्षा सदा सब पर बरसाते रहें ।
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