ॐ श्री साँई राम जी
साधू रणीया जी
जहां सरोवर रामसर है, सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी के समय एक साधू शरीर पर राख मल कर वृक्ष के नीचे बैठा हुआ शिवलिंग की पूजा कर रहा था| वह घण्टियां बजाए जाता तथा जंगली फूल अर्पण करता था, वह कोई पक्का शिव भक्त था|
जब वह शिवलिंग की पूजा में मग्न था तो अचानक उसके कानो में यह शब्द गूंजे 'ओ गुरमुखा! एक चोरी छोड़ी, दूसरा पाखण्ड शुरू किया| कुमार्ग से फिर कुमार्ग मार्ग पर चलना ठीक नहीं|'
यह वचन सुनकर उसने आंखें ऊपर उठा कर देखा तो सतिगुरु हरिगोबिंद साहिब जी घोड़े पर सवार उसके सामने खड़े हुए मुस्करा रहे थे| जैसे कि कभी उसने दर्शन किए थे| कोई बादशाह समझा था| जीवन की घटना उसको फिर याद आने लगी|
वह साधू उठ कर खड़ा हो गया, हाथ जोड़ कर विनती की, 'महाराज! आप के हुक्म से चोरी और डकैती छोड़ दी| साधू बन गया, और बताएं क्या करुं?'
उसकी विनती सुनकर मीरी-पीरी के मालिक ने फरमाया-'हे गुरमुख! पत्थर की पूजा मत करना-आत्मा को समझो| उसकी पूजा करो, उसका नाम सिमरन करो, जिसने शिव जी, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की सृजना की है| करतार का नाम सिमरन करो, सत्संगत में बैठो, सेवा करो, यह जन्म बहुत बहुमूल्य है|'
"कबीर मानस जनमु दुलंभु है होइ न बारै बार ||"
इस तरह वचन करके मीरी-पीरी के मालिक गुरु के महलों की तरफ चले गए तथा साधू सोच में पड़ा रहा|
वह साधू भाई रणीयां था जो पहले डाकू था| अकेले स्त्री-पुरुष को पकड़ कर उस से सोना-चांदी छीन लिया करता था| एक दिन की बात है, रणीयां का दो दिन कहीं दांव न लगा किसी से कुछ छीनने का| वह घूमता रहा तथा अंत में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा इन्तजार करने लगा| उसकी तेज निगाह ने देखा एक स्त्री सिर पर रोटियां रख कर खेत को जा रही थी, उसके पास बर्तन थे| बर्तनों की चमक देख कर वह उठा तथा उस स्त्री को जा दबोचा| उसके गले में आभूषण थे| बर्तन छीन कर आभूषण छीनने लगा ही था कि उसके पास शरर करके तीर निकल गया| उसने अभी मुड़ कर देखा ही था कि एक ओर तीर आ कर उसके पास छोड़ा| वह डर गया, उसके हाथ से बर्तन खिसक गए तथा हाथ स्त्री के आभूषणों से पीछे हो गया|
इतने में घोड़े पर सवार मीरी पीरी के पातशाह पहुंच गए| स्त्री को धैर्य दिया| वह बर्तन ले कर चली गई तथा रणीये को सच्चे पातशाह ने सिर्फ यही वचन किया -
'जा गुरमुखा! कोई नेकी करो| अंत काल के वश पड़ना है|' रणीयां चुपचाप चल पड़ा| उस ने कुल्हाड़ी फैंक दी तथा वचन याद करता हुआ वह घर को जाने की जगह साधुओं के पास चला गया| एक साधू ने उसको नांगा साधू बना दिया| घूमते-फिरते गुरु की नगरी में आ गया|
सतिगुरु जी जब गुरु के महलों की तरफ चले गए तो साधू रणीये ने शिवलिंग वहीं रहने दिया| वह जब दुःख भंजनी बेरी के पास पहुंचा तो सबब से गुरु का सिक्ख मिला, वह गुरमुख तथा नाम सिमरन करने वाला था, उसकी संगत से रणीया सिक्ख बन गया, उसने वस्त्र बदले, सतिगुरु जी के दीवान में पहुंचा तथा गुरु के लंगर की सेवा करने लगा| रणीया जी बड़े नामी सिक्ख बने|