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Saturday, 31 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीलक्ष्मण

ॐ श्री साँईं राम जी


श्रीलक्ष्मणजी शेषावतार थे| किसी भी अवस्थामें भगवान् श्रीरामका वियोग इन्हें सहा नहीं था| इसलिये ये सदैव छायाकी भाँति श्रीरामका ही अनुगमन करते थे| श्रीरामके चरणोंकी सेवा ही इनके जीवनका मुख्य व्रत था| श्रीरामकी तुलनामें संसारके सभी सम्बन्ध इनके लिये गौण थे| इनके लिये श्रीराम ही माता-पिता, गुरु, भाई सब कुछ थे और उनकी आज्ञाका पालन ही इनका मुख्य धर्म था| इसलिये जब भगवान् श्रीराम विश्वामित्रकी यज्ञ-रक्षाके लिये गये तो लक्ष्मणजी भी उनके साथ गये| भगवान् श्रीराम जब सोने जाते थे तो ये उनका पैर दबाते और भगवान् के बार-बार आग्रह करनेपर ही स्वयं सोते तथा भगवान् के जागनेके पूर्व ही जाग जाते थे| अबोध शिशुकी भाँति इन्होंने भगवान् श्रीरामके चरणोंको ही दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और भगवान् ही इनकी अनन्य गति बन गये| भगवान् श्रीरामके प्रति किसीके भी अपमानसूचक शब्दको ये कभी बरदाश्त नहीं करते थे| जब महाराज जनकने धनुषके न टूटनेके क्षोभमें धरतीको वीर-विहीन कह दिया, तब भगवान् के उपस्थित रहते हुए जनकजीका यह कथन श्रीलक्ष्मणजीको बाण-जैसा लगा| ये तत्काल कठोर शब्दोंमें जनकजीका प्रतिकार करते हुए बोले - 'भगवान् श्रीरामके विद्यमान रहते हुए जनकने जिस अनुचित वाणीका प्रयोग किया है, वह मेरे हृदयमें शूलकी भाँति चुभ रही है| जिस सभामें रघुवंशका कोई भी वीर मौजूद हो, वहाँ इस प्रकारकी बातें सुनना और कहना उनकी वीरताका अपमान है| यदि श्रीराम आदेश दें तो मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको गेंदकी भाँति उठा सकता हूँ, फिर जनकके इस सड़े धनुषकी गिनती ही क्या है|' इसी प्रकार जब श्रीपरशुरामजीने धनुष तोड़नेवालेको ललकारा तो ये उनसे भी भिड़ गये|

भगवान् श्रीरामके प्रति श्रीलक्ष्मणकी अनन्य निष्ठाका उदाहरण भगवान् के वनगमनके समय मिलता है| ये उस समय देह-गेह, सगे-सम्बन्धी, माता और नव-विवाहिता पत्नी सबसे सम्बन्ध तोड़कर भगवान् के साथ वन जानेके लिये तैयार हो जाते हैं| वनमें ये निद्रा और शरीरके समस्त सुखोंका परित्याग करके श्रीराम-जानकीकी जी-जानसे सेवा करते हैं| ये भगवान् की सेवामें इतने मग्न हो जाते हैं कि माता-पिता, पत्नी, भाई तथा घरकी तनिक भी सुधि नहीं करते|

श्रीलक्ष्मणजीने अपने चौदह वर्षके अखण्ड ब्रह्मचर्य और अद्भुत चरित्र-बल पर लंकामें मेघनाद-जैसे शक्तिशाली योद्धापर विजय प्राप्त किया| ये भगवान् की कठोर-से-कठोर आज्ञाका पालन करनेमें भी कभी नहीं हिचकते| भगवान् की आज्ञा होनेपर आँसुओंको भीतर-ही-भीतर पीकर इन्होंने श्रीजानकीजीको वनमें छोड़नेमें भि संकोच नहीं किया| इनका आत्मत्याग भी अनुपम है| जिस समय तापसवेशधारी कालकी श्रीरामसे वार्ता चल रही थी तो द्वारपालके रूपमें उस समय श्रीलक्ष्मण ही उपस्थित थे| किसीको भीतर जानेकी अनुमति नहीं थी| उसी समय दुर्वासा ऋषिका आगमन होता है और वे श्रीराम का तत्काल दर्शन करनेकी इच्छा प्रकट करते हैं| दर्शन न होनेपर वे शाप देकर सम्पूर्ण परिवारको भस्म करनेकी बात करते हैं| श्रीलक्ष्मणजीने अपने प्राणोंकी परवाह न करके उस समय दुर्वासाको श्रीरामसे मिलाया और बदलेमें भगवान् से परित्यागका दण्ड प्राप्तकर अद्भुत आत्मत्याग किया| श्रीरामके अनन्य सेवक श्रीलक्ष्मण धन्य हैं|

Friday, 30 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - श्रीभरत

ॐ श्री साँईं राम जी


श्रीभरतजीका चरित्र समुद्रकी भाँति अगाध है, बुद्धिकी सीमासे परे है| लोक-आदर्शका ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण अन्यत्र मिलना कठिन है| भ्रातृप्रेमकी तो ये सजीव मूर्ति थे|

ननिहालसे अयोध्या लौटनेपर जब इन्हें मातासे अपने पिताके सर्वगवासका समाचार मिलता है, तब ये शोकसे व्याकुल होकर कहते हैं - 'मैंने तो सोचा था कि पिताजी श्रीरामका अभिषेक करके यज्ञकी दीक्षा लेंगे, किन्तु मैं कितना बड़ा अभागा हूँ कि वे मुझे बड़े भइया श्रीरामको सौंपे बिना स्वर्ग सिधार गये| अब श्रीराम ही मेरे पिता और बड़े भाई हैं, जिनका मैं परम प्रिय दास हूँ| उन्हें मेरे आनेकी शीघ्र सुचना दें| मैं उनके चरणोंमें प्रणाम करूँगा| अब वे ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं|'

जब कैकयीने श्रीभरतजीको श्रीराम-वनवासकी बात बतायी, तब वे महान् दुःखसे संतप्त हो गये| इन्होंने कैकेयीसे कहा - 'मैं समझता हूँ, लोभके वशीभूत होनेके कारण तू अबतक यह न जान सकी कि मेरा श्रीरामचन्द्रके साथ भाव कैसा है| इसी कारण तूने राज्यके लिये इतना बड़ा अनर्थ कर डाला| मुझे जन्म देनेसे अच्छा तो यह था कि तू बाँझ ही होती| कम-से-कम मेरे-जैसे कुलकलंकका तो जन्म नहीं होता| यह वर माँगनेसे पहले तेरी जीभ कटकर गिरी क्यों नहीं!'

इस प्रकार कैकेयीको नाना प्रकारसे बुरा-भला कहकर श्रीभरतजी कौसल्याजीके पास गये और उन्हें सान्त्वना दी| इन्होंने गुरु वसिष्ठकी आज्ञासे पिताकि अंत्येष्टि किया सम्पन्न की| सबके बार-बार आग्रहके बाद भी इन्होंने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया और दल-बलके साथ श्रीरामको मनानेके लिये चित्रकूट चल दिये| श्रृंगवेरपुरमें पहुँचकर इन्होंने निषादराजको देखकर रथका परित्याग कर दिया और श्रीरामसखा गुहसे बड़े प्रेमसे मिले| प्रयागमें अपने आश्रमपर पहुँचनेपर श्रीभरद्वाज इनका स्वागत करते हुए कहते हैं - 'भरत! सभी साधनोंका परम फल श्रीसीतारामका दर्शन है और उसका भी विशेष फल तुम्हारा दर्शन है| आज तुम्हें अपने बीच उपस्थित पाकर हमारे साथ तीर्थराज प्रयाग भी धन्य हो गये|'

श्रीभरतजीको दल-बलके साथ चित्रकूटमें आता देखकर श्रीलक्ष्मणको इनकी नीयतपर शंका होती है| उस समय श्रीरामने उनका समाधान करते हुए कहा - 'लक्ष्मण! भरतपर सन्देह करना व्यर्थ है| भरतके समान शीलवान् भाई इस संसारमंे मिलना दुर्लभ है| अयोध्याके राज्यकी तो बात ही क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेशका भी पद प्राप्त करके श्रीभरतको मद नहीं हो सकता|' चित्रकुटमें भगवान् श्रीरामसे मिलकर पहले श्रीभरतजी उनसे अयोध्या लौटनेका आग्रह करते हैं, किन्तु जब देखते हैं कि उनकी रुचि कुछ और है तो भगवान् की चरण-पादुका लेकर अयोध्या लौट आते हैं| नन्दिग्राममें तपस्वी-जीवन बिताते हुए ये श्रीरामके आगमनकी चौदह वर्षतक प्रतीक्षा करते हैं| भगवान् को इनकी दशाका अनुमान है| वे वनवासकी अवधि समाप्त होते ही एक क्षण भी विलम्ब किये बिना अयोध्या पहुँचकर इनके विरहको शान्त करते हैं| श्रीरामभक्ति और आदर्श भ्रातप्रेमके अनुपम उदाहरण श्रीभरतजी धन्य हैं|

Thursday, 29 May 2014

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 29

ॐ सांई राम

आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा

किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 29
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Wednesday, 28 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - भगवती श्रीसीता

ॐ श्री साँई राम जी 


भगवती श्रीसीता

भगवती श्रीसीताजी की महिमा अपार है| वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास तथा धर्मशास्त्रोंमें इनकी अनन्त महिमाका वर्णन है| ये भगवान् श्रीरामकी प्राणप्रिया आद्याशक्ति हैं| ये सर्व सर्वमङ्गलदायिनी, त्रिभुवनकी जननी तथा भक्ति और मुक्तिका दान करनेवाली हैं| महाराज सीरध्वज जनककी यज्ञभूमिसे कन्यारूपमें प्रकट हुई भगवती सीता ही संसारका उद्भव, स्थिति और संहार करनेवाली पराशक्ति हैं| ये पतिव्रताओंमें शिरोमणि तथा भारतीय आदर्शोंकी अनुपम शिक्षिका हैं|

अपनी ससुराल अयोध्यामें आनेके बाद अनेक सेविकाओंके होनेपर भी भगवती सीता अपने हाथोंसे सारा गृहकार्य स्वयं करती थीं और पतिके संकेतमात्रसे उनकी आज्ञाका तत्काल पालन करती थीं| अपने पतिदेव भगवान् श्रीरामको वनगमनके लिये प्रस्तुत देखकर इन्होंने तत्काल अपने कर्तव्य कर्मका निर्णय कर लिया और श्रीरामसे कहा - 'हे आर्यपुत्र! माता - पिता, भाई, पुत्र तथा पुत्रवधू - ये सब अपने-अपने कर्म के अनुसार सुख-दुःखका भोग करते हैं| एकमात्र पत्नी ही पतिके कर्मफलोंकी भागिनी होती है| आपके लिये जो वनवासकी आज्ञा हुई है, वह मेरे लिये भी हुई है| इसलिये वनवासमें आपके साथमें मैं भी चलूँगी| आपमें ही मेरा हृदय अनन्यभावसे अनुरक्त है| आपके वियोगमें मेरी मृत्यु निश्चित है| इसलिये आप मुझे अपने साथ वनमें अवश्य ले चलिये| मुझे ले चलनेसे आपपर कोई भार नहीं होगा| मैं वनमें नियमपूर्वक ब्रह्मचारिणी रहकर आपकी सेवा करुँगी|'

अपने पति श्रीरामसे वनमें ले चलनेका निवेदन करती हुई सीता प्रेम-विह्वल हो गयीं| उनकी आँखोंसे आँसू बहने लगे| वे संज्ञाहीन-सी होने लगीं| अन्तमें श्रीरामको उन्हें साथ चलनेकि आज्ञा देनी पड़ी| माता सीता अपने सतीत्वके परम तेजसे लंकेशको भी भस्म कर सकती थीं| पापात्मा रावणके कुत्सिक मनोवृत्तिकी धज्जियाँ उड़ाती हुई पतिव्रता सीता कहती हैं - 'हे रावण! तुम्हें जलाकर भस्म कर देनेकी शक्ति रखती हुई भी मैं श्रीरामचन्द्रका आदेश न होनेके कारण एवं तपोभग्ङ होनेके कारण तुम्हें जलाकर भस्म नहीं कर रही हूँ|'

महासती सीताने हनुमान् जीकी पूँछमें आग लगनेके समय अग्निदेवसे प्रार्थना की - 'हे अग्निदेव! यदि मैंने अपने पतिकी सच्चे मनसे सेवा की है| यदि मैंने श्रीरामके अतिरिक्त किसीका चिन्तन न किया हो तो तुम हनुमान् के लिये शीतल हो जाओ|' महासती सीताकी प्रार्थनासे अग्निदेव हनुमान् के लिये सुख और शीतल हो गये और लंकाके लिये दाहक बन गये| सीताके पातिव्रत्यकी गवाही अग्निपरीक्षाके पश्चात् स्वयं अग्निदेवने दी थी| महासती सीताके सतीत्वकी तुलना किसीभी नहीं की जा सकती| भगवती सीताका चरित्र समस्त नारियोंके लिये वन्दनीय तथा अनुकरणीय है|

Tuesday, 27 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कैकेयी

ॐ श्री साँई राम जी


माता कैकेयी

कैकेयीजी महाराज केकयनरेशकी पुत्री तथा महाराज दशरथकी तीसरी पटरानी थीं| ये अनुपम सुन्दरी, बुद्धिमति, साध्वी और श्रेष्ठ वीराग्ङना थीं| महाराज दशरथ इनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे| इन्होंने देवासुरसंग्राममें महाराज दशरथके साथ सारथिका कार्य करके अनुपम शौर्यका परिचय दिया और महाराज दशरथके प्राणोंकी दो बार रक्षा की| यदि शम्बरासुरसे संग्राममें महाराजके साथ महारानी कैकेयी न होतीं तो उनके प्राणोंकी रक्षा असम्भव थी| महाराज दशरथने अपने प्राण-रक्षाके लिये इनसे दो वार माँगनेका आग्रह किया और इन्होंने समयपर माँगनेकी बात कहकर उनके आग्रहको टाल दिया| इनके लिये पतिप्रेमके आगे संसारकी सारी वस्तुएँ तुच्छ थीं|

महारानी कैकेयी भगवान् श्रीरामसे सर्वाधिक स्नेह करती थीं| श्रीरामके युवराज बनाये जानेका संवाद सुनते ही ये आनन्दमग्न हो गयीं| मन्थराके द्वारा यह समाचार पाते ही इन्होंने उसे अपना मूल्यवान् आभूषण प्रदान किया और कहा - 'मन्थरे! तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है| मेरे लिये श्रीराम-अभिषेकके समाचारसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय समाचार नहीं हो सकता| इसके लिये तू मुझसे जो भी माँगेगी, मैं अवश्य दूँगी!' इसीसे पता लगता है कि ये श्रीरामसे कितना प्रेम करती थीं| इन्होंने मन्थराकि विपरीत बात सुनकर उसकी जीभतक खींचनेकी बात कहीं| इनके श्रीरामके वनगमनमें निमित्त बनने का प्रमुख कारण श्रीरामकी प्रेरणासे देवकार्यके लिये सरस्वतीदेवीके द्वारा इनकी बुद्धिका परिवर्तन कर दिया जाना था| महारानी कैकेयीने भगवान् श्रीरामकी लीलामें सहायता करनेके लिये जन्म लिया था| यदि श्रीरामका अभिषेक हो जाता तो वनगमनके बिना श्रीरामका ऋषि-मुनियोंको दर्शन, रावण-वध, साधु-परित्राण, दुष्ट-विनाश, धर्म-संरक्षण आदि अवतारके प्रमुख कार्य नहीं हो पाते| इससे स्पष्ट है कि कैकेयीजीने श्रीरामकी लीलामें सहयोग करनेके लिये ही जन्म लिया था| इसके लिये इन्होंने चिरकालिक अपयशके साथ पापिनी, कुलघातिनी, कलक्ङिनी आदि अनेक उपाधियोंको मौन होकर स्वीकार कर लिया|

चित्रकूटमें जब माता कैकेयी श्रीरामसे एकान्तमें मिलीं, तब इन्होंने अपने नेत्रोंमें आँसू भरकर उनसे कहा - 'हे राम! मायासे मोहित होकर मैंने बहुत बड़ा अपकर्म किया है| आप मेरी कुटिलताको क्षमा कर दें, क्योंकि साधुजन क्षमाशील होते हैं| देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये आपने ही मुझसे यह कर्म करवाया है| मैंने आपको पहचान लिया है| आप देवताओंके लिये भी मन, बुद्धि और वाणीसे परे हैं|'

भगवान् श्रीरामने उनसे कहा - 'महाभागे! तुमने जो कहा, वह मिथ्या नहीं है| मेरी प्रेरणासे ही देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये तुम्हारे मुखसे वे शब्द निकले थे| उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है| अब तुम जाओ| सर्वत्र आसक्तिरहित मेरी भक्तिके द्वारा तुम मुक्त हो जाओगी|'

भगवान् श्रीरामके इस कथनसे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि कैकेयीजी श्रीरामकी अन्तरंग भक्त, तत्त्वज्ञान-सम्पन्न और सर्वथा निर्दोष थीं| इन्होंने सदाके लिये अपकीर्तिका वरण करके भी श्रीरामकी लीलामें अपना विलक्षण योगदान दिया|

Monday, 26 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - माता सुमित्रा

ॐ श्री साँई राम जी



माता सुमित्रा

महारानी सुमित्रा त्यागकी साक्षात् प्रतिमा थीं| ये महाराज दशरथकी दूसरी पटरानी थीं| महाराज दशरथने जब पुष्टि यज्ञके द्वारा खीर प्राप्त किया, तब उन्होंने खीरका भाग महारानी सुमित्राको स्वयं न देकर महारानी कौसल्या और महारानी कैकेयीके द्वारा दिलवाया| जब महारानी सुमित्राको उस खीरके प्रभावसे दो पुत्र हुए तो इन्होंने निश्चय कर लिया कि इन दोनों पुत्रोंपर मेरा अधिकार नहीं है| इसलिये अपने प्रथम पुत्र श्रीलक्ष्मणको श्रीराम और दूसरे शत्रुघ्नको श्रीभरतकी सेवामें समर्पित कर दिया| त्याग कर ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है|

जब भगवान् श्रीराम वन जाने लगे तब लक्ष्मणजीने भी उनसे स्वयंको साथ ले चलनेका अनुरोध किया| पहले भगवान् श्रीरामने लक्ष्मणजीको अयोध्यामें रहकर माता-पिताकि सेवा करनेका आदेश दिया, लेकिन लक्ष्मणजीने किसी प्रकार भी श्रीरामके बिना अयोध्यामें रुकना स्वीकार नहीं किया| अन्तमें श्रीरामने लक्ष्मणको माता सुमित्रासे आदेश लेकर अपने साथ चलनेकी आज्ञा दी| उस समय विदा माँगनेके लिये उपस्थित श्रीलक्ष्मणको माता सुमित्राने जो उपदेश दिया उसमें दिया उसमें भक्ति, प्रीति, त्याग, पुत्र-धर्मका स्वरूप, समपर्ण आदि श्रेष्ठ भावोंकी सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है|

माता सुमित्राने श्रीलक्ष्मणको उपदेश देते हुए कहा - ' बेटा! विदेहनन्दिनी श्रीजानकी ही तुम्हारी माता हैं और सब प्रकारसे स्नेह करनेवाले श्रीरामचन्द्र ही तुम्हारे पिता हैं| जहाँ श्रीराम हैं, वहीं अयोध्या है और जहाँ सूर्यका प्रकाश है वही दिन है| यदि श्रीसीता-राम वनको जा रहे हैं तो अयोध्यामें तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है| जगत्में जितने भी पूजनीय सम्बन्ध हैं, वे सब श्रीरामके नाते ही पूजनीय और प्रिय मानने योग्य हैं| संसारमें वही युवती पुत्रवती कहलाने योग्य है, जिसका पुत्र श्रीरामका भक्त है| श्रीरामसे विमुख पुत्रको जन्म देनेसे निपूती रहना ही ठीक है| तुम्हारे ही भाग्यसे श्रीराम वनको जा रहे हैं| हे पुत्र! इसके अतिरिक्त उनके वन जानेका अन्य कोई कारण नहीं है| समस्त पुण्योंका सबसे बड़ा फल श्रीसीतारामजीके चरणोंमें स्वाभाविक प्रेम है| हे पुत्र! राग, रोष, ईर्ष्या, मद आदि समस्त विकारोंपर विजय प्राप्त करके मन, कर्म और वचनसे श्रीसीतारामकी सेवा करना| इसीमें तुम्हारा परम हित है|'

श्रीराम सीता और लक्ष्मणके साथ वन चले गये| अब हर तरहसे माता कौसल्याको सुखी बनाना ही सुमित्राजीका उद्देश्य हो गया| ये उन्हींकी सेवा में रात-दिन लगी रहती थीं| अपने पुत्रोंके विछोहके दुःखको भूलकर कौसल्याजीके दुःखमें दुखी और उन्हींके सुखमें सुखी होना माता सुमित्राका स्वभाव बन गया| जिस समय लक्ष्मणको शक्ति लगनेका इन्हें संदेश मिलता है, तब इनका रोम-रोम खिल उठता है| ये प्रसन्नता और उत्सर्गके आवेशमें बोल पड़ती हैं - 'लक्ष्मणने मेरी कोखमें जन्म लेकर उसे सार्थक कर दिया| उसने मुझे पुत्रवती होनेका सच्चा गौरव प्रदान किया है|' इतना ही नहीं, ये श्रीरामकी सहायताके लिये श्रीशत्रुघ्नको भी युद्धमें भेजनेके लिये तैयार हो जाती हैं| माता सुमित्राके जीवनमें सेवा, संयम और सर्वस्व-त्यागका अद्भुत समावेश है| माता सुमित्रा-जैसी देवियाँ ही भारतीय कुलकी गरिमा और आदर्श हैं|

Sunday, 25 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - माता कौसल्या

ॐ श्री साँई राम जी 



माता कौसल्या

महारानी कौसल्याका चरित्र अत्यन्त उदार है| ये महाराज दशरथकी सबसे बड़ी रानी थीं| पूर्व जन्ममें महराज मनुके साथ इन्होंने उनकी पत्नीरूपमें कठोर तपस्या करके श्रीरामको पुत्ररूपमें प्राप्त करनेका वरदान प्राप्त किया था| इस जन्ममें इनको कौसल्यारूपमें भगवान् श्रीरामकी जननी होनेका सौभाग्य मिला था|

श्रीकौसल्याजीका मुख्य चरित्र रामायणके अयोध्याकाण्डसे प्रारम्भ होता है| भगवान् श्रीरामका राज्याभिषेक होनेवाला है| नगरभरमें उत्सवकी तैयारियाँ हो रही हैं| माता कौसल्याके आनन्दका पार नहीं है | वे श्रीरामकी मंगल-कामनासे अनेक प्रकारके यज्ञ, दान, देवपूजन और उपवासमें संलग्न हैं| श्रीराम को सिहांसनपर आसीन देखनेकी लालसासे इनका रोम-रोम पुलकित है| परन्तु श्रीराम तो कुछ दूसरी ही लीला करना चाहते हैं | सत्यप्रेमी महाराज दशरथ कैकेयीके साथ वचनबद्ध होकर श्रीरामको वनवास देनेके लिये बाध्य हो जाते हैं|

प्रात:काल भगवान् श्रीराम माता कैकेयी और पिता महाराज दशरथसे मिलकर वन जानेका निश्चय कर लेते हैं और माता कौसल्याका आदेश प्राप्त करनेके लिये उनके महलमें पधारते हैं| श्रीरामको देखकर माता कौसल्या उनके पास आती हैं| इनके हृदयमें वात्सल्य-रसकी बाढ़ आ जाती है और मुँहसे आशीर्वादकी वर्षा होने लगती है| ये श्रीरामका हाथ पकड़कर उनको उन्हें शिशुकी भाँति अपनी गोदमें बैठा लेती हैं और कहने लगती हैं - 'श्रीराम! राज्याभिषेकमें अभी विलम्ब होगा| इतनी देरतक कैसे भूखे रहोगे, दो-चार मधुर फल ही खा लो|' भगवान् श्रीरामने कहा - 'माता! पिताजीने मुझको चौदह वर्षोंके लिये वनका राज्य दिया है, जहाँ मेरा सब प्रकारसे कल्याण ही होगा| तुम भी प्रसन्नचित्त होकर मुझको वन जानेकी आज्ञा दे दी| चौदह सालतक वनमें निवास कर मैं पिताजीके वचनोंका पालन करूँगा, पुन: तुम्हारे श्रीचरणोंका दर्शन करूँगा|'

श्रीरामके ये वचन माता कौसल्याके हृदयमें शूलकी भाँति बिंध गये| उन्हें अपार क्लेश हुआ| वे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर गयीं, उनके विषादकी कोई सीमा न रही| फिर वे सँभलकर उठीं और बोलीं - 'श्रीराम! यदि तुम्हारे पिताका ही आदेश हो तो तुम माताको बड़ी जानकार वनमें न जाओ! किन्तु यदि इसमें छोटी माता कैकयीकी भी इच्छा हो तो मैं तुम्हारे धर्म-पालनमें बाधा नहीं बनूँगी| जाओ! काननका राज्य तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्याके राज्यसे भी सुखप्रद हो|' पुत्रवियोगमें माता कौसल्यका हृदय दग्ध हो रहा है, फिर भी कर्त्तव्यको सर्वोपरि मानकर तथा अपने हृदयपर पत्थर रखकर वे पुत्रको वन जानेकी आज्ञा दे देती हैं| सीता-लक्ष्मणके साथ श्रीराम वन चले गये| महाराज दशरथ कौसल्याके भवनमें चले आये| कौसल्याजीने महराजको धैर्य बँधाया, किन्तु उनका वियोग-दुःख कम नहीं हुआ| उन्होंने राम-राम कहते हुए अपने नश्वर शरीरको त्याग दिया| कौसल्याजीने पतिमरण, पुत्रवियोग-जैसे असह्य दुःख केवल श्रीराम-दर्शनकी लालसामें सहे| चौदह सालके कठिन वियोगके बाद श्रीराम आये| कौसल्याजीको अपने धर्मपालनका फल मिला| अन्तमें ये श्रीरामके साथ ही साकेत गयीं|

Saturday, 24 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - महाराज दशरथ

ॐ श्री साँई राम जी 


महाराज दशरथ

अयोध्यानरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनुके अवतार थे| पूर्वकालमें कठोर तपस्यासे इन्होंने भगवान् श्रीरामको पुत्ररूपमें प्राप्त करनेका वरदान पाया था| ये परम तेजस्वी, वेदोंके ज्ञाता, विशाल सेनाके स्वामी, प्रजाका पुत्रवत् पालन करनेवाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे| इनके राज्यमें प्रजा सब प्रकारसे धर्मरत तथा धन-धान्यसे सम्पन्न थी| देवता भी महाराज दशरथकि सहायता चाहते थे| देवासुर-संग्राममें इन्होंने दैत्योंको पराजित किया था| इन्होंने अपने जीवनकालमें अनेक यज्ञ भी किये|

महाराज दशरथकि बहुत-सी रानियाँ थीं, उनमें कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी प्रधान थीं| महाराजकी वृद्धावस्था आ गयी, किन्तु इनको कोई पुत्र नहीं हुआ| इन्होंने अपनी इस समस्यासे गुरुदेव वसिष्ठको अवगत कराया| गुरुकी आज्ञासे ॠष्यश्रृंग बुलाये गये और उनके आचार्यत्वमें पुत्रेष्टि यज्ञका आयोजन हुआ| यज्ञपुरुषने स्वयं प्रकट होकर पायसत्रसे भरा पात्र महाराज दशरथको देते हुए कहा - 'राजन्! यह खीर अत्यन्त श्रेष्ठ, आरोग्यवर्धक तथा पुत्रोंको उत्पन्न करनेवाली है| इसे तुम अपनी रानियोंको खिला दो|' महाराजने वह खीर कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रामें बाँटकर दे दिया| समय आनेपर कौसल्याके गर्भसे सनातन पुरुष भगवान् श्रीरामका अवतार हुआ| कैकेयीने भरत और सुमित्राने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्नको जन्म दिया |

चारों भाई माता-पिताके लाड़-प्यारमें बड़े हुए| यद्यपि महाराजको चारों ही पुत्र प्रिय थे, किन्तु श्रीरामपर इनका विशेष स्नेह था| ये श्रीरामको क्षणभरके लिये भी अपनी आँखोंसे ओझल नहीं करना चाहते थे| जब विश्वामित्रजी यज्ञरक्षार्थ श्रीराम-लक्ष्मणको माँगने आये तो वसिष्ठके समझानेपर बड़ी कठिनाईसे ये उन्हें भेजनेके लिये तैयार हुए|

अपनी वृद्धावस्थाको देखकर महाराज दशरथने श्रीरामको युवराज बनाना चाहा| मंथराकी सलाहसे कैकेयीने अपने पुराने दो वरदान महाराजसे माँगे - एकमें भरतको राज्य और दूसरेमें श्रीरामके लिये चौदह वर्षोंका वनवास| कैकेयीकी बात सुनकर महाराज दशरथ स्तब्ध रह गये| थोड़ी देरके लिये तो इनकी चेतना ही लुप्त हो गयी| होश आनेपर इन्होंने कैकयीको समझाया| बड़ी ही नम्रतासे दीन शब्दोंमें इन्होंने कैकेयीसे कहा - 'भरतको तो मैं अभी बुलाकर राज्य दे देता हूँ, किन्तु तुम श्रीरामको वन भेजनेका आग्रह मत करो|' विधिके विधान एवं भावीकी प्रबलताके कारण महाराजके विनयका कैकेयीपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा| भगवान् श्रीराम पिताके सत्यकी रक्षा और आज्ञापालनके लिये अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ वन चले गये| महाराज दशरथके शोकका ठिकाना न रहा| जबतक श्रीराम रहे तभीतक, इन्होंने अपने प्राणोंको रखा और उनका वियोग होते ही श्रीरामप्रेमानलमें अपने प्राणोंकि आहुति दे डाली|

जिअत राम बिधु बदनु निहारा| राम बिरह करि मरनु सँवारा||

महाराज दशरथके जीवनके साथ उनकी मृत्यु भी सुधर गयी| श्रीरामके वियोगमें अपने प्राणोंको देकर इन्होंने प्रेमका एक अनोखा आदर्श स्तापित किया| महाराज दशरथके सामान भाग्यशाली और कौन होगा, जिन्होंने अपने अंत समयमने राम-राम पुकारते हुए अपने प्राणोंका विसर्जन किया|

Friday, 23 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि विश्वामित्र

ॐ श्री साँई राम जी


महर्षि विश्वामित्र

महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधिके पुत्र थे| कुश्वंशमें पैदा होनेके कारण इन्हें कौशिक भी कहते हैं| ये बड़े ही प्रजापालक तथा धर्मात्मा राजा थे| एक बार ये सेनाको साथ लेकर जंगलमें शिकार खेलनेके लिये गये| वहाँपर वे महर्षि वसिष्ठके आश्रमपर पहुँचे|महर्षि वसिष्ठने इनसे इनकी तथा राज्यकी कुशल-श्रेम पूछी और सेनासहित आतिथ्य-सत्कार स्वीकार करनेकी प्रार्थना की|

विश्वामित्रने कहा - 'भगवन्! हमारे साथ लाखों सैनिक हैं| आपने जो फल-फूल दिये, उसीसे हमारा सत्कार हो गया| अब हमें जानेकी आगया दें|'

महर्षि वसिष्ठने उनसे बार-बार पुन: आतिथ्य स्वीकार करनेका आग्रह किया| उनके विनयको देखकर विश्वामित्रने अपनी स्वीकृति दे दी| महर्षि वसिष्ठने अपने योगबल और कामधेनुकी सहायतासे विश्वामित्रको सैनिकोंसहित भलीभांति तृप्त कर दिया| कामधेनुके विलक्षण प्रभावसे विश्वामित्र चकित हो गये| उन्होंने कामधेनुको देनेके लिये महर्षि वसिष्ठसे प्रार्थना की| वसिष्ठजीके इनकार करनेपर वे जबरन कामधेनुको अपने साथ ले जाने लगे| कामधेनुने अपने प्रभावसे लाखों सैनिक पैदा किये| विश्वामित्रकी सेना भाग गयी और वे पराजित हो गये| इससे विश्वामित्रको बड़ी ग्लानी हुई| उन्होंने अपना राज-पाट छोड़ दिया| वे जंगलमें जाकर ब्रह्मर्षि होनेके लिये कठोर तपस्या करने लगे|

तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सराके माध्यमसे विश्वामित्रके जीवनमें कामका विघ्न आया| ये सब कुछ छोड़कर मेनकाके प्रेममें डूब गये| जब इन्हें होश आया तो इनके मनमें पश्चात्तापका उदय हुआ| ये पुन: कठोर तपस्यामें लगे और सिद्ध हो गये| कामके बाद क्रोधने भी विश्वामित्रको पराजित किया| राजा त्रिशुंक सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे| यह प्रकृतिके नियमोंके विरुद्ध होनेके कारण वसिष्ठजीने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया| विश्वामित्रके तपका तेज उस समय सर्वाधिक था| त्रिशुंक विश्वामित्रके पास गये| वसिष्ठसे पुराने वैरको स्मरण करके विश्वामित्रने उनका यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया| सभी ऋषि इस यज्ञमें आये, किन्तु वसिष्ठके सौ पुत्र नहीं आये| इसपर क्रोधके वशीभूत होकर विश्वामित्रने उन्हें मार डाला| अपनी भयङ्कर भूलका ज्ञान होनेपर विश्वामित्रने पुन: तप किया और क्रोधपर विजय करके ब्रह्मर्षि हुए| सच्ची लगन और सतत उद्योगसे सब कुछ सम्भव है, विश्वामित्रने इसे सिद्ध कर दिया|

श्रीविश्वामित्रजीको भगवान् श्रीरामका दूसरा गुरु होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ| ये दण्डकारण्यमें यज्ञ कर रहे थे| रावणके द्वारा वहाँ नियुक्त ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षस इनके यज्ञमें बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे| विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे जान लिया कि त्रैलोक्यको भयसे त्राण दिलानेवाले परब्रह्म श्रीरामका अवतार अयोध्यामें हो गया है| फिर ये अपनी यज्ञरक्षाके लिये श्रीराम को महाराज दशरथसे माँग ले आये| विश्वामित्रके यज्ञ की रक्षा हुई| इन्होंने भगवान् श्रीरामको अपनी विद्याएँ प्रदान कीं और उनका मिथिलामें श्रीसीताजीसे विवाह सम्पन्न कराया| महर्षि विश्वमित्र आजीवन पुरुषार्थ और तपस्याके मूर्तिमान् प्रतीक रहे| सप्तऋषिमण्डलमें ये आज भी विद्यमान हैं|

Thursday, 22 May 2014

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 28

ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |



हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|
साँई मेरा भोला भाला, क्या-क्या लीला दिखाये

कभी दिखे वो राम की मूरत, कभी वो मुरली बजाये।
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 28

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चिडियों का शिरडी को खींचा जाना – लक्ष्मीचंद, बुरहानपुर की महिला, मेघा का निर्वाण। 
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Wednesday, 21 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - महर्षि वशिष्ठ

ॐ श्री साँई राम जी 



महर्षि वशिष्ठ

महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्तिका वर्णन पुराणोंमें विभित्र रूपोंमें प्राप्त होता है| कहीं ये ब्रह्माके मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुणके पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं| इनकी पत्नीका नाम अरुन्धती देवी था| जब इनके पिता ब्रह्माजीने इन्हें मृत्युलोकमें जाकर सृष्टिका विस्तार करने तथा सूर्यवंशका पौरोहित्य कर्म करनेकी आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्मको अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करनेमें अपनी असमर्थता व्यक्त की| ब्रह्माजीने इनसे कहा - 'इसी वंशमें आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करेगा|' फिर इन्होंने इस धराधामपर मानव-शरीरमें आना स्वीकार किया|

महर्षि वसिष्ठने सूर्यवंशका पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्योंको सम्पन्न किया| इन्हींके उपदेशके बलपर भगीरथने प्रयत्न करके गङ्गा-जैसी लोककल्याणकारिणी नदीको हमलोगोंके लिये सुलभ कराया| दिलीपको नन्दिनीकी सेवाकी शिक्षा देकर रघु - जैसे पुत्र प्रदान करनेवाले तथा महाराज दशरथकी निराशामें आशाका सञ्चार करनेवाले महर्षि वसिष्ठ ही थे| इन्हींकी सम्मतिसे महाराज दशरथने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान् श्रीरामका अवतार हुआ| भगवान् श्रीरामको शिष्यरूपमें प्राप्तकर महर्षि वसिष्ठका पुरोहित-जीवन सफल हो गया| भगवान् श्रीरामके वनगमसे लौटनेके बाद इन्हींके द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ| गुरु वसिष्ठने श्रीरामके राज्यकार्यमें सहयोगके साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये|

महर्षि वसिष्ठ क्षमाकी प्रतिमूर्ति थे| एक बार श्रीविश्वामित्र उनके अतिथि हुए| महर्षि वसिष्ठने कामधेनुके सहयोगसे उनका राजोचित सत्कार किया| कामधेनु की अलौकिक क्षमताको देखकर विश्वामित्रके मनमें लोभ उत्पन्न हो गया| उन्होंने इस गौको वसिष्ठसे लेनेकी इच्छा प्रकट की| कामधेनु वसिष्ठजीके लिये आवश्यक आवश्यकताओंकी पूर्तिहेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देनेमें असमर्थता व्यक्त की| विश्वामित्रने कामधेनुको बलपूर्वक ले जाना चाहा| वसिष्ठजीके संकेतपर कामधेनुने अपार सेनाकी सृष्टि कर दी| विश्वामित्रको अपनी सेनाके साथ भाग जानेपर विवश होना पड़ा| द्वेष-भावनासे प्रेरित होकर विश्वामित्रने भगवान् शंकरकी तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठपर पुन: आकर्मण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्रदण्डके सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रियबलको धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभके लिये तपस्याहेतु वन जाना पड़ा|

विश्वामित्रकी अपूर्व तपस्यासे सभी लोग चमत्कृत हो गये| सब लोगोंने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठके ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे| अन्तमें उन्होंने वसिष्ठजीको मिटानेका निश्चय कर लिया और उनके आश्रममें एक पेड़पर छिपकर वसिष्ठजीको मारनेके लिये उपयुक्त अवसरकी प्रतीक्षा करने लगे| उसी समय अरुन्धतीके प्रश्न करनेपर वसिष्ठजीने फेंककर श्रीवसिष्ठजीने शरणागत हुए| वसिष्ठजीने उन्हें उठाकर गलेसे लगाया और ब्रह्मर्षिकी उपाधिसे विभूषित किया| इतिहास-पुराणोंमें महर्षि वसिष्ठके चरित्रका विस्तृत वर्णन मिलता है| ये आज भी सप्तर्षियोंमें रहकर जगत् का कल्याण करते रहते हैं|

Tuesday, 20 May 2014

रामायण के प्रमुख पात्र - भगवान श्रीराम

ॐ श्री साँई राम जी


भगवान श्रीराम

असंख्य सद्गुण रूपी रत्नों के महान निधि भगवान् श्रीराम धर्म परायण भारतीयों के परमाराध्य हैं| श्रीराम ही धर्म के रक्षक, चराचर विश्व की सृष्टि करने वाले, पालन करने वाले तथा संहार करने वाले परब्रह्म के पूर्णावतार हैं| रामायण में यथार्थ ही कहा गया है - 'रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता|' भगवान् श्रीराम धर्म के क्षीण हो जाने पर साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और भूतल पर शान्ति एवं धर्म की स्थापना करने के लिये अवतार लेते हैं| उन्होंने त्रेतायुग में देवताओं की प्रार्थना सुन कर पृथ्वी का भार हरण करने के लिये अयोध्याधिपति महाराज दशरथ के यहाँ चैत्र शुक्ल नवमी के दिन अवतार लिया और राक्षसों का संहार करके त्रिलोक में अपनी अविचल कीर्ति स्थापित की| पृथ्वी का धारण-पोषण, समाज का संरक्षण और साधुओं का परित्राण करने के कारण भगवान् श्रीराम मूर्तिमान् धर्म ही हैं|

भगवान् श्रीराम जीवमात्र के कल्याण के लिये अवतरित हुए थे| विविध रामायणों, अठराह महापुराणों, रघुवंशादि महाकाव्यों, हनुमदादि नाटकों, अनेक चप्पू-काव्यों तथा महाभारतादि में इनके विस्तृत चरित्र का ललित वर्णन मिलता है| श्रीराम के विषय में जितने ग्रन्थ लिखे गये, उतने किसी अन्य अवतार के चरित्र पर नहीं लिखे गये| गुरुगृह से अल्पकाल में शिक्षा प्राप्त करके लौटने के बाद इनका चरित्र विश्वामित्र की यज्ञरक्षा, जनकपुर में शिव-धनुष-भंग, सीता-विवाह, परशुराम का गर्वभंग आदि के रूप में विख्यात है| यज्ञरक्षा के लिये जाते समय इन्होंने ताड़का-वध, महर्षि विश्वामित्र के आश्रम पर सुबाहु आदि दैत्यों का संहार तथा गौतम की पत्नी अहल्या का उद्धार किया| कैकेयी के वरदान स्वरूप पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये ये चौदह वर्षों के लिये वन में गये| चित्रकूटादि अनेक स्थानों में रह कर इन्होंने ऋषियों को कृतार्थ किया| पञ्चवटी में शूर्पणखा की नाक काटकर और खर-दूषण, त्रिशिरा आदि का वध कर इन्होंने रावण को युध्द के लिये चुनौती दी| रावण ने मारीच की सहायता से सीता का अपहरण किया| सीता की खोज करते हुए इन्होंने सुतीक्ष्ण, शरभंग, जटायु, शबरी आदि को सद्गति प्रदान की तथा ऋष्यमूक पर्वतपर पहुँच कर सुग्रीव से मैत्री की और वाली का वध किया| फिर श्री हनुमान् जी के द्वारा सीता का पता लगवा कर इन्होंने समुद्र पर सेतु बँधवाया और वानरी-सेना की सहायता से रावण-कुम्भकर्णादिका वध किया तथा विभीषण को राज्य देकर सीता जी का उद्धार किया| भगवान् श्रीराम ने लगभग ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य कर के त्रेता में सत्ययुग की स्थापना की| अपने राज्यकाल में राम राज्य को चिरस्मरणीय बना कर पुराण पुरुष श्री राम सपरिकर अपने दिव्यधाम साकेत पधारे|

कर्तव्य ज्ञान की शिक्षा देना रामावतार की विशेषता है| इसका दुष्टान्त भगवान् श्रीराम ने स्वयं अपने आचरणों के द्वारा कर्म करके दिखाया| वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भ्राता, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श स्वामी, आदर्श वीर, आदर्श देश सेवक और सर्वश्रेष्ठ महा मानव होने के साथ साक्षात् परमात्मा थे| भगवान् श्रीराम का चरित्र अनन्त है, उनकी कथा अनन्त है| उसका वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है| भक्तगण अपनी भावना के अनुसार उनका गुणगान करते हैं|

Monday, 19 May 2014

तुम्ही रामा मेरे साई तुम्ही कृष्णा मेरे साई

ॐ श्री साँई राम जी 


जिधर देखूं उधर साईतेरा दीदार हो जाये 
करम हो गर तेरा साईतो बेड़ा पार हो जाये

तेरे बिन मैं ना रह पाऊँमेरे बिन तू ना रह पाये
 मिलन ऐसा मेरे साईयूँ बारम्बार हो जाये

तुम्ही रामा मेरे साई तुम्ही कृष्णा मेरे साई

Sunday, 18 May 2014

हिन्दू मुसल्माँ, सभी के हो मालिक

ॐ श्री साँईं राम जी 


तुम्हारे करम से ही देखा है साईं
सदा ही जहाँ में  ऐसा नज़ारा
तुम्हारी इबादत से बदलती है किस्मत
तुम्हारी पनाहों में मिलता किनारा

तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

रखे जो भी मन में श्रद्धा सबूरी
कमी उसके घर में आती नहीं है
हस्ती को अपनी मिटा ले अगर तो
कभी मौत उसको रुलाती नहीं है
उलझी है जिसकी कश्ती  भंवर में
तुमने ही उसको दिया है  किनारा

तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

जिसका नहीं कोई सारे जहाँ में
उसके हो  मालिक तुम्हीं  साईं बाबा
जिसके  ज़हन में  साईं तुम बसे हो
ग़म उसके सारे तुम्हारे हैं  बाबा 
पकड़ी है तुमने ग़र डोर जिसकी
जीवन की राहों में  कभी न वो हारा

तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

जहाँ में न देखा है कोई ऐसा
कोढ़ी को जिसने गले से लगाया
हिन्दू मुसल्माँसभी के हो मालिक
सभी को तो तुमने  अपना बनाया
शिर्डी में बस के सारे जहां को
मोहब्बत का तुमने कलमा पढ़ाया

तुम्हारे करम से ही देखा है साईं....

Saturday, 17 May 2014

रखीं चरणां च सानू वी हजूर साईंयाँ

ॐ श्री साँईं राम जी 


रखीं चरणां च सानू वी हजूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

असी पूजा पाठ दा ना कोई ढंग करदे
असी चज दा ना ज़िन्दगी च कम करदे
इक तैनू ही मनाया ए जरूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

साडे मण विच विषय  ते विकार वसदे
असी  करमां दे  वाजों गुनागार दिसदे
तूं तां अल्ला  दा ही दिसदां यें नूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

असी माया दे जंजाल विच फसे होए आं
असीं पापां दियां बेड़ियाँ च कसे होए आं
साडे पापां नू वी  धोवीं तूँ जरूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ

रखीं चरणां च सानू वी हजूर साईंयाँ
करीं साडा वी तूं हुण दुःख दूर साईंयाँ




तहे-दिल से अगर तुम चाहते हो
साईं  के सदा रहो बनकर
चरणों को बसा लो मन में और
रहो साईं के दास बनकर 

Friday, 16 May 2014

रहमताँ साईं तेरियां - तेरियां

ॐ श्री साँई राम जी


मेरे साईं ने कीता करम ये बड़ा
मेरे पापां दा भरिया सी भावें घड़ा
मैनू  डुबणों   बचाया
इस जग तो तराया
मै कीवें भुलावाँ मेरे साईंयाँ
रहमताँ साईं तेरियां - तेरियां
रहमताँ साईं तेरियां
  
मैं ताँ हर वेले ज़िन्दगी च मौजां मारियाँ
मैं ताँ बंद रखियाँ ने साईं सब बारियाँ
मैं ताँ जिन्दगी च कीतियाँ कई चकारियाँ
मैं ताँ करदा रया हाँ साईं भुला सारियां
हथ फड़  मेरे साईं मैनू कीता खड़ा
मेनू हर वेले दिता ए सहारा बड़ा
मेरे साईं ने कीता ए करम बड़ा
मेरे पापां दा भरिया सी भावें घड़ा
मैनू  डुबणों  बचाया
इस जग तो तराया
मै कीवें भुलावाँ मेरे साईंयाँ
रहमताँ साईं तेरियां - तेरियां
रहमताँ साईं तेरियां
  
जदों औखा वेला आया साईं आप  आ गए
मै ताँ जदों वाज मारी साईं आप  आ गए
कदी माता रूप विच साईं आप आ गए
कदी पिता रूप विच मेरा सिर कज गए
सोहणा साईं मेनू दुखां तो बचाए बड़ा
हर वेले मेरे अंग संग मेरा साईं खड़ा
(मेरे साईं ने कीता ए करम बड़ा
मेरे पापां दा भरिया सी भावें घड़ा
मैनू  डुबणों बचाया
इस जग तो तराया
मै कीवें भुलावाँ मेरे साईंयाँ
रहमताँ साईं तेरियां ---तेरियां
रहमताँ साईं तेरियां

कदी बचियाँ दे वांग कोई खेड कर गए
कदी सिधे राही पाण दी जुगत कर गए
कदी अपने ही हथीं मेरा कम कर गए
कदी कीते होए पापां नु वी माफ़ कर गए
मैनू अपणा तूं साईं बणाई खड़ा
मैनू दिता ये साईं तूं प्यार बड़ा
मेरे साईं ने कीता ए करम बड़ा
मेरे पापां दा भरिया सी भावें घड़ा
मैनू  डुबणों बचाया
इस जग तो तराया
मै कीवें भुलावाँ मेरे साईंयाँ
रहमताँ साईं तेरियां - तेरियां
रहमताँ साईं तेरियां

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एक 18 साल का लड़का ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा था. अचानक वो ख़ुशी में जोर से चिल्लाया "पिताजी, वो देखो, पेड़ पीछे जा रहा हैं". उसके पिता ने स्नेह से उसके सर पर हाँथ फिराया. वो लड़का फिर चिल्लाया "पिताजी वो देखो, आसमान में बादल भी ट्रेन के साथ साथ चल रहे हैं". पिता की आँखों से आंसू निकल गए. पास बैठा आदमी ये सब देख रहा था. उसने कहा इतना बड़ा होने के बाद भी आपका लड़का बच्चो जैसी हरकते कर रहा हैं. आप इसको किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों नहीं दिखाते?? पिता ने कहा की वो लोग डॉक्टर के पास से ही आ रहे हैं. मेरा बेटा जनम से अँधा था, आज ही उसको नयी आँखे मिली हैं. #नेत्रदान करे. किसी की जिंदगी में रौशनी भरे.