ॐ श्री साँई राम जी
भगवती श्रीसीता
अपनी ससुराल अयोध्यामें आनेके बाद अनेक सेविकाओंके होनेपर भी भगवती सीता अपने हाथोंसे सारा गृहकार्य स्वयं करती थीं और पतिके संकेतमात्रसे उनकी आज्ञाका तत्काल पालन करती थीं| अपने पतिदेव भगवान् श्रीरामको वनगमनके लिये प्रस्तुत देखकर इन्होंने तत्काल अपने कर्तव्य कर्मका निर्णय कर लिया और श्रीरामसे कहा - 'हे आर्यपुत्र! माता - पिता, भाई, पुत्र तथा पुत्रवधू - ये सब अपने-अपने कर्म के अनुसार सुख-दुःखका भोग करते हैं| एकमात्र पत्नी ही पतिके कर्मफलोंकी भागिनी होती है| आपके लिये जो वनवासकी आज्ञा हुई है, वह मेरे लिये भी हुई है| इसलिये वनवासमें आपके साथमें मैं भी चलूँगी| आपमें ही मेरा हृदय अनन्यभावसे अनुरक्त है| आपके वियोगमें मेरी मृत्यु निश्चित है| इसलिये आप मुझे अपने साथ वनमें अवश्य ले चलिये| मुझे ले चलनेसे आपपर कोई भार नहीं होगा| मैं वनमें नियमपूर्वक ब्रह्मचारिणी रहकर आपकी सेवा करुँगी|'
अपने पति श्रीरामसे वनमें ले चलनेका निवेदन करती हुई सीता प्रेम-विह्वल हो गयीं| उनकी आँखोंसे आँसू बहने लगे| वे संज्ञाहीन-सी होने लगीं| अन्तमें श्रीरामको उन्हें साथ चलनेकि आज्ञा देनी पड़ी| माता सीता अपने सतीत्वके परम तेजसे लंकेशको भी भस्म कर सकती थीं| पापात्मा रावणके कुत्सिक मनोवृत्तिकी धज्जियाँ उड़ाती हुई पतिव्रता सीता कहती हैं - 'हे रावण! तुम्हें जलाकर भस्म कर देनेकी शक्ति रखती हुई भी मैं श्रीरामचन्द्रका आदेश न होनेके कारण एवं तपोभग्ङ होनेके कारण तुम्हें जलाकर भस्म नहीं कर रही हूँ|'
महासती सीताने हनुमान् जीकी पूँछमें आग लगनेके समय अग्निदेवसे प्रार्थना की - 'हे अग्निदेव! यदि मैंने अपने पतिकी सच्चे मनसे सेवा की है| यदि मैंने श्रीरामके अतिरिक्त किसीका चिन्तन न किया हो तो तुम हनुमान् के लिये शीतल हो जाओ|' महासती सीताकी प्रार्थनासे अग्निदेव हनुमान् के लिये सुख और शीतल हो गये और लंकाके लिये दाहक बन गये| सीताके पातिव्रत्यकी गवाही अग्निपरीक्षाके पश्चात् स्वयं अग्निदेवने दी थी| महासती सीताके सतीत्वकी तुलना किसीभी नहीं की जा सकती| भगवती सीताका चरित्र समस्त नारियोंके लिये वन्दनीय तथा अनुकरणीय है|