हरि कानोबा, सोमदेव स्वामी, नानासाहेब चाँदोरकर की कथाएँ ।
प्रस्तावना
जब वेद और पुराण ही ब्रहमा या सदगुरु का वर्णन करने में अपनी असमर्थता
प्रगट करते है, तब मैं एक अल्पज्ञ प्राणी अपने सदगुरु श्रीसाईबाबा का वर्णन
कैसे कर सकता हूँ । मेरा स्वयं का तो यतह मत है कि इस विषय में मौन धारण
करना ही अति उत्तम है । सच पूछा जाय तो मूक रहना ही सदगुरु की विमल
पताकारुपी विरुदावली का उत्तम प्रकार से वर्णन करना है । परन्तु उनमें जो
उत्तम गुण है, वे हमें मूक कहाँ रहने देत है । यदि स्वादिष्ट भोजन बने और
मित्र तथा सम्बन्धी आदि साथ बैठकर न खायेंतो वह नीरस-सा प्रतीत होता है और
जब वही भोजन सब एक साथ बैठकर खाते है, तब उसमें एक विशेष प्रकार की
सुस्वादुता आ जाती है । वैसी ही स्थिति साईलीलामृत के सम्बन्ध में भी है ।
इसका एकांत में रसास्वादन कभी नहीं हो सकता । यदि मित्र और पारिवारिक जन
सभी मिलकर इसका रस लें तो और अधिक आनन्द आ जाता है । श्री साईबाबा स्वयं ही
अंतःप्रेरणा कर अपनी इच्छानुसार ही इन कथाओं को मुझसे वर्णित कर रहे है ।
इसलिये हमारा तो केवल इतना ही कर्तव्य है कि अनन्यभाव से उनके शरणागत होकर
उनका ही ध्यान करें । तप-साधन, तीर्थ यात्रा, व्रत एवं यज्ञ और दान से
हरिभक्ति श्रेष्ठ है और सदगुरु का ध्यान इन सबमें परम श्रेष्ठ है । इसलिये
सदैव मुख से साईनाम का स्मरण कर उनके उपदेशों का निदिध्यासन एवं स्वरुप का
चिनत्न कर हृदय में उनके प्रति सत्य और प्रेम के भाव से समस्त चेष्टाएँ
उनके ही निमित्त करनी चाहिये । भवबन्धन से मुक्त होने का इससे उत्तम साधन
और कोई नहीं । यदि हम उपयुक्त विधि से कर्म करते जाये तो साई को विवश होकर
हमारी सहायता कर हमें मुक्ति प्रदान करनी ही पड़ेगी । अब इस अध्याय की कथा
श्रवण करें ।
हरि कानोबा
बम्बई के हरि कानोबा नामक एक महानुभाव ने अपने कई मित्रों और सम्बन्धियों से साई बाबा की अनेक लीलाऐं सुनी थी, परन्तु उन्हें विश्वास ही न होता था, क्योंकि वे संशयालु प्रकृति के व्यक्ति थे । अविश्वास उनके हृदयपटल पर अपना आसन जमाये हुये था । वे स्वयं बाबा की परीक्षा करने का निश्चय करके अपने कुछ मित्रों सहित बम्बई से शिरडी आये । उन्होंने सिर पर एक जरी की पगड़ी और पैरों में नये सैंडिल पहिन रखे थे । उन्होंने बाबा को दूर से ही देखकर उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम तो करना चाहा, परन्तु उनके नये सैंडिल इस कार्य में बाधक बन गये । उनकी समझ में नही आ रहा था कि अब क्या किया जाय । तब उन्होंने अपने सैंडिल मंडप क एक सुरक्षित कोने में रखे और मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन किये । उनका ध्यान सैंडिलों पर ही लगा रहा । उन्होंने बड़ी नम्रतापूर्वक बाबा को प्रणाम किया और उनसे प्रसाद और उदी प्राप्त कर लौट आये । पर जब उन्होंने कोने में दृष्टि डाली तो देखा कि सैंडिल तो अंतद्घार्न हो चुके है । पर्याप्त छानबीन भी व्यर्थ हुई और अन्त में निराश होकर वे अपने स्थान पर वापस आ गये ।
स्नान, पूजन और नैवेघ आदि अर्पित करक वे भोजन करने को तो बैठे, परन्तु वे पूरे समय तक उन सैंडिलों के चिन्तन में ही मग्न रहे । भोजन कर मुँह-हाथधोकर जब वे बाहर आये तो उन्होंने एक मराठा बालक को अपनी ओर आते देखा, जिसके हाथ में डण्डे के कोने पर एक नये सैंडिलों का जोड़ा लटका हुआ था । उस बालक ने हाथ धोने के लिये बाहर आने वाले लोगों से कहा कि बाबा ने मुझे यह डण्डा हाथ में देकर रास्तों में घूम-गूम कर हरि का बेटा जरी का फेंटा की पुकार लगाने को कहा है तथा जो कोई कहे कि सैंडिल हमारे है, उससे पहले यह पूछना कि क्या उसका नाम हरि और उसके पिता का क (अर्थात् कानोबा) है । साथ ही यह भी देखना कि वह जरीदार साफा बाँधे हुए है या नही, तब इन्हें उसे दे देना । बालक का कथन सुनकर हरि कानोबा को बेहद आनन्द व आश्चर्य हुआ । उन्होंने आगे बढ़कर बालक से कहा कि ये हमारे ही सैंडिल है, मेरा ही नाम हरि और मैं ही क (कानोबा) का पुत्र हूँ । यह मेरा जरी का साफा देखो । बालक सन्तुष्ट हो गया और सैंडिल उन्हें दे दी । उन्होंने सोचा कि मेरी जरी का साफा देखो । बालक सन्तुष्ट हो गया और सैंडिल उन्हें दे दी । उन्होंने भी सोचा कि मेरी जरीदार पगड़ी तो सब को ही दिख रही थी । हो सकता है कि बाबा की भी दृष्टि में आ गई हो । परन्तु यह मेरी शिरडी-यात्रा का प्रथम अवसर है, फिर बाबा को यह कैसे विदित हो गया कि मेरा ही नाम हरि है और मेरे पिता का कानोबा । वहतो केवल बाबा की परीक्षार्थ वहाँ आया था । उसे इस घटना से बाबा की महानता विदित हो गई । उसकी इच्छा पूर्ण हो गई और वह सहर्ष घर लौट गया ।
सोमदेव स्वामी
अब एक दूसरे संशयालु व्यक्ति की कथा सुनिये, जो बाबा की परीक्षा करने आया
था । काकासाहेब दीक्षित के भ्राता श्री. भाईजी नागपुर में रहते थे । जब वे
सन् 1906 में हिमालय गये थे, तब उनका गंगोत्री घाटी के नीचे हरिद्घार के
समीप उत्तर काशी में एक सोमदेव स्वामी से परिचय हो गया । दोनों ने एक दूसरे
के पते लिख लिये । पाँच वर्ष पश्चात् सोमदेव स्वामी नागपुर में आये और
भाईजी के यहां ठहरे । वहाँ श्री साईबाबा की कीर्ति सुनकर उन्हें बड़ी
प्रसन्नता हुई तथा वहाँ श्री साईबाबा के दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा हुई ।
मनमाड और कोपरगाँव निकल जाने पर वे एक ताँगे में बैठकर शिरडी को चल पड़े ।
शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्होंने दूर से ही मसजिद पर दो ध्वज लहरते देखे
। सामान्यतः देखने में आता है कि भिन्न-भिन्न सन्तों का बर्ताव, रहन-सहन
और बाहृ सामग्रियाँ प्रायः भिन्न प्रकार की ही रहा करती है । परन्तु केवल
इन वस्तुओं से ही सन्तों की योग्यता का आकलन कर लेना बड़ी भूल है । सोमदेव
स्वामी कुछ भिन्न प्रकृति के थे । उन्होंने जैसे ही ध्वजों को लहराते देखा
तो वे सोचने लगे कि बाबा सन्त होकर इन ध्वजों में इतनी दिलचस्पी क्यों रखते
है । क्या इससे उनका सन्तपन प्रकट होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह
सन्त अपनी कीर्ति का इच्छुक है । अतएव उन्होंने शिरडी जाने का विचार त्याग
कर अपने सहयात्रियों से कहा कि मैं तो वापस लौटना चाहता हूँ । तब वे लोग
कहने लगे कि फिर व्यर्थ ही इतनी दूर क्यों आये । अभी केवल ध्वजों को देखकर
तुम इतने उद्गिग्न हो उठे हो तो जब शिरडी में रथ, पालकी, घोड़ा और अन्य
सामग्रियाँ देखोगे, तब तुम्हारी क्या दशा होगी । स्वामी को अब और भी अधिक
घबराहट होने लगी और उसने काह कि मैंने अनेक साधु-सन्तों के दर्शन किये है,
परन्तु यह सन्त कोई बिरला ही है, जो इस प्रकार ऐश्वर्य की वस्तुएँ संग्रह
कर रहा है । ऐसे साधु के दर्शन न करना ही उत्तम है, ऐसा कहकर वे वापस लौटने
लगे । तीर्थयात्रियों ने प्रतिरोध करते हुए उन्हें आगे बढ़ने की सलाह दी
और समझाया कि तुम यह संकुचित मनोवृत्ति छोड़ दो । मसजिद में जो साधु है, वे
इन ध्वजाओं और अन्य सामग्रियों या अपनी कीर्ति का स्वप्न में भी सोचविचार
नहीं करते । ये सब तो उनके भक्तगण प्रेम और भक्ति के कारण ही उनको भेंट
किया करते है । अन्त में वे शडी जाकर बाबा के दर्शन करने को तैयार हो गये ।
मसजिद के मंडप में पहुँच कर तो वे द्रवित हो गये । उनकी आँखों से
अश्रुधारा बहले लगी और कंठ रुँध गया । अब उनके सब दूषित विचार हवा हो गये
और उन्हें अपने गुरु के शब्दों की स्मृति हो आई कि मन जहाँ अति प्रसन्न औ
आकर्षित हो जाय, उसी स्थान को ही अपना विश्रामधाम समझना । वे बाबा की
चरण-रज में लोटना चाहते थे, परन्तु वे उनके समीप गये तो बाबा एकदम क्रोधित
होकर जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगे कि हमारा सामान हमारे ही साथ रहने दो,
तुम अपने घर वापस लौट जाओ । सावधान । यदि फिर कभी मसजिद की सीढ़ी चढ़े तो ।
ऐसे संत के दर्शन ही क्यों करना चाहिये, जो मसजिद पर ध्वजायें लगाकर रखे ।
क्या ये सन्तपन के लक्षण है । एक क्षण भी यहाँ न रुको । अब उसे अनुभव हो
गया कि बाबा ने अपने हृदय की बात जान ली है और वे कितने सर्वज्ञ है । उसे
अपनी योग्यता पर हँसी आने लगी तथा उसे पता चल गया कि बाबा कितने निर्विकार
और पवित्र है । उसने देखा कि वे किसी को हृदय से लगाते और किसी को हाथ से
स्पर्श करते है तथा किसी को सान्तवना देकर प्रेमदृष्टि से निहारते है ।
किसी को उदी प्रसाद देकर सभी प्रकार से भक्तों को सुख और सन्तोष पहुँचा रहे
है तो फिर मेरे साथ ऐसा रुक्ष बर्ताव क्यों । अधिक विचार करने पर वे इसी
निष्कर्ष पर पहुँचे कि इसका कारण मेरे आन्तरिक विचार ही थे और इससे शिक्षा
ग्रहण कर मुझे अपना आचरण सुधारना चाहिये । बाबा का क्रोध तो मेरे लिये
वरदानस्वरुप है । अब यह कहना व्यर्थ ही होगा, कि वे बाबा की शरण मे आ गये
और उनके एक परम भक्त बन गये ।
नानासाहेब चाँदोरकर
अन्त में नानासाहेब चाँदोरकर की कथा लिखकर हेमाडपंत ने यह अध्याय समाप्त
किया है । एक समय जब नानासाहेब म्हालसापति और अन्य लोगों के साथ मसजिद में
बैठे हुए थे तो बीजापुर से एक सम्भ्रान्त यवन परिवार श्री साईबाबा के
दर्शनार्थ आया । कुलवन्तियों की लाजरक्षण भावना देखकर नानासाहेब वहाँ से
निकल जाना चाहते थे, परन्तु बाबा ने उन्हे रोक लिया । स्त्रियाँ आगे बढ़ी
और उन्होंने बाबा के दर्शन किये । उनमें से एक महिला ने अपने मुँह पर से
घूँघट हटाकर बाबा के चरणों में प्रणाम कर फिर घूँघट डाल लिया । नानासाहेब
उसके सौंद4य से आक4षित हो गये और एक बार पुनः वह छटा देखने को लालायित हो
उठे । नाना के मन की व्यथा जानकर उन लोगों के चले जाने के पश्चात् बाबा
उनसे कहने लगे कि नाना, क्यों व्यर्थ में मोहित हो रहे हो । इन्द्रयों को
अपना कार्य करने दो । हमें उनके कार्य में बाधक न होना चाहिये । भगवान् ने
यह सुन्दर सृष्टि निर्माण की है । अतः हमारा कर्तव्य है कि हम उसके
सौन्दर्य की सराहना करें । यह मन तो क्रमशः ही स्थिर, होता है और जब सामने
का द्घार खुला है, तब हमें पिछले द्घार से क्यों प्रविष्ट होना चाहिये ।
चित्त शुदृ होते ही फिर किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता । यदि हमारे मन में
कुविचार नहीं है तो हमें किसी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं । नेत्रों को
अपना कार्य करने दो । इसके लिये तुम्हें लज्जित तथा विचलित न होना चाहिये ।
उस समया शामा भी वही थे । उनकी समझ में न आया कि आखिर बाबा के कहने का
तात्पर्य क्या है । इसलिये लौटते समय इस विषय में उन्होंने नाना से पूछा ।
उस परम सुन्दरी के सौन्दर्य को देखकर जिस प्रकार वे मोहित हुए तता यह व्यथा
जानकर बाबा ने इस विषय पर जो उपदेश उन्हें दिये, उन्होंने उसका सम्पूर्ण
वृतान्त उनसे कहकर शामा को इस प्रकार समझाया – हमारा मन स्वभावतः ही चंचल
है, पर हमें उसे लम्पट न होने देना चाहिये । इन्द्रयाँ चाहे भले ही चंचल हो
जाये, परन्तु हमें अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण रखकर उसे अशांत न होने देना
चाहिये । इन्द्रियाँ तो अपने विषयपदार्थों के लिये सदैव चेष्टा कि यही करती
है, पर हमें उनके वशीभूत होकर उनके इच्छित पदार्थों के समीप न जाना चाहिये
। क्रमशः प्रयत्न करते रहने से इस चंचलता को नियंत्रित किया जा सकता है ।
यघपि उन पर पूर्ण नियंत्रण सम्भव नहीं है तो भी हमें उनके वशीभूत न होना
चाहिये ।प्रसंगानुसार हमें उनका वास्तविक रुप से उचित गति-अवरोध करना चाहिये । सौन्दर्य तो आँखें सेंकने का विषय है, इसलिये हमें निडर होकर सुन्दर पदार्थों की ओर देखना चाहिये । यदि हममें किसी प्रकार के कुविचार न आवे तो इसमें लज्जा और भय की आवश्यकता ही क्या है । यदि मन को निरिच्छ बनाकर ईश्वर के सौन्दर्य को निहारो तो इन्द्रियाँ सहज और स्वाभाविक रुप से अपने वश में आ जायेगी और विषयानन्द लेते समय भी तुम्हें ईश्वर की स्मृति बनी रहेगी । यदि उसे इन्द्रियों के पीछे दौड़ने तथा उनमें लिप्त रहने दोगे तो तुम्हारा जन्म-मृत्यु के पाश से कदापि छुटकारा न होगा । विषयपदार्थ इंद्रियों को सदा पथभ्रष्ट करने वाले होते है । अतएव हमें विवेक को सारथी बनाकर मन की लगाम अपने हाथ में लेकर इन्द्रिय रुपी घोड़ों को विषयपदार्थों की ओर जाने से रोक लेना चाहिये । ऐसा विवेक रुपी सारथी हमें विष्णु-पद की प्राप्ति करा देगा, जो हमारा यथार्थ में परम सत्य धाम है और जहाँ गया हुआ प्राणी फिर कभी यहाँ नहीं लौटता ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।