श्री गुरु हरिगोबिन्द जी - गुरुदाद्दी मिलना
गुरुदाद्दी मिलना
जहाँगीर ने श्री गुरु अर्जन देव जी को सन्देश भेजा| बादशाह का सन्देश पड़कर गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक समझकर अपने दस-ग्यारह सपुत्र श्री हरिगोबिंद जी को गुरुत्व दे दिया| उन्होंने भाई बुड्डा जी, भाई गुरदास जी आदि बुद्धिमान सिखों को घर बाहर का काम सौंप दिया| इस प्रकार सारी संगत को धैर्य देकर गुरु जी अपने साथ पांच सिखों-
· भाई जेठा जी
· भाई पैड़ा जी
· भाई बिधीआ जी
· लंगाहा जी
· पिराना जी
को साथ लेकर लाहौर पहुँचे|
इस प्रकार श्री गुरु अर्जन देव जी लाहौर जाने से पहले ही श्री हरिगोबिंद जी को 14 संवत 1663 को गुरु गद्दी सौंप गए थे| परन्तु श्री गुरु अर्जन देव जी की रसम क्रिया वाले दिन आपको पगड़ी बांधी गई और आप जी गुरु गद्दी पर सुशोभित हुए|
गुरु घर की मर्यादा के अनुसार आप ने सेली टोपी के जगह सिर पर जिगा कलगी और मीरी-पीरी की दो तलवारे धारण की| आप ने कहा अब सेली टोपी पहनने का समय नहीं है| हमारे पिता जी श्री गुरु अर्जन देव जी जो कि शांति के पुंज थे उनके साथ अत्याचारी राजा के अधिकारियों ने जो कुछ किया है उसका बदला और धर्म की रक्षा शस्त्र के बिना नहीं की जा सकती| इस जगह पर बैठकर जहाँ आप गुरु गद्दी पर सुशोभित हुए वहाँ आप जी ने आषाढ़ सुदी 10 संवत 1663 विक्रमी को अकाल बुग्गे की नीव रखी|
अकाल बुग्गे की तैयारी आरम्भ करके श्री गुरु हरिगोबिंद जी ने सब मसंदो और सिक्खों को हुक्मनामें लिखवा दिए कि जो सिख हमारे लिए घोड़े और शस्त्र भेंट लेकर आएगा, उसपर गुरु की बहुत मेहर होगी|
इसके बाद गुरु जी ने आप भी घोड़े और शस्त्र खरीदे| उन्होंने कुछ शूरवीर नौकर भी रखे| गुरु जी के हुक्मनामे को पड़कर बहुत तेजी से घोड़े और शस्त्र भेंट आनी शुरू हो गई| इस तरह थोड़े ही समय में गुरु जी के पास बहुत घोड़े और शस्त्र इकट्ठे हो गए|
अपने सिखों को युद्ध के लिए तैयार करने के लिए गुरु जी ने एक ढाडी अबदुल को नौकर रख लिया| दूसरे पहर के दीवान में वह शूरवीरों की शूरवीरता की वारे सुनाता| वारे और घोड़ सवारी का अभ्यास कराने के लिए रोज ही जंगल में शिकार खेलने के लिए ले जाता| इस प्रकार योद्धाओ का युद्ध अभ्यास बढता गया और सेना भी बढती गई|