हम वर्ल्ड ऑफ़ साईं ग्रुप के माध्यम से आप सब से अपील करते है की यदि आप के पास गैर जरूरी (न काम आने वाले हर रोज़ मर्रा का कोई भी जरूरी सामान जो शायद आज आपकी जरूरत का हिस्सा न हो) जैसे वस्त्र (किसी भी तरह के वस्त्र, हर उम्र एवं हर श्रेणी के), खिलौने अथवा बिस्तर (पुराने या नए चादर, तकिया, कम्बल, इत्यादि) अथवा अन्नदान, जरूरतमंद कौड़ियों के आश्रम के लिए दान दे | ग़रीबों को भोजन अवश्य दें क्यों कि बाबा ने स्वयं कहा है कि जो ग़रीबों को भोजन खिलाता है वो वास्तव में मुझे भोजन खिलाता है |
शिर्डी के साँई बाबा जी के दर्शनों का सीधा प्रसारण... अधिक जानने के लियें पूरा पेज अवश्य देखें
शिर्डी से सीधा प्रसारण ,...
"श्री साँई बाबा संस्थान, शिर्डी " ...
के सौजन्य से...
सीधे प्रसारण का समय ...
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सीधे प्रसारण का इस ब्लॉग पर प्रसारण केवल उन्ही साँई भक्तो को
ध्यान में रख कर किया जा रहा है जो किसी कारणवश बाबा जी के दर्शन
नहीं कर पाते है और वह भक्त उससे अछूता भी नहीं रहना चाहते,...
हम इसे अपने ब्लॉग पर किसी व्यव्सायिक मकसद से प्रदर्शित नहीं कर रहे है।
...ॐ साँई राम जी...
Wednesday, 29 February 2012
Tuesday, 28 February 2012
Monday, 27 February 2012
Sunday, 26 February 2012
Saturday, 25 February 2012
Friday, 24 February 2012
Thursday, 23 February 2012
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 47
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
पुनर्जन्म
वीरभद्रप्पा और चेनबसाप्पा (सर्प व मेंढ़क) की वार्ता ।
गत अध्याय में बाबा द्घारा बताई गई
दो बकरों के पूर्व जन्मों की वार्ता थी । इस अध्याय मे कुछ और भी पूर्व
जन्मों की स्मृतियों का वर्णन किया जाता है । प्रस्तुत कथा वीरभद्रप्पा और
चेनवसाप्पा के सम्बन्ध में है।
प्रस्तावना
हे
त्रिगुणातीत ज्ञानावतार श्री साई । तुम्हारी मूर्ति कितनी भव्य और सुन्दर
है । हे अन्तयार्मिन । तुम्हारे श्री मुख की आभा धन्य है । उसका क्षणमात्र
भी अवलोकन करने से पूर्व जन्मों के समस्त दुःखों का नाश होकर सुख का द्घार
खुल जाता है । परन्तु हे मेरे प्यारे श्री साई । यदि तुम अपने स्वभाववश ही
कुछ कृपाकटाक्ष करो, तभी इसकी कुछ आशा हो सकती है । तुम्हारी दृष्टिमात्र
से ही हमारे कर्म-बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते है और हमें आनन्द की प्राप्त
हो जाती है । गंगा में स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है, परन्तु
गंगामाई भी संतों के आगमन की सदैव उत्सुकतापूर्वक राह देखा करती है कि वे
कब पधारें और मुझे अपनी चण-रज से पावन करें । श्री साई तो संत-चूडामणि है ।
अब उनके द्वारा ही हृदय पवित्र बनाने वाली यह कथा सुनो ।
सर्प और मेंढ़क
श्री
साई बाबा ने कहा – एक दिन प्रातःकाल 8 बजे जलपान के पश्चात मैं घूमने
निकला । चलते-चलते मैं एक छोटी सी नदी के किनारे पहुँचा । मैं अधिक थक चुका
था, इस काण वहाँ बैठकर कुछ विश्राम करने लगा । कुछ देर के पश्चात् ही
मैंने हाथ-पैर धोये और स्नान किया । तब कहीं मेरी थकावट दूर हुई और मुझे
कुछ प्रसन्नता का अनुभव होने लगा । उस स्थान से एक पगडंडी और बैलगाड़ी के
जाने का मार्ग था, जिसके दोनों ओर सघन वृक्ष थे । मलय-पवन मंद-मंद वह रहा
था । मैं चिलम भर ही रहा था कि इतने में ही मेरे कानों में एक मेंढ़क के
बुरी तरह टर्राने की ध्वनि पड़ी । मैं चकमक सुलगा ही रहा था कि इतने में एक
यात्री वहाँ आया और मेरे समीप ही बैठकर उसने मुझे प्रणाम किया और घर पर
पधारकर भोजन तथा विश्राम करने का आग्रह करने लगा । उसने चिलम सुलगा कर मेरी
ओर पीने कि लिये बढ़ाई । मेंढ़क के टर्राने की ध्वनि सुनकर वह उसका रहस्य
जानने के लिये उत्सुक हो उठा । मैंने उसे बतलाया कि एक मेंढक कष्ट में है,
जो अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोग रहा है । पूर्व जन्म के कर्मों का
फल इस जन्म में भोगना पड़ता है, अतः अब उसका चिल्लाना व्यर्थ है । एक कश
लेकर उसने चिलम मेरी ओर बढ़ाई । थोड़ा देखूँ तो, आखिर बात क्या है । ऐसा
कहकर वह उधर जाने लगा । मैंने उसे बतलाया कि एक बड़े साँप ने एक मेंढ़क को
मुँह में दबा लिया है, इस कारण वह चिल्ला रहा है । दोनों ही पूर्व जन्म में
बड़े दुष्ट थे और अब इस शरीर में अपने कर्मों का फल भोग रहे है । आगन्तुक
ने घटना-स्थल पर जाकर देखा कि सचमुच एक बड़े सर्प ने एक बड़े मेंढ़क को
मुँह में दबा रखा है ।
उसने वापस आकर मुझे बताया कि लगभग
घड़ी-दो घड़ी में ही साँप मेंढ़क को निगल जायेगा । मैंने कहा – नहीं, यह
कभी नहीं हो सकता, मैं उसका संरक्षक पिता हूँ और इस समय यहाँ उपस्थित हूँ ।
फिर सर्प की क्या सामर्थ्य है कि मेंढ़क को निगल जाय । क्या मैं व्यर्थ ही
यहाँ बैठा हूँ । देखो, मैं अभी उसकी किस प्रकार रक्षा करता हूँ । दुबारा
चिलम पीने के पश्चात् हम लोग उस स्थान पर गये । आगन्तुक डरने लगा और उसने
मुझे आगे बढ़ने से रोका कि कहीं सर्प आक्रमण न कर दे । मैं उसकी बात की
उपेक्षा कर आगे बढ़ा और दोनों से कहने लगा कि अरे वीरभद्रप्पा । क्या
तुम्हारे शत्रु को पर्याप्त फल नहीं मिल चुका है, जो उसे मेंढ़क की और
तुम्हें सर्प की योनि प्राप्त हुई है । अरे अब तो अपना वैमनस्य छोड़ो । यही
बड़ी लज्जाजनक बात है । अब तो इस ईर्ष्या को त्यागो और शांति से रहो । इन
शब्दों को सुनकर सर्प ने मेंढ़क को छोड़ दिया और शीघ्र ही नदी में लुप्त हो
गया । मेंढ़क भी कूदकर भागा और झाड़ियों में जा छिपा ।
उस यात्री को बड़ा अचम्भा हुआ ।
उसकी समझ में न आया कि बाबा के शब्दों को सुनकर साँप ने मेंढ़क को क्यों
छोड़ दिया और वीरभद्रप्पा व चेनबसाप्पा कौन थे । उनके वैमनस्य का कारण क्या
था । इस प्रकार के विचार उसके मन में उठने लगे । मैं उसके साथ उसी वृक्ष
के नीचे लौट आया और धूम्रपान करने के पश्चात उसे इसका रहस्य सुनाने लगा ः-
मेरे निवासस्थान से लगभग 4-5 मील
की दूरी पर एक पवित्र स्थान था, जहाँ महादेव का एक मंदिर था । मंदिर
अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण स्थिति में था, सो वहाँ के निवासियों ने उसका
जीर्णोद्घार करने के हेतु कुछ चन्दा इकट्ठा किया । पर्याप्त धन एकत्रित हो
गया और वहाँ नित्य पूजन की व्यवस्था कर मंदिर के निर्माण की योजनायें तैयार
की गई । एक धनाढ़य व्यक्ति को कोषाध्यक्ष नियुकत कर उसको समस्त कार्य की
देख-भाल का भार सौंप दिया गया । उसको कार्य, व्यय आदि का यथोचित विवरण रखकर
ईमानदारी से सब कार्य करना था । सेठ तो एक उच्च कोटि का कंजूस था । उसने
मरम्मत में अत्यन्त अल्पराशि व्यय की, इस कारण मंदिर का जीर्णोद्घार भी उसी
अनुपात में हुआ । उसने सब राशि व्यय कर दी तथा कुछ अंश स्वयं हड़प लिया और
उसने अपनी गाँठ से एक पाई भी व्यय न की । उसकी वाणी अधिक रसीली थी, इसलिये
उसने लोगों को किसी प्रकार समझा-बुझा लिया और कार्य पूर्ववत् ही अधूरा रह
गया । लोग फिर संगठित होकर उसके पास जाकर कहने लगे – सेठ साहेब । कृपया
कार्य शीघ्र पूर्ण कीजिये । आपके प्रत्यन के अभाव में यह कार्य पूर्ण होना
कदापि संभव नहीं । अतः आप पुनः योजना बनाइये । हम और भी चन्दा आपको वसूल
करके देंगे । लोगों ने पुनः चन्दा एकत्रित कर सेठ को दे दिया । उसने रुपये
तो ले लिये, परन्तु पूर्ववत् ही शांत बैठा रहा । कुछ दिनों के पश्चात् उसकी
स्त्री को भगवान् शंकर ने स्वप्न दिया कि उठो और मंदिर पर कलश चढ़ाओ । जो
कुछ भी तुम इस कार्य में व्यय करोगी, मैं उसका सौ गुना अधिक तुम्हें दूँगा ।
उसने यह स्वप्न अपने पति को सुना दिया । सेठ बयभीत होकर सोचने लगा कि यह
कार्य तो ज्यादा रुपये खर्च कराने वाला है, इसलिये उसने यह बात हँसकर टाल
दी कि यह तो एक निरा स्वप्न ही है और उस पर भी कहीं विश्वास किया जा सकता
है । यदि ऐसा होता तो महादेव मेरे समक्ष ही प्रगट होकर यह बात मुझसे न कह
देते । मैं क्या तुमसे अधिक दूर था । यह स्वप्न शुभदायक नहीं । यह तो
पति-पत्नी के सम्बन्ध बिगाड़ने वाला है । इसलिये तुम बिलकुल शांत रहो ।
भगवान् को ऐसे द्रव्य की आवश्यकता ही कहाँ, जो दानियों की इच्छा के विरुदृ
एकत्र किया गया हो । वे तो सदैव प्रेम के भूखे है तथा प्रेम और भक्तिपूर्वक
दिये गये एक तुच्छ ताँबे का सिक्का भी सहर्ष स्वीकार कर लेते है । महादेव
ने पुनः सेठानी को स्वप्न में कह दिया कि तुम अपने पति की व्यर्थ की बातों
और उनके पास संचित धन की ओर ध्यान न दो और न उनसे मंदिर बनवाने के लिये
आग्रह ही करो । मैं तो तुम्हारे प्रेम और भक्ति का ही भूखा हूँ । जो कुछ भी
तुम्हारी व्यय करने की इच्छा हो, सो अपने पास से करो । उसने अपने पति से
विचार-विनिमय करके अपने पिता से प्राप्त आभूषणों को विक्रय करे का निश्चय
किया । तब कृपण सेठ अशान्त हो उठा । इस बार उसने भगवान् को भी धोखा देने की
ठान ली । उसने कौड़ी-मोल केवल एक हजार रुपयों में ही अपनी पत्नी के समस्त
आभूषण स्वयं खरीद डाले और एक बंजर भूमि का भाग मंदिर के निमित्त लगा दिया,
जिसे उसकी पत्नी ने भी चुपचाप स्वीकार कर लिया । सेठ ने जो भूमि दी, वह
उसकी स्वयं की न थी, वरन् एक निर्धन स्त्री दुबकी की थी, जो इसके यहाँ दो
सौ रुपयों में गहन रखी हुई थी । दीर्घकाल तक वह ऋण चुकाकर उसे वापस न ले
सकी, इसलिये उस धूर्त कृपण ने अपनी स्त्री, दुबकी और भगवान को धोखा दे दिया
। भूमि पथरीली होने के कारण उसमें उत्तम ऋतु में भी कोई पैदावार न होती थी
। इस प्रकार यह लेन-देन समाप्त हुआ । भूमि उस मंदिर के पुजारी को दे दी
गई, जो उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुए ।
कुछ समय के पश्चात् एक विचित्र
घटना घटित हुई । एक दिन बहुत जोरों से झंझावात आया और अति वृष्टि हुई । उस
कृपण के घर पर बिजली गिरी और फलस्वरु पति-पत्नि दोनों की मृत्यु हो गई ।
दुबकी ने भी अंतिम श्वास छोड़ दी । अगले जन्म में वह कृपण मथुरा के एक
ब्राहमण कुल में उत्पन्न हुआ और उसका नाम वीरभद्रप्पा रखा गया । उसकी
धर्मपत्नी उस मंदिर के पुजारी के घर कन्या होकर उत्पन्न हुई और उसका नाम
गौरी रखा गया । दुबकी पुरुष बनकर मंदिर के गुरव (सेवक) वंश में पैदा हुई और
उसका नाम चेनबसाप्पा रखा गया । पुजारी मेरा मित्र था और बहुधा मेरे पास
आता जाता, वार्तालाप करता और मेरे साथ चिलम पिया करता था । उसकी पुत्री
गौरी भी मेरी भक्त थी । वह दिनोंदिन सयानी होती जा रही थी, जिससे उसका पिता
भी उसके हाथ पीले करने की चिंता में रहता था । मैंने उससे कहा कि चिंता की
कोई आवश्यकता नहीं, वर स्वयं तुम्हारे घर लड़की की खोज में आ जायेगा । कुछ
दिनों के पश्चात् ही उसी की जाति का वीरभद्रप्पा नामक एक युवक भिक्षा
माँगते-माँगते उसके घर पहुँचा । मेरी सम्मति से गौरी का विवाह उसके साथ
सम्पन्न हो गया । पहले तो वह मेरा भक्त था, परन्तु अब वह कृतघ्न बन गया ।
इस नूतन जन्म में भी उसकी धन-तृष्णा नष्ट न हुई । उसने मुझसे कोई उघोग धंधा
सुझाने को कहा, क्योंकि इस समय वह विवाहित जीवन व्यतीत कर रहा था । तभी एक
विचित्र घटना हुई । अचानक ही प्रत्येक वस्तुओं के बाव ऊँचे चढ़ गये । गौरी
के भाग्य से जमीन की माँग अधिक होने लगी और समस्त भूमि एक लाख रुपयों में
आभूषणों के मूल्य से 100 गुना अधिक मूल्य में बिक गई । ऐसा निर्णय हुआ कि
50 हजार रुपये नगद और 2000 रुपये प्रतिवर्ष किश्त पर चुकता कर दिये जायेंगे
। सबको यह लेनदेन स्वीकार था, परन्तु धन में हिससे के कारण उनमें परस्पर
विवाद होने लगा । वे परामर्श लेने मेरे पास आये और मैंने कहा कि यह भूमि तो
भगवान् की है, जो पुजारी को सौंपी गई थी । इसकी स्वामिनी गौरी ही है और एक
पैसा भी उसकी इच्छा के विरुदृ खर्च करना उचित नहीं तथा उसके पति का इस पर
कोई अधिकार नहीं है । मेरे निर्णय को सुनकर वीरभद्रप्पा मुझसे क्रोधित होकर
कहने लगा कि तुम गौरी को फुसाकर उसका धन हड़पना चाहते हो । इन शब्दों को
सुनकर मैं बगवत् नाम लेकर चुप बैठ गया । वीरभद्र ने अपनी स्त्री को पीटा भी
। गौरी ने दोपहर के समय आकर मुझसे कहा कि आप उन लोगों के कहने का बुरा न
मानें । मैं तो आपकी लड़की हूँ । मुझ पर कृपादृष्टि ही रखें । वह इस प्रकार
मेरी सरण मे आई तो मैंने उसे वचन दे दिया कि मैं सात समुद्र पार कर भी
तुम्हारी रक्षा करुँगा । तब उस रात्रि को गौरी को एक दृष्टांत हुआ । महादेव
ने आकर कहा कि यह सब सम्पत्ति तुम्हारी ही है और इसमें से किसी को कुछ न
दो । चेनबसाप्पा की यह सलाह से कुछ राशि मंदिर के कार्य के लिये खर्च करो ।
यदि और किसी भी कार्य में तुम्हे खर्च करने की इच्छा हो तो मसजिद में जाकर
बाबा (स्वयं मैं) के परामर्श से करो । गौरी ने अपना दृष्टांत मुझे सुनाया
और मैंने इस विषय में उचित सलाह भी दी । मैंने उससे कहा कि मूलधन तो तुम
स्वयं ले लो और ब्याज की आधी रकम चेनबसाप्पा को दे दो । वीरभद्र का इसमें
कोई सम्बन्ध नहीं है । जब मैं यह बात कर ही रहा था, वीरभद्र और चेनबसाप्पा
दोनों ही वहाँ झगड़ते हुए आये । मैंने दोनों को शांत करने का प्रयत्न किया
और गौरी को हुआ महादेव का स्वप्न भी सुनाया । वीरभद्र क्रोध से उन्हत हो
गया और चेनबसाप्पा को टुकड़े-टुकड़े कर मार डालने की धमकी देने लगा ।
चेनबसाप्पा बड़ा डरपोक था । वह मेरे पैर पकड़कर रक्षा की प्रार्थना करने
लगा । तब मैंने शत्रु के पाश से उसका छुटकारा करा दिया । कुछ समय पश्चात्
ही दोनों की मृत्यु हो गई । वीरभद्र सर्प बना और चेनबसाप्पा मेंढ़क ।
चेनबासप्पा की पुकार सुनकर और अपने पूर्व वचन की स्मृति करके यहाँ आया और
इस तरह से उसकी रक्षा कर मैंने अपने वचन पूर्ण किये । संकट के समय भगवान्
दौड़कर अपने भक्त के पास जाते है । उसने मुझे यहाँ भेजकर चेनबसाप्पा की
रक्षा कराई । यह सब ईश्वरीय लीला ही है ।
शिक्षा
इस कथा की
यही शिक्षा है कि जो जैसा बोता है, वैसा ही काटता है, जब तक कि भोग पूर्ण
नहीं होते । पिछला ऋण और अन्य लोगों के साथ लेन-देन का व्यवहार जब तक पूर्ण
नहीं होता, तब तक छुटकारा भी संभव नहीं है । धनतृष्णा मनुष्य का पतन कर
देती है और अन्त में इससे ही वह विनाश को प्राप्त होता है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
Wednesday, 22 February 2012
Tuesday, 21 February 2012
Monday, 20 February 2012
महाशिवरात्रि
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
ॐ नमः शिवाय
महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है।
फाल्गुन
कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि
के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के
रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव
तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते
हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। तीनों भुवनों की
अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व
पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म,
गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा
माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले
शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान
करते हैं।
विधान
इस दिन शिवभक्त, शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाते, पूजन करते, उपवास करते तथा रात्रि को जागरण करते हैं। शिवलिंग पर बेल-पत्र चढ़ाना, उपवास तथा रात्रि जागरण करना एक विशेष कर्म की ओर इशारा करता है।
इस दिन शिव की शादी हुई थी इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमपिता परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। यहां रात्रि शब्द अज्ञान अन्धकार से होने वाले नैतिक पतन का द्योतक है। परमात्मा ही ज्ञानसागर है जो मानव मात्र को सत्यज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है।
विधि
इस दिन मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर ‘शिवलिंग’ पर चढ़ाया जाता है। अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसे पूजने का विधान है।
रात्रि को जागरण करके शिवपुराण का पाठ सुनना हरेक व्रती का धर्म माना गया है।
अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।
महाशिवरात्रि भगवान शंकर का सबसे पवित्र दिन है। यह अपनी आत्मा को पुनीत करने का महाव्रत है। इसके करने से सब पापों का नाश हो जाता है। हिंसक प्रवृत्ति बदल जाती है। निरीह जीवों के प्रति दया भाव उपज जाता है। ईशान संहिता में इसकी महत्ता का उल्लेख इस प्रकार किया गया है -
॥ शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापं प्रणाशनम्। आचाण्डाल मनुष्याणं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं ॥
विशेष
चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। अत: ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम शुभफलदायी कहा गया है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है।ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यन्त शुभ कहा गया हैं। शिव का अर्थ है कल्याण। शिव सबका कल्याण करने वाले हैं। अत: महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने से ही इच्छित सुख की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषीय गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। जिस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इससे कष्टों का सामना करना पड़ता है।
चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है। अत: चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का आश्रय लिया जाता है। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। अत: प्राय: ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं। शिव आदि-अनादि है। सृष्टि के विनाश व पुन:स्थापन के बीच की कड़ी है। प्रलय यानी कष्ट, पुन:स्थापन यानी सुख। अत: ज्योतिष में शिव को सुखों का आधार मान कर महाशिवरात्रि पर अनेक प्रकार के अनुष्ठान करने की महत्ता कही गई है।
शिकारी कथा
एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गांव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकार को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो।
शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़फ रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान् शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए'।
Sunday, 19 February 2012
MAHA SHIV RATRI FESTIVAL ON 20 FEBRUARY, 2012
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
ॐ सांई राम
Devo Ke Dev, Har Har Mahadev
Maha Shivaratri or Shivratri Utsav is a famous Hindu festival in honor
of Lord
Shiva, one of the Trimurtis in Hinduism. Sivaratri, which literally
means “Great Night of Shiva” or "Night of Siva”, is observed on the
13th night/14th day in the Krishna Paksha on the month of Phalgun
(February – March) in the Hindu Calendar. Mahashivaratri is celebrated
on the night before Amavasya, the night before and day of the new moon.
Maha Shivratri Legends
There are numerous interesting legends associated with Maha Shivaratri festival.
Maha Shivratri Legends
There are numerous interesting legends associated with Maha Shivaratri festival.
Rudra Tandav
According to Rudra Tandava, it was on the Shivaratri night Lord Shiva performed the ‘Tandava Nrithya’ – the cosmic dance of primeval creation, preservation and destruction.
Divine Wedding
Another popular legend is that, Shivrathri marks the divine wedding day of Parvathi Devi and Lord Shiva.
Linga Purana
According to Linga Purana, Lord Shiva manifested himself as the 12 Jyotirlingas (lingams of light) on Shivaratri Day.
Samudra Madhan
Maha Shivaratri is also associated with Samudra Manthan (the Churning of the Ocean), and this is one of the most popular legends associated with Sivaratri. Devas (Gods) and Asuras (Demons) churned the Ocean of Milk to get Amrit or Amrita (the nectar of immortality). While performing the Samudra Manthanam, a pot of highly toxic poison (Kalakuta or Halahal) came out of the ocean. Devas and Asuras were terrified seeing the poison as it was so toxic to destroy all creation. Lord Vishnu advised the Devas and Asuras to pray and seek help of Lord Shiva. Out of compassion for living beings, and leased with the prayers of devas and asuras, Lord Shiva drank the poison. Goddess Parvati was terrified seeing this and stopped the poison in Lord Shiva’s throat with her hands. The poison was so toxic that Shiva’s throat turned blue. Thus the name Neelakantha, which literally means “One who has Blue Throat”. Devas and Asuras started praying the whole night and Lord Shiva was pleased with their devotion and said whoever worships me on Shivaratri day will get all their wishes fulfilled.
According to Rudra Tandava, it was on the Shivaratri night Lord Shiva performed the ‘Tandava Nrithya’ – the cosmic dance of primeval creation, preservation and destruction.
Divine Wedding
Another popular legend is that, Shivrathri marks the divine wedding day of Parvathi Devi and Lord Shiva.
Linga Purana
According to Linga Purana, Lord Shiva manifested himself as the 12 Jyotirlingas (lingams of light) on Shivaratri Day.
Samudra Madhan
Maha Shivaratri is also associated with Samudra Manthan (the Churning of the Ocean), and this is one of the most popular legends associated with Sivaratri. Devas (Gods) and Asuras (Demons) churned the Ocean of Milk to get Amrit or Amrita (the nectar of immortality). While performing the Samudra Manthanam, a pot of highly toxic poison (Kalakuta or Halahal) came out of the ocean. Devas and Asuras were terrified seeing the poison as it was so toxic to destroy all creation. Lord Vishnu advised the Devas and Asuras to pray and seek help of Lord Shiva. Out of compassion for living beings, and leased with the prayers of devas and asuras, Lord Shiva drank the poison. Goddess Parvati was terrified seeing this and stopped the poison in Lord Shiva’s throat with her hands. The poison was so toxic that Shiva’s throat turned blue. Thus the name Neelakantha, which literally means “One who has Blue Throat”. Devas and Asuras started praying the whole night and Lord Shiva was pleased with their devotion and said whoever worships me on Shivaratri day will get all their wishes fulfilled.
This information is being broadcasted by Mr. Amit Gupta, Dwarka, New Delhi.
-: आज का साईं सन्देश :-
नाम उलट के देख ले,
दोनों ही हैं एक |
साईं में ईसा बसे,
ईसा साईं नेक ||
कई नाम हैं ब्रह्मा के,
सब साईं के नाम |
मन्दिर मस्जिद देख ले,
सब साईं के धाम ||
नाम उलट के देख ले,
दोनों ही हैं एक |
साईं में ईसा बसे,
ईसा साईं नेक ||
कई नाम हैं ब्रह्मा के,
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Saturday, 18 February 2012
Friday, 17 February 2012
Thursday, 16 February 2012
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 46
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
बाबा की गया यात्रा - बकरों की पूर्व जन्मकथा
इस अध्याय में शामा की काशी, प्रयाग व गया की यात्रा और बाबा किस प्रकार
वहाँ इनके पूर्व ही (चित्र के रुप में) पहुँच गये तथा दो बकरों के गत
जन्मों के इतिहास आदि का वर्णन किया गया है ।
प्रस्तावना
हे साई । आपके श्रीचरण धन्य है और उनका स्मरण कितना सुखदायी है । आपके भवभयविनाशक स्वरुप का दर्शन भी धन्य है, जिसके फलस्वरुप कर्मबन्धन छिन्नभिन्न हो जाते है । यघपि अब हमें आपके सगुण स्वरुप का दर्शन नहीं हो सकता, फिर भी यदि भक्तगण आपके श्रीचरणों में श्रद्घा रखें तो आप उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव दे दिया करते है । आप एक अज्ञात आकर्षण शक्ति द्घारा निकटस्थ या दूरस्थ भक्तों को अपने समीप खींचकर उन्हें एक दयालु माता की नाई हृदय से लगाते है । हे साई । भक्त नहीं जानते कि आपका निवास कहाँ है, परन्तु आप इस कुशलता से उन्हें प्रेरित करते है, जिसके परिणामस्वरुप भासित होने लगता है कि आपका अभय हस्त उनके सिर पर है और यह आपकी ही कृपा-दृष्टि का परिणाम है कि उन्हें अज्ञात सहायता सदैव प्राप्त होती रहती है । अहंकार के वशीभूत होकर उच्च कोटि के विद्घान और चतुर पुरुष भी इस भवसागर की दलदल में फँस जाते है । परन्तु हे साई । आप केवल अपनी शक्ति से असहाय और सुहृदय भक्तों को इस दलदल से उबारकर उनकी रक्षा किया करते है । पर्दे की ओट में छिपे रहकर आप ही तो सब न्याय कर रहे है । फिर भी आप ऐसा अभिनय करते है, जैसे उनसे आपका कोई सम्बन्ध ही न हो । कोई भी आप की संपूर्ण जीवन गाथा न जान सका । इसलिये यही श्रेयस्कर है कि हम अनन्य भाव से आपके श्रीचरणों की शरण में आ जायें और अपने पापों से मुक्त होने के लिये एकमात्र आपका ही नामस्मरण करते रहे । आप अपने निष्काम भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर उन्हें परमानन्द की प्राप्ति करा दिया करते है । केवल आपके मधुर नाम का उच्चारण ही भक्तों के लिये अत्यन्त सुगम पथ है । इस साधन से उनमें राजसिक और तामसिक गुणों का हिरास होकर सात्विक और धार्मिक गुणों का विकार होगा । इसके साथ ही साथ उन्हें क्रमशः विवेक, वैराग्य और ज्ञान की भी प्राप्ति हो जायेगी । तब उन्हें आत्मस्थित होकर गुरु से भी अभिन्नता प्राप्त होगी और इसका ही दूसरा अर्थ है गुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना । इसका निश्चित प्रमाण केवल यही है कि तब हमारा मन स्थिर और शांत हो जाता है । इस शरणागति, भक्ति और ज्ञान की मह्त्ता अद्घितीय है, क्योंकि इनके साथ ही शांति, वैराग्य, कीर्ति, मोक्ष इत्यादि की भी प्राप्ति सहज ही हो जाती है ।
यदि बाबा अपने भक्तों पर अनुग्रह करते है तो वे सदैव ही उनके समीप रहते है, चाहे भक्त कहीं भी क्योंन चला जाये, परन्तु वे तो किसी न किसी रुप में पहले ही वहाँ पहुँच जाते है । यह निम्नलिखित कथा से स्पष्ट है ।
गया यात्रा
बाबा से परिचय होने के कुछ काल पश्चात ही काकासाहेब रदीक्षित ने अपने
ज्येष्ठ पुत्र बापू का नागपुर में उपनयन संस्कार करने का निश्चय किया और
गभग उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर ने भी अपने ज्येष्ट पुत्र का ग्वालियार में
शादी करने का कार्यक्रम बनाया । दीक्षित और चांदोरकर दोनों ही शिरडी आये
और प्रेमपूर्वक उन्होंने बाबा को निमन्त्रण दिया । तब उन्होंने अपने
प्रतिनिधि शामा को ले जाने को कहा, परन्तु जब उन्होंने स्वयं पधारने के
लिये उनसे आग्रह किया तो उन्होंने उत्तर दिया कि बनारस और प्रयाग निकल जाने
के पश्चात, मैं शामा से पहले ही पहुँच जाऊँगा, पाठकगण । कृपया इन शब्दों
को ध्यान में रखें, क्योंकि ये शब्द बाबा की सर्वज्ञता के बोधक है ।
बाबा की आज्ञा प्राप्त कर शामा ने इन उत्सवों में सम्मिलित होने के
लिये प्रथम नागपुर, ग्वालियर और इसके पश्चात काशी, प्रयाग और गया जाने का
निश्चय किया । अप्पाकोते भी शामा के साथ जाने को तैयार हो गये । प्रथम तो
वे दोनों उपनयन संस्कार में सम्मिलित होने नागपुर पहुँचे । वहाँ काकासाहेब
दीक्षित ने शामा को दो सौ रुपये खर्च के निमित्त दिये । वहाँ से वे लोग
विवाह में सम्मिलित होनें ग्वालियर गये । वहाँ नानासाहेब चांदोरकर ने सौ
रुपये और उनके संबंधी श्री. जुठर ने भी सौ रुपये शामा को भेंट किये । फिर
शामा काशी पहुँचे, जहाँ जठार ने लक्ष्मी-नारायण जी के भव्य मंदिर में उनका
उत्तम स्वागत किया, अयोध्या में जठार के व्यवस्थापक ने भी शामा का अच्छा
स्वागत किया । शामा और कोते अयोध्या में 21 दिन तथा काशी (बनारस) में दो
मास ठहर कर फिर गया को रवाना हो गये । गया में प्लेग फैलने का समाचार
रेलगाड़ी में सुनकर इल नोगों को थोड़ी चिन्ता सी होने लगी । फिर भी रात्रि
को वे गया स्टेशन पर उतरे और एक धर्मशाला में जाकर ठहरे । प्रातःकाल गया
वाला पुजारी (पंडा), जो यात्रियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था किया करता
था, आया और कहने लगा कि सब यात्री तो प्रस्थान कर चुके है, इसलिये अब आप भी
शीघ्रता करे । शामा ने सहज ही उससे पूछा कि क्या गया में प्लेग फैला है ।
तब पुजारी ने कहा कि नहीं । आप निर्विघ्र मेरे यहाँ पधारकर वस्तुस्थिति का
स्वयं अवलोकन कर ले । तब वे उसके साथ उसके मकान पर पहुँचे । उसका मकान
क्या, एक विशाल महल था, जिसमें पर्याप्त यात्री विश्राम पा सकते थे । शामा
को भी उसी स्थान पर ठहराया गया, जो उन्हें अत्यन्त प्रिय लगा । बाबा का एक
बड़ा चित्र, जो कि मकान के अग्रिम बाग के ठीक मध्य में लगा था, देखकर वे
अति प्रसन्न हो गये । उनका हृदय भर आया और उन्हें बाबा के शब्दों की स्मृति
हो आई कि मैं काशी और प्रयाग निकल जाने के पश्चात शामा से आगे ही पहुँच
जाऊँगा । शामा की आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी और उनके शरीर में
रोमांच हो आया तथा कंठ रुँध गया और रोते-रोते उनकी घिग्घियाँ बँध गई ।
पुजारी ने शामा की जो ऐसी स्थिति देखी तो उसने सोचा कि यह व्यक्ति प्लेगी
की सूचना पर भयभीत होकर रुदन कर रहा है, परन्तु शामा ने उसी कल्पना के
विपरीत ही प्रश्न किया कि यह बाबा का चित्र तुम्हें कहाँ से मिला । उसने
उत्तर दिया कि मेरे दो-तीन सौ दलाल मनमाड और पुणताम्बे श्रेत्र में काम
करते है तथा उस क्षेत्र से गया आने वाले यात्रियों की सुविधा का विशेष
ध्यान रखा करते है । वहाँ शिरडी के साई महाराज की कीर्ति मुझे सुनाई पड़ी ।
लगभग बारह वर्ष हुए, मैंने स्वयं शिरडी जाकर बाबा के श्री दर्शन का लाभ
उठाया था और वहीं शामा के घर में लगे हुए उनके चित्र से मैं आकर्षित हुआ था
। तभी बाबा की आज्ञा से शामा ने जो चित्र मुझे भेंट किया था, यह वही चित्र
है । शामा की पूर्व स्मृति जागृत हो आई और जब गया वाले पुजारी को यह ज्ञात
हुआ कि ये वही शामा है, जिन्होंने मुझे इस चित्र द्घारा अनुगृहित किया था
और आज मेरे यहाँ अतिथि बनकर ठहरे है तो उसके आनन्द की सीमा न रही । दोनों
बड़े प्रेमपूर्वक मिलकर हर्षित हुए । फिर पुजारी ने शामा का बादशाही ढंग से
भव्य स्वागत किया । वह एक धनाढ़्य व्यक्ति था । स्वयं डोली में और शामा को
हाथी पर बिठाकर खूब घुमाया तथा हर प्रकार से उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखा
। इस कथा ने सिदृ कर दिया कि बाबा के वचन सत्य निकले । उनका अपने भक्तों
पर कितना स्नेह था, इसको तो छोड़ो । वे तो सब प्राणयों पर एक-सा प्रेम किया
करते थे और उन्हें अपना ही स्वरुप समझते थे । यह निम्नलिखित कथा से भी
विदित हो जायेगा ।
दो बकरे
एक बार जब बाबा लेंडी बाग से लौट रहे थे तो उन्होंने बकरों का एक झुंड आते देखा । उनमें से दो बकरों ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लिया । बाबा ने जाकर प्रेम-से उनका शरीर अपने हाथ से थपथपाया और उन्हें 32 रुपये में खरीद लिया । बाबा का यह विचित्र व्यवहार देखकर भक्तों को आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि बाबा तो इस सौदे में ठगा गया है, क्योंकि एक बकरे का मूल्य उस समय 3-4 रुपये से अधिक न था और वे दो बकरे अधिक से अधिक आठ रुपये में प्राप्त हो सकते थे ।
उन्होंने बाबा को कोसना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु बाबा शान्त बैठे रहे । जब शामा और तात्या ने बकरे मोल लेने का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे कोई घर या स्त्री तो है नही, जिसके लिये मुझे पैसे इकट्ठे करके रखना है । फिर उन्होंने चार सेर दाल बाजार से मँगाकर उन्हें खिलाई । जब उन्हें खिला-पिला चुके तो उन्होंने पुनः उनके मालिक को बकरे लौटा दिये । तत्पश्चात् ही उन्होने उन बकरों के पूर्वजन्मों की कथा इस प्रकार सुनाई । शामा और तात्या, तुम सोचते हो कि मैं इस सौदे में ठगा गया हूँ । परन्तु ऐसा नही, इनकी कथा सुनो । गत जन्म में ये दोनों मनुष्य थे और सौभाग्य से मेरे निकट संपर्क में थे । मेरे पास बैठते थे । ये दोनों सगे भाई थे और पहले इनमें परस्पर बहुत प्रेम था, परन्तु बाद में ये एक दूसरे के कट्टर शत्रु हो गये । बड़ा भाई आलसी था, किन्तु छोटा भाई बहुत परिश्रमी था, जिसने पर्याप्त धन उपार्जन कर लिया था, जससे बड़ा भाई अपने छोटे भाई से ईर्ष्या करने लगा । इसलिये उसने छोटे भाई की हत्या करके उसका धन हड़पने की ठानी और अपना आत्मीय सम्बन्ध भूलकर वे एक दूसरे से बुरी तरह झगड़ने लगे । बड़े भाई ने अनेक प्रत्यन किये, परन्तु वह छोटे भाई की हत्या में असफल रहा । तब वे एक दूसरे के प्राणघातक शत्रु बन गये । एक दिन बड़े भाई ने छोटे भाई के सिर पर लाठी से प्रहार किया । तब बदले में छोटे भाई ने भी बड़े भाई के सिर पर कुल्हा़ड़ी चलाई और परिणामस्वरुप वहीं दोनों की मृत्यु हो गई । फिर अपने कर्मों के अनुसार ये दोनों बकरे की योनि को प्राप्त हुये । जैसे ही वे मेरे समीप से निकले तो मुझे उनके पूर्व इतिहास का स्मरण हो आया और मुझे दया आ गई । इसलिये मैंने उन्हें कुछ खिलाने-पिलाने तथा सुख देने का विचार किया । यही कारण है कि मैंने इनके लिये पैसे खर्च किये, जो तुम्हें मँहगे प्रतीत हुए है । तुम लोगों को यह लेन-देन अच्छा नहीं लगा, इसलिये मैंने उन बकरों को गड़ेरिये को वापस कर दिया है । सचमुच बकरे जैसे सामान्य प्राणियों के लिये भी बाबा को बेहद प्रेम था ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
Wednesday, 15 February 2012
Tuesday, 14 February 2012
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
ॐ सांई राम
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
पर उसको ढूंढना है अपने अन्दर झांकना होगा,
तू दर उस वक़्त से जब दूर तक तू भागता होगा,
तेरे कर्मों का साया तेरा पीछा कर रहा होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
किसी के लब पे जब भी जिंदगी से कुछ गिला होगा,
तो साईं और उसके दरमियाँ इक फासला होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
उधर दुनियाँ की भट्टी है इधर साईं की ठंडक है,
उधर जाओ इधर आओ तुझे ये सोचना होगा
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
तेरे रब से कोई नेकी बुराई छुप नहीं सकती,
कोई देखे न देखे पर वो सब कुछ देखता होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
न जाने कब कहाँ वो खोल दे रहमत के दरवाज़े,
मगर इसके लिये दिन रात तुझको जागना होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
मुक़मल ज़ात है उसकी मुक़मल आस रख उस पर,
उसी ने दर्द बांटे हैं वो ही तेरी दवा होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
पर उसको ढूंढना है अपने अन्दर झांकना होगा,
पर उसको ढूंढना है अपने अन्दर झांकना होगा,
तू दर उस वक़्त से जब दूर तक तू भागता होगा,
तेरे कर्मों का साया तेरा पीछा कर रहा होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
किसी के लब पे जब भी जिंदगी से कुछ गिला होगा,
तो साईं और उसके दरमियाँ इक फासला होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
उधर दुनियाँ की भट्टी है इधर साईं की ठंडक है,
उधर जाओ इधर आओ तुझे ये सोचना होगा
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
तेरे रब से कोई नेकी बुराई छुप नहीं सकती,
कोई देखे न देखे पर वो सब कुछ देखता होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
न जाने कब कहाँ वो खोल दे रहमत के दरवाज़े,
मगर इसके लिये दिन रात तुझको जागना होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
मुक़मल ज़ात है उसकी मुक़मल आस रख उस पर,
उसी ने दर्द बांटे हैं वो ही तेरी दवा होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
कोई तेरा नहीं बस एक साईं आसरा होगा,
पर उसको ढूंढना है अपने अन्दर झांकना होगा,
-: आज का साईं सन्देश :-
यदि तू चाहे गुरु शरण,
उन्नत चाहे राह ।
श्रद्धा, धीरज साध ले,
बाबा पकडे बांह ।।
ख़ुशी मन हेमांड जी,
बाबा अनुमत पाय ।
मन श्रद्धा से साधकर,
साईं चरित लिखाय ।।
उन्नत चाहे राह ।
श्रद्धा, धीरज साध ले,
बाबा पकडे बांह ।।
ख़ुशी मन हेमांड जी,
बाबा अनुमत पाय ।
मन श्रद्धा से साधकर,
साईं चरित लिखाय ।।
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Monday, 13 February 2012
Sunday, 12 February 2012
Saturday, 11 February 2012
Friday, 10 February 2012
खुल जाए स्वर्ग के दरबार
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
ॐ सांई राम
दूर खड़ा तू देख रहा
सबके मन का भाव
पल भर में तू कर दे
पूरी मन की आस
आस बन जाती
दिल का एक अरमान
दिन की शुरुवात होती
लेकर तेरा नाम
तेरा नाम जप कर
दिल हो जाए मालामाल
तेरी किरपा से
खुल जाए स्वर्ग के दरबार
हर दरबार की चादर में
जड़े हुए है हीरे मोती
जिसकी चमक से
मिल जाती मन को मुक्ति
मन की मुक्ति पाकर
मिल जाए साईं का आशीष
आत्मा तृप्त हो जावे
मिल जावे दिल को आराम
दिल का आराम पाकर
धन्य हो जावे जीवन
जिसकी करूणा कथा को पढ़कर
दिल हो जावे बेकरार
बेकरार दिल एक ही गाथा गावे
जय साईंराम, जय-जय साईंराम
सबके मन का भाव
पल भर में तू कर दे
पूरी मन की आस
आस बन जाती
दिल का एक अरमान
दिन की शुरुवात होती
लेकर तेरा नाम
तेरा नाम जप कर
दिल हो जाए मालामाल
तेरी किरपा से
खुल जाए स्वर्ग के दरबार
हर दरबार की चादर में
जड़े हुए है हीरे मोती
जिसकी चमक से
मिल जाती मन को मुक्ति
मन की मुक्ति पाकर
मिल जाए साईं का आशीष
आत्मा तृप्त हो जावे
मिल जावे दिल को आराम
दिल का आराम पाकर
धन्य हो जावे जीवन
जिसकी करूणा कथा को पढ़कर
दिल हो जावे बेकरार
बेकरार दिल एक ही गाथा गावे
जय साईंराम, जय-जय साईंराम
-: आज का साईं सन्देश :-
पूछा जब इक भक्त ने,
बाबा अब कहँ जाय ।
बाबा जी ने कह दिया,
सीधे ऊपर जाय ।।
भक्त कहे फिर साईं से,
मार्ग समझ न आय ।
उसी भक्त को प्रेम से,
बाबा दें समझाय ।।
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Thursday, 9 February 2012
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 45
प्रस्तुतकर्ता :-
साईं का हनी
संदेह निवारण
प्रस्तावना
गत
तीन अध्यायों में बाबा के निर्वाण का वर्णन किया गया है । इसमें कोई
सन्देह नहीं कि अब बाबा का साकार स्वरुप लुप्त हो गया है, परन्तु उनका
निराकार स्वरुप तो सदैव ही विद्यमान रहेगा । अभी तक केवल उन्हीं घटनाओं और
लीलाओं का उल्लेख किया गया है, जो बाबा के जीवमकाल में घटित हुई थी । उनके
समाधिस्थ होने के पश्चात् भी अनेक लीलाएँ हो चुकी है और अभी भी देखने में आ
रही है, जिनसे यह सिदृ होता है कि बाबा अभी भी विद्यमान है और पूर्व की ही
भाँति अपने भक्तों को सहायता पहुँचाया करते है । बाबा के जीवन-काल में जिन
व्यक्तियों को उनका सानिध्य या सत्संग प्राप्त हुआ, यथार्थ में उनके भाग्य
की सराहना कौन कर सकता है । यदि किसी को फिर भी ऐंद्रिक और सांसारिक सुखों
से वैराग्य प्राप्त नहीं हो सका तो इस दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा
जा सकता है । जो उस समय आचरण में लाया जाना चाहिये था और अभी भी लाया जाना
चाहिये, वह है अनन्य भाव से बाबा की भक्ति । समस्त चेतनाओं,
इन्द्रिय-प्रवृतियों और मन को एकाग्र कर बाबा के पूजन और सेवा की ओर लगाना
चाहिये । कृत्रिम पूजन से क्या लाभ । यदि पूजन या ध्यानादि करने की ही
अभिलाषा है तो वह शुदृ मन और अन्तःकरण से होनी चाहिये ।
जिस
प्रकार पतिव्रता स्त्री का विशुदृ प्रेम अपने पति पर होता है, इस प्रेम की
उपमा कभी-कभी लोग शिष्य और गुरु के प्रेम से भी दिया करते है । परन्तु फिर
भी शिष्य और गुरु-प्रेम के समक्ष पतिव्रता का प्रेम फीका है और उसकी कोई
समानता नहीं की जा सकती । माता, पिता, भाई या अन्य सम्बन्धी जीवन का ध्येय
(आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करने में कोई सहायता नहीं पहुँचा सकते । इसके
लिये हमें स्वयं अपना मार्ग अन्वेषण कर आत्मानुभूति के पथ पर अग्रसर होना
पड़ता है । सत्य और असत्य में विवेक, इहलौकिक तथा पारलौकिक सुखों का त्याग,
इन्द्रियनिग्रह और केवल मोक्ष की धारणा रखते हुए अग्रसर होना पड़ता है ।
दूसरों पर निर्भर रहने के बदले हमें आत्मविश्वास बढ़ाना उचित है । जब हम इस
प्रकार विवेक-बुद्घि से कार्य करने का अभ्यास करेंगे तो हमें अनुभव होगा
कि यह संसार नाशवान् और मिथ्या है । इस प्रकार की धारणा से सांसारिक
पदार्थों में हमारी आसक्ति उत्तरोत्तर घटती जायेगी और अन्त में हमें उनसे
वैराग्य उत्पन्न हो जायेगा । तब कहीं आगे चलकर यह रहस्य प्रकट होगा कि
ब्रहृ हमारे गुरु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, वरन् यथार्थ में वे ही
सदवस्तु (परमात्मा) है और यह रहस्योदघाटन होता है कि यह दृश्यमान जगत् उनका
ही प्रतिबिम्ब है । अतः इस प्रकार हम सभी प्राणियों में उनके ही रुप का
दर्शन कर उनका पूजन करना प्रारम्भ कर देते है और यही समत्वभाव दृश्यमान
जगत् से विरक्ति प्राप्त करानेवाला भजन या मूलमंत्र है । इस प्रकार जब हम
ब्रहृ या गुरु की अनन्यभाव से भक्ति करेंगे तो हमें उनसे अभिन्नता की
प्राप्ति होगी और आत्मानुभूति की प्राप्ति सहज हो जायेगी । संक्षेप में यह
कि सदैव गुरु का कीर्तन और उनका ध्यान करना ही हमें सर्वभूतों में भगवत्
दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है और इसी से परमानंद की प्राप्ति होती
है । निम्नलिखित कथा इस तथ्य का प्रमाण है ।
काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न
यह तो सर्वविदित ही है कि बाबा ने काकासाहेब दीक्षित को श्री एकनाथ महाराज के दो ग्रन्थ
1.श्री मदभागवत और
2.भावार्थ रामायण
2.भावार्थ रामायण
का
नित्य पठन करने की आज्ञा दी थी । काकासाहेब इन ग्रन्थों का नियमपूर्वक पठन
बाबा के समय से करते आये है और बाबा के सम्धिस्थ होने के उपरान्त अभी भी
वे उसी प्रकार अध्ययन कर रहे । एक समय चौपाटी (बम्बई) में काकासाहेब
प्रातःकाल एकनाथी भागवत का पाठ कर रहे थे । माधवराव देशपांडे (शामा) और
काका महाजनी भी उस समय वहाँ उपस्थित थे तथा ये दोनों ध्यानपूर्वक पाठ श्रवण
कर रहे थे । उस समय 11वें स्कन्ध के द्घितीय अध्याय का वाचन चल रहा था,
जिसमें नवनाथ अर्थात् ऋषभ वंश के सिद्घ यानी कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुदृ,
पिप्पलायन, आविहोर्त्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन का वर्णन है, जिन्होंने
भागवत धर्म की महिमा राजा जनक को समझायी थी । राजा जनक ने इन नव-नाथों से
बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे और इन सभी ने उनकी शंकाओं का बड़ा सन्तोषजनक
समाधान किया था, अर्थात् कवि ने भागवत धर्म, हरि ने भक्ति की विशेषताएँ,
अतंरिक्ष ने माया क्या है, प्रबुदृ ने माया से मुक्त होने की विधि,
पिप्लायन ने परब्रहृ के स्वरुप, आविहोर्त्र ने कर्म के स्वरुप, द्रुमिल ने
परमात्मा के अवतार और उनके कार्य, चमस ने नास्तिक की मृत्यु के पश्चात् की
गति एवं करभाजन ने कलिकाल में भक्ति की पद्घतियों का यथाविधि वर्णन किया ।
इन सबका अर्थ यही था कि कलियुग में मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन
केवल हरिकीर्तन या गुरु-चरणों का चिंतन ही है । पठन समाप्त होने पर
काकसाहेब बहुत निराशापूर्ण स्वर में माधवराव और अन्य लोगों से कहने लगे कि
नवनाथों की भक्ति पदृति का क्या कहना है, परन्तु उसे आचरण में लाना कितना
दुष्कर है । नाथ तो सिदृ थे, परन्तु हमारे समान मूर्खों में इस प्रकार की
भक्ति का उत्पन्न होना क्या कभी संभव हो सकता है । अनेक जन्म धारण करने पर
भी वैसी भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती तो फिर हमें मोक्ष कैसे प्राप्त हो
सकेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे लिये तो कोई आशा ही नहीं है ।
माधवराव को यह निराशावादी धारणा अच्छी न लगी । व कहने लगे कि हमारा
अहोभाग्य है, जिसके फलस्वरुप ही हमें साई सदृश अमूल्य हीरा हाथ लग गया है,
तब फिर इस प्रकार का राग अलापना बड़ी निन्दनीय बात है । यदि तुम्हें बाबा
पर अटल विश्वास है तो फिर इस प्रकार चिंतित होने की आवश्यकता ही क्या है ।
माना कि नवनाथों की भक्ति अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ा और प्रबल होगी, परन्तु
क्या हम लोग भी प्रेम और स्नेहपूर्वक भक्ति नहीं कर रहे है । क्या बाबा ने
अधिकारपूर्ण वाणी में नहीं कहा है कि श्रीहरि या गुरु के नाम जप से मोक्ष
की प्राप्ति होती है । तब फिर भय और चिन्ता को स्थान ही कहाँ रह जाता है ।
परन्तु फिर भी माधवराव के वचनों से काकासाहेब का समाधान न हुआ । वे फिर भी
दिन भर व्यग्र और चिन्तित ही बने रहे । यह विचार उनके मस्तिष्क में बार-बार
चक्कर काट रहा था कि किस विधि से नवनाथों के समान भक्ति की प्राप्ति सम्भव
हो सकेगी ।
एक
महाशय, जिनका नाम आनन्दराव पाखाडे था, माधवराव को ढूँढते-ढूँढते वहाँ आ
पहुँचे । उस समय भागवत का पठन हो रहा था । श्री. पाखाडे भी माधवराव के समीप
ही जाकर बैठ गये और उनसे धीरे-धीरे कुछ वार्ता भी करने लगे । वे अपना
स्वप्न माधवराव को सुना रहे थे । इनकी कानाफूसी के कारण पाठ में विघ्न
उपस्थित होने लगा । अतएव काकासाहेब ने पाठ स्थगित कर माधवराव से पूछा कि
क्यों, क्या बात हो रही है । माधवराव ने कहा कि कल तुमने जो सन्देह प्रगट
किया था, यह चर्चा भी उसी का समाधान है । कल बाबा ने श्री. पाखाडे को जो
स्वप्न दिया है, उसे इनसे ही सुनो । इसमें बताया गया है कि विशेष भक्ति की
कोई आवश्यकता नही, केवल गुरु को नमन या उनका पूजन करना ही पर्याप्त है ।
सभी को स्वप्न सुनने की तीव्र उत्कंठा थी और सबसे अधिक काकासाहेब को । सभी
के कहने पर श्री. पाखाडे अपना स्वप्न सुनाने लगे, जो इस प्रकार है – मैंने
देखा कि मैं एक अथाह सागर में खड़ा हुआ हूँ । पानी मेरी कमर तक है और अचानक
ही जब मैंने ऊपर देखा तो साईबाबा के श्री-दर्शन हुए । वे एक रत्नजटित
सिंहासन पर विराजमान थे और उनके श्री-चरण जल के भीतर थे । यह सुन्र दृश्य
और बाबा का मनोहर स्वरुप देक मेरा चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ । इस स्वप्न को
भला कौन स्वप्न कह सकेगा । मैंने देखा कि माधवराव भी बाबा के समीप ही खड़े
है और उन्होंने मुझसे भावुकतापूर्ण शब्दों में कहा कि आनन्दराव । बाबा के
श्री-चरणों पर गिरो । मैंने उत्तर दिया कि मैं भी तो यही करना चाहता हूँ ।
परन्तु उनके श्री-चरण तो जल के भीतर है । अब बताओ कि मैं कैसे अपना शीश
उनके चरणों पर रखूँ । मैं तो निस्सहाय हूँ । इन शब्दों को सुनकर शामा ने
बाबा से कहा कि अरे देवा । जल में से कृपाकर अपने चरण बाहर निकालिये न ।
बाबा ने तुरन्त चरण बाहर निकाले और मैं उनसे तुरन्त लिपट गया । बाबा ने
मुझे यह कहते हुये आशीर्वाद दिया कि अब तुम आनंदपूर्वक जाओ । घबराने या
चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । अब तुम्हारा कल्याण होगा । उन्होंने
मुझसे यह भी कहा कि एक जरी के किनारों की धोती मेरे शामा को दे देना, उससे
तुम्हें बहुत लाभ होगा । बाबा की आज्ञा को पूर्ण करने के लिये ही श्री.
पाखाडे धोती लाये और काकासाहेब से प्रार्थना की कि कृपा करके इसे माधवराव
को दे दीजिये, परन्तु माधवराव ने उसे लेना स्वीकार नहीं किया । उन्होंने
कहा कि जब तक बाबा से मुझे कोई आदेश या अनुमति प्राप्त नहीं होती, तब तक
मैं ऐसा करने में असमर्थ हूँ । कुछ तर्क-वतर्क के पश्चात काका ने दैवी
आदेशसूचक पर्चियाँ निकालकर इस बात का निर्णय करने का विचार किया ।
काकासाहेब का यह नियम था कि जब उन्हें कोई सन्देह हो जाता तो वे कागज की दो
पर्चियों पर स्वीकार-अश्वीकार लिखकर उसमेंसे एक पर्ची निकालते थे और जो
कुछ उत्तर प्राप्त होता था, उसके अनुसार ही कार्य किया करते थे । इसका भी
निपटारा करने के लिये उन्होंने उपयुक्त विधि के अनुसार ही दो पर्चियाँ
लिखकर बाबा के चित्र के समक्ष रखकर एक अबोध बालक को उसमें से एक पर्ची
उठाने को कहा । बालक द्घारा उठाई गई पर्ची जब खोलकर देखी गई तो वह
स्वीकारसूचक पर्ची ही निकली और तब माधवराव को धोती स्वीकार करनी पड़ी । इस
प्रकार आनन्दराव और माधवराव सन्तुष्ट हो गये और काकासाहेब का भी सन्देह दूर
हो गया ।
इससे
हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अन्य सन्तों के वचनों का उचित आदर करना
चाहिये, परन्तु साथ ही साथ यह भी परम आवश्यक है कि हमें अपनी माँ अर्थात्
गुरु पर पूर्ण विश्वास रखस उनके आदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिये,
क्योंकि अन्य लोगों की अपेक्षा हमारे कल्याण की उन्हें अधिक चिन्ता है ।
बाबा
के निम्नलिखित वचनों को हृदयपटल पर अंकित कर लो – इस विश्व में असंख्य
सन्त है, परन्तु अपना पिता (गुरु) ही सच्चा पिता (सच्चा गुरु) है । दूसरे
चाहे कितने ही मधुर वचन क्यों न कहते हो, परन्तु अपना गुरु-उपदेश कभी नहीं
भूलना चाहिये । संक्षेप में सार यही है कि शुगृ हृदय से अपने गुरु से प्रेम
कर, उनकी शरण जाओ और उन्हें श्रद्घापूर्वक साष्टांग नमस्कार करो । तभी तुम
देखोगे कि तुम्हारे सम्मुख भवसागर का अस्तित्व वैसा ही है, जैसा सूर्य के
समक्ष अँधेरे का ।
बाबा की शयन शैया-लकड़ी का तख्ता
बाबा
अपने जीवन के पूर्वार्द्घ में एक लकड़ी के तख्ते पर शयन किया करते थे । वह
तख्ता चार हाथ लम्बा और एक बीता चौड़ा था, जिसके चारों कोनों पर चार
मिट्टी के जलते दीपक रखे जाया करते थे । पश्चात् बाबा ने उसके टुकड़े टुकडे
कर डाले थे । (जिसका वर्णन गत अध्याय 10 में हो चुका है ) । एक समय बाबा
उस पटिये की महत्ता का वर्णन काकासाहेब को सुना रहे थे, जिसको सुनकर
काकासाहेब ने बाबा से कहा कि यदि अभी भी आपको उससे विशेष स्नेह है तो मैं
मसजिद में एक दूसरी पटिया लटकाये देता हूँ । आप सूखपूर्वक उस पर शयन किया
करें । तब बाबा कहने लगे कि अब म्हालसापति को नीचे छोड़कर मैं ऊपर नहीं
सोना चाहता । काकासाहेब ने कहा कि यदि आज्ञा दें तो मैं एक और तख्ता
म्हालसापति के लिये भी टाँग दूँ ।
बाबा
बोले कि वे इस पर कैसे सो सकते है । क्या यह कोई सहज कार्य है जो उसके गुण
से सम्पन्न हो, वही ऐसा कार्य कर सकता है । जो खुले नेत्र रखकर निद्रा ले
सके, वही इसके योग्य है । जब मैं शयन करता हूँ तो बहुधा म्हालसापति को अपने
बाजू में बिठाकर उनसे कहता हूँ कि मेरे हृदय पर अपना हाथ रखकर देखते रहो
कि कहीं मेरा भगवज्जप बन्द न हो जाय और मुझे थोड़ा- सा भी निद्रित देखो तो
तुरन्त जागृत कर दो, परन्तु उससे तो भला यह भी नहीं हो सकता । वह तो स्वंय
ही झपकी लेने लगता है और निद्रामग्न होकर अपना सिर डुलाने लगता है और जब
मुझे भगत का हाथ पत्थर-सा भारी प्रतीत होने लगता है तो मैं जोर से पुकार कर
उठता हूँ कि ओ भगत । तब कहीं वह घबड़ा कर नेत्र खोलता है । जो पृथ्वी पर
अच्छी तरह बैठ और सो नहीं सकता तथा जिसका आसन सिदृ नहीं है और जो निद्रा का
दास है, वह क्या तख्ते पर सो सकेगा । अन्य अनेक अवसरों पर वे भक्तों के
स्नेहवश ऐसा कहा करते थे कि अपना अपने साथ और उसका उसके साथ ।
।। श्री सद्गुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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