ॐ सांई राम
न तो में चोरों को पकड़ पाया
न तो अपने भीतर के चोर को भगा पाया,
में तो अपनी मस्ती का मस्ताना था
बस नाच-गाने का दीवाना था,
पुलिस का डंडा चलाता था
अपना बाजा बजता था...
घूमते - घूमते मैंने तुमको पाया
लेकिन तुमको समझ न पाया
मैं चोरों के पीछे भागा पर न उनको पकड़ पाया
न अपने भीतर के चोर को भगा पाया,
तुम्हारा खेल भी, मेरी समझ न आया
घूम कर मैं तुम्हारे ही पास आया...
एक दिन मैंने तुमसे फ़रमाया
प्रयाग स्नान को जाना है
उसमें डूबकी लगा
अपना जीवन सफल बनाना है,
बाबा... तुम बोले, अब कहाँ जाओगे
गंगा-जमुना यहीं पाओगे,
यह कहना था
तुम्हारे चरणों से गंगा-जमुना निकली
लोगों ने उस जल को उठाया
अपनी आँखे, अपनी जिह्वा
अपने ह्रदय से उसे लगाया
लेकिन तुम्हारा यह खेल
मेरी समझ न आया
उस दिन मैंने तुम्हारा प्यार
बस यूँ ही गवायाँ ...
बाबा ... न तो मैं चोरों को पकड़ पाया
न ही अपना चोर भगा पाया,
लेकिन बाद में बहुत पछताया
मेरा विश्वास डगमगाया था
मेरा सब्र थरथराया था,
फिर भी तुमने हिम्मत न हारी
अपने प्यार से सारी बाज़ी पलट डाली
मुझ पर अपना प्यार बरसाया
मुझे साईं लीलामृत का पान कराया
सद्गुरु... तुम्हारा यह खेल मेरी समझ न आया
तुमने ही तो
मेरे भीतर के चोर को भगाया...