ॐ श्री साँईं राम जी
जब श्रीभरतजीके मामा युधाजित् श्रीभरतजीको अपने साथ ले जा रहे थे, तब श्रीशत्रुघ्नजी भी उनके साथ ननिहाल चले गये| इन्होंने माता-पिता, भाई, नवविवाहिता पत्नी सबका मोह छोड़कर श्रीभरतजीके साथ रहना और उनकी सेवा करना ही अपना कर्तव्य मान लिया था| भरतजीके साथ ननिहालसे लौटनेपर पिताके मरण और लक्ष्मण, सीतासहित श्रीरामके वनवासका समाचार सुनकर इनका हृदय दुःख और शोकसे व्याकुल हो गया| उसी समय इन्हें सूचना मिली कि जिस क्रूरा पापिनीके षड्यन्त्रसे श्रीरामका वनवास हुआ, वह वस्त्राभूषणोंसे सज-धजकर खड़ी है, तब ये क्रोधसे व्याकुल हो गये| ये मन्थराकी चोटीपकड़कर उसे आँगनमें घसीटने लगे| इनके लातके प्रहारसे उसका कूबर टूट गया और सिर फट गया| उसकी दशा देखकर श्रीभरतजीको दया आ गयी और उन्होंने उसे छुड़ा दिया| इस घटनासे श्रीशत्रुघ्नजीकी श्रीरामके प्रति दृढ़ निष्ठा और भक्तिका परिचय मिलता है|
चित्रकूटसे श्रीराम पादुकाएँ लेकर लौटते समय जब श्रीशत्रुघ्नजी श्रीरामसे मिले, तब इनके तेज स्वभावको जानकर भगवान् श्रीरामने कहा - 'शत्रुघ्न! तुम्हें मेरी और सीताकी शपथ है, तुम माता कैकेयीकी सेवा करना, उनपर कभी भी क्रोध मत करना|'
श्रीशत्रुघ्नजीका शौर्य भी अनुपम था| सीता-वनवासके बाद एक दिन ऋषियोंने भगवान् श्रीरामकी सभामें उपस्थित होकर लवणासुरके अत्याचारोंका वर्णन किया और उसका वध करके उसके अत्याचारोंसे मुक्ति दिलानेकी प्रार्थना की| श्रीशत्रुघ्नजीने भगवान् श्रीरामकी आज्ञासे वहाँ जाकर प्रबल पराक्रमी लवणासुरका वध किया और मथुरापुरी बसाकर वहाँ बहुत दिनोंतक शासन किया|
भगवान् श्रीरामके परमधाम पधारनेके समय मथुरामें अपने पुत्रोंका राज्याभिषेक करके श्रीशत्रुघ्नजी अयोध्या पहुँचे| श्रीरामके पास आकर और उनके चरणोंमें प्रणाम करके इन्होंने विनीत भावसे कहा - 'भगवन्! मैं अपने दोनों पुत्रोंका राज्याभिषेक करके आपके साथ चलनेका निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ| आप अब मुझे कोई दूसरी आज्ञा न देकर अपने साथ चलनेकी अनुमति प्रदान करें|' भगवन् श्रीरामने शत्रुघ्नजीकी प्रार्थना स्वीकार की और वे श्रीरामचन्द्रके साथ ही साकेत पधारे|