दामू अण्णा कासार-अहमदनगर के रुई और अनाज के सौदे, आम्र-लीला, प्रार्थना
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प्राक्कथन
जो अकारण ही सभी पर दया करते
है तथा समस्त प्राणियों के जीवन व आश्रयदाता है, जो परब्रह्म के पूर्ण
अवतार है, ऐसे अहेतुक दयासिन्धु और महान् योगिराज के चरणों में साष्टांग
प्रणाम कर अब हम यह अध्याय आरम्भ करते है ।
श्री साई की जय हो ! वे सन्त
चूड़ामणि, समस्त शुभ कार्यों के उदगम स्थान और हमारे आत्माराम तथा भक्तों
के आश्रयदाता है । हम उन साईनाथ की चरण-वन्दना करते है, जिन्होंने अपने
जीवन का अन्तिम ध्येय प्राप्त कर लिया है ।
श्री साईबाबा अनिर्वचनीय
प्रेमस्वरुप है । हमें तो केवल उनके चरणकमलों में दृढ़ भक्ति ही रखनी
चाहिये । जब भक्त का विश्वास दृढ़ और भक्ति परिपक्क हो जाती है तो उसका
मनोरथ भी शीघ्र ही सफल हो जाता है । जब हेमाडपंत को साईचरित्र तथा साई
लीलाओं के रचने की तीव्र उत्कंठा हुई तो बाबा ने तुरन्त ही वह पूर्ण कर दी ।
जब उन्हें स्मृति-पत्र (Notes) इत्यादि रखने की आज्ञा हुई तो हेमाडपंत में
स्फूर्ति, बुद्घिमत्ता, शक्ति तथा कार्य करने की क्षमता स्वयं ही आ गई ।
वे कहते है कि मैं इस कार्य के सर्वदा अयोग्य होते हुए भी श्री साई के
शुभार्शीवाद से इस कठिन कार्य को पूर्ण करने में समर्थ हो सका । फलस्वरुप
यह ग्रन्थ 'श्री साई सच्चरित्र' आप लोगों को उपलब्ध हो सका, जो एक निर्मल
स्त्रोत या चन्द्रकान्तमणि के ही सदृश है, जिसमें से सदैव साई-लीलारुपी
अमृत झरा करता है, ताकि पाठकगण जी भर कर उसका पान करें ।
जब भक्त पूर्ण अन्तःकरण से
श्री साईबाबा की भक्ति करने लगता है तो बाबा उसके समस्त कष्टों और
दुर्भाग्यों को दूर कर स्वयं उसकी रक्षा करने लगते है । अहमदनगर के श्री
दामोदर साँवलराम रासने कासार की निम्नलिखित कथा उपयुक्त कथन की पुष्टि करती
है ।
दामू अण्णा
पाठकों को स्मरण होगा कि इन
महाशय का प्रसंग छठवें अध्याय में शिरडी के रामनवमी उत्सव के प्रसंग में आ
चुका है । ये लगभग सन् 1895 में शिरडी पधारे थे, जब कि रामनवमी उत्सव का
प्रारम्भ ही हुआ था और उसी समय से वे एक जरीदार बढ़िया ध्वज इस अवसर पर
भेंट करते तथा वहाँ एकत्रित गरीब भिक्षुओं को भोजनादि कराया करते थे ।
दामू अण्णा के सौदे
1. रुई का सौदा
दामू अण्णा को बम्बई से उनके
एक मित्र ने लिखा कि वह उनके साथ साझेदारी में रुई का सौदा करना चाहते है,
जिसमें लगभग दो लाख रुपयों का लाभ होने की आशा है । सन् 1936 में नरसिंह
स्वामी को दिये गये एक वक्तव्य में दामू अण्णा ने बतलाया कि रुई के सौदे का
यह प्रस्ताव बम्बई के एक दलाल ने उनसे किया था, जो कि साझेदारी से हाथ
खींचकर मुझ पर ही सारा भार छोड़ने वाला था । (भक्तों के अनुभव भाग 11,
पृष्ठ 75 के अनुसार) । दलाल ने लिखा था कि धंधा अति उत्तम है और हानि की
कोई आशंका नहीं । ऐसे स्वर्णिम अवसर को हाथ से न खोना चाहिए । दामू अण्णा
के मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठ रहे थे, परन्तु स्वयं कोई
निर्णय करने का साहस वे न कर सके । उन्होंने इस विषय में कुछ विचार तो
अवश्य कर लिया, परन्तु बाबा के भक्त होने के कारण पूर्ण विवरण सहित एक पत्र
शामा को लिख भेजा, जिसमें बाबा से परामर्श प्राप्त करने की प्रार्थना की ।
यह पत्र शामा को दूसरे ही दिन मिल गया, जिसे दोपहर के समय मस्जिद में जाकर
उन्होंने बाबा के समक्ष रख दिया । शामा से बाबा ने पत्र के सम्बन्ध में
पूछताछ की । उत्तर में शामा ने कहा कि "अहमदनगर के दामू अण्णा कासार आपसे
कुछ आज्ञा प्राप्त करने की प्रार्थना कर रहे है ।" बाबा ने पूछा कि "वह इस
पत्र में क्या लिख रहा है और उसने क्या योजना बनाई है? मुझे तो ऐसा प्रतीत
होता है कि वह आकाश को छूना चाहता है । उसे जो कुछ भी भगवत्कृपा से प्राप्त
है, वह उससे सन्तुष्ट नहीं है । अच्छा, पत्र पढ़कर तो सुनाओ ।" शामा ने
कहा, "जो कुछ आपने अभी कहा, वही तो पत्र में भी लिखा हुआ है । हे देवा ! आप
यहाँ शान्त और स्थिर बैठे रहकर भी भक्तों को उद्घिग्न कर देते है और जब वे
अशान्त हो जाते है तो आप उन्हें आकर्षित कर, किसी को प्रत्यक्ष तो किसी को
पत्रों द्वारा यहाँ खींच लेते है । जब आपको पत्र का आशय विदित ही है तो
फिर मुझे पत्र पढ़ने का क्यों विवश कर रहे है?" बाबा कहने लगे कि "शामा !
तुम तो पत्र पढ़ो । मै तो ऐसे ही अनापशनाप बकता हूँ । मुझ पर कौन विश्वास
करता है?" तब शामा ने पत्र पढ़ा और बाबा उसे ध्यानपूर्वक सुनकर चिंतित हो
कहने लगे कि "मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सेठ (दामू अण्णा) पागल हो गया है ।
उसे लिख दो कि उसके घर किसी वस्तु का अभाव नहीं है । इसलिये उसे आधी रोटी
में ही सन्तोष कर लाखों के चक्कर से दूर ही रहना चाहिये ।" शामा ने उत्तर
लिखकर भेज दिया, जिसकी प्रतीक्षा उत्सुकतापूर्वक दामू अण्णा कर रहे थे ।
पत्र पढ़ते ही लाखों रुपयों के लाभ होने की उनकी आशा पर पानी फिर गया ।
उन्हें उस समय ऐसा विचार आया कि बाबा से परामर्श कर उन्होंने भूल की है ।
परन्तु शामा ने पत्र में संकेत कर दिया था कि "देखने और सुनने में फर्क
होता है । इसलिये श्रेयस्कर तो यही होगा कि स्वयं शिरडी आकर बाबा की आज्ञा
प्राप्त करो ।" बाबा से स्वयं अनुमति लेना उचित समझकर वे शिरडी आये । बाबा
के दर्शन कर उन्होंने चरण सेवा की । परन्तु बाबा के सम्मुख सौदे वाली बात
करने का साहस वे न कर सके । उन्होंने संकल्प किया कि यदि उन्होंने कृपा कर
दी तो इस सौदे में से कुछ लाभाँश उन्हें भी अर्पण कर दूँगा । यद्यपि यह
विचार दामू अण्णा बड़ी गुप्त रीति से अपने मन में कर रहे थे तो भी
त्रिकालदर्शी बाबा से क्या छिपा रह सकता था? बालक तो मिष्ठान मांगता है,
परन्तु उसकी माँ उसे कड़वी ही औषधि देती है, क्योंकि मिठाई स्वास्थ्य के
लिये हानिकारक होती है और इस कारण वह बालक के कल्याणार्थ उसे समझा-बुझाकर
कड़वी औषधि पिला दिया करती है । बाबा एक दयालु माँ के समान थे । वे अपने
भक्तों का वर्तमान और भविष्य जानते थे । इसलिये उन्होंने दामू अण्णा के मन
की बात जानकर कहा कि "बापू ! मैं अपने को इस सांसारिक झंझटों में फँसाना
नहीं चाहता ।" बाबा की अस्वीकृति जानकर दामू अण्णा ने यह विचार त्याग दिया ।
2. अनाज का सौदा
तब उन्होंने अनाज, गेहूँ,
चावल आदि अन्य वस्तुओं का धन्धा आरम्भ करने का विचार किया । बाबा ने इस
विचार को भी समझ कर उनसे कहा कि तुम रुपये का 5 सेर खरीदोगे और 7 सेर को
बेचोगे । इसलिये उन्हें इस धन्धे का भी विचार त्यागना पड़ा । कुछ समय तक तो
अनाजों का भाव चढ़ता ही गया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि संभव है, बाबा की
भविष्यवाणी असत्य निकले । परन्तु दो-एक मास के पश्चात् ही सब स्थानों में
पर्याप्त वृष्टि हुई, जिसके फलस्वरुप भाव अचानक ही गिर गये और जिन लोगों ने
अनाज संग्रह कर लिया था, उन्हें यथेष्ठ हानि उठानी पड़ी । पर दामू अण्णा
इस विपत्ति से बच गये । यह कहना व्यर्थ न होगा कि रुई का सौदा, जो कि उस
दलाल ने अन्य व्यापारी की साझेदारी में किया था, उसमें उसे अधिक हानि हुई ।
बाबा ने उन्हें बड़ी विपत्तियों से बचा लिया है, यह देखकर दामू अण्णा का
साईचरणों में विश्वास दृढ़ हो गया और वे जीवनपर्यन्त बाबा के सच्चे भक्त
बने रहे ।
आम्रलीला
एक बार गोवा के एक मामलतदार
ने, जिनका नाम राले था, लगभग 300 आमों का एक पार्सल शामा के नाम शिरडी भेजा
। पार्सल खोलने पर प्रायः सभी आम अच्छे निकले । भक्तों में इनके वितरण का
कार्य शामा को सौंपा गया । उनमें से बाबा ने चार आम दामू अण्णा के लिये
पृथक् निकाल कर रख लिये । दामू अण्णा की तीन स्त्रियाँ थी । परन्तु अपने
दिये हुये वक्तव्य में उन्होंने बतलाया था कि उनकी केवल दो ही स्त्रियाँ थी
। वे सन्तानहीन थे, इस कारण उन्होंने अनेक ज्योतिषियों से इसका समाधान
कराया और स्वयं भी ज्योतिष शास्त्र का थोड़ा सा अध्ययन कर ज्ञात कर लिया कि
जन्म कुण्डली में एक पापग्रह के स्थित होने के कारण इस जीवन में उन्हें
सन्तान का मुख देखने का कोई योग नहीं है । परन्तु बाबा के प्रति तो उनकी
अटल श्रद्घा थी । पार्सल मिलने के दो घण्टे पश्चात् ही वे पूजनार्थ मस्जिद
में आये । उन्हें देख कर बाबा कहने लगे कि लोग आमों के लिये चक्कर काट रहे
है, परन्तु ये तो दामू के है । जिसके है, उन्हीं को खाने और मरने दो । इन
शब्दों को सुन दामू अण्णा के हृदय पर वज्राघात सा हुआ, परन्तु म्हालसापति
(शिरडी के एक भक्त) ने उन्हें समझाया कि इस 'मृत्यु' श्ब्द का अर्थ अहंकार
के विनाश से है और बाबा के चरणों की कृपा से तो वह आशीर्वादस्वरुप है, तब
वे आम खाने को तैयार हो गये । इस पर बाबा ने कहा कि "वे तुम न खाओ, उन्हें
अपनी छोटी स्त्री को खाने दो । इन आमों के प्रभाव से उसे चार पुत्र और चार
पुत्रियाँ उत्पन्न होंगी ।" यह आज्ञा शिरोधार्य कर उन्होंने वे आम ले जाकर
अपनी छोटी स्त्री को दिये । धन्य है श्री साईबाबा की लीला, जिन्होने
भाग्य-विधान पलट कर उन्हें सन्तान-सुख दिया । बाबा की स्वेच्छा से दिये वचन
सत्य हुये, ज्योतिषियों के नहीं ।
बाबा के जीवन काल में उनके
शब्दों ने लोगों में अधिक विश्वास और महिमा स्थापित की, परन्तु महान्
आश्चर्य है कि उनके समाधिस्थ होने के उपरान्त भी उनका प्रभाव पूर्ववत् ही
है । बाबा ने कहा कि "मुझ पर पूर्ण विश्वास रखो । यद्यपि मैं देहत्याग भी
कर दूँगा, परन्तु फिर भी मेरी अस्थियाँ आशा और विश्वास का संचार करती
रहेंगी । केवल मैं ही नही, मेरी समाधि भी वार्तालाप करेगी, चलेगी, फिरेगी
और उन्हें आशा का सन्देश पहुँचाती रहेगी, जो अनन्य भाव से मेरे शरणागत
होंगे । निराश न होना कि मैं तुमसे विदा हो जाऊँगा । तुम सदैव मेरी
अस्थियों को भक्तों के कल्याणार्थ ही चिंतित पाओगे । यदि मेरा निरन्तर
स्मरण और मुझ पर दृढ़ विश्वास रखोगे तो तुम्हें अधिक लाभ होगा ।"
प्रार्थना
एक प्रार्थना कर हेमाडपंत यह अध्याय समाप्त करते है ।
"हे साई सदगुरु ! भक्तों के
कल्पतरु ! हमारी आपसे प्रार्थना है कि आपके अभय चरणों की हमें कभी विस्मृति
न हो । आपके श्री चरण कभी भी हमारी दृष्टि से ओझल न हों । हम इस
जन्म-मृत्यु के चक्र से संसार में अधिक दुखी है । अब दयाकर इस चक्र से
हमारा शीघ्र उद्घार कर दो । हमारी इन्द्रियाँ, जो विषय-पदार्थों की ओर
आकर्षित हो रही है, उनकी बाह्य प्रवृत्ति से रक्षा कर, उन्हें अंतर्मुखी
बना कर हमें आत्म-दर्शन के योग्य बना दो । जब तक हमारी इन्द्रयों की
बहिमुर्खी प्रवृत्ति और चंचल मन पर अंकुश नहीं है, तब तक आत्मसाक्षात्कार
की हमें कोई आशा नहीं है । हमारे पुत्र और मित्र, कोई भी अन्त में हमारे
काम न आयेंगे । हे साई ! हमारे तो एकमात्र तुम्हीं हो, जो हमें मोक्ष और
आनन्द प्रदान करोगे । हे प्रभु! हमारी तर्कवितर्क तथा अन्य कुप्रवृत्तियों
को नष्ट कर दो । हमारी जिव्हा सदैव तुम्हारे नामस्मरण का स्वाद लेती रहे ।
हे साई! हमारे अच्छे बुरे सब प्रकार के विचारों को नष्ट कर दो । प्रभु! कुछ
ऐसा कर दो कि जिससे हमें अपने शरीर और गृह में आसक्ति न रहे । हमारा
अहंकार सर्वथा निर्मूल हो जाय और हमें एकमात्र तुम्हारे ही नाम की स्मृति
बनी रहे तथा शेष सबका विस्मरण हो जाय । हमारे मन की अशान्ति को दूर कर, उसे
स्थिर और शान्त करो । हे साई! यदि तुम हमारे हाथ अपने हाथ में ले लोगे तो
अज्ञानरुपी रात्रि का आवरण शीघ्र दूर हो जायेगा और हम तुम्हारे
ज्ञान-प्रकाश में सुखपूर्वक विचरण करने लगेंगे । यह जो तुम्हारा लीलामृत
पान करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ तथा जिसने हमें अखण्ड निद्रा से
जागृत कर दिया है, यह तुम्हारी ही कृपा और हमारे गत जन्मों के शुभ कर्मों
का ही फल है ।"
विशेष:
इस सम्बन्ध में श्री. दामू
अण्णा के उपरोक्त कथन को उद्घत किया जाता है, जो ध्यान देने योग्य है – "एक
समय जब मैं अन्य लोगों सहित बाबा के श्रीचरणों के समीप बैठा था तो मेरे मन
में दो प्रश्न उठे ।" उन्होंने उनका उत्तर इस प्रकार दिया ।
जो जनसमुदाय श्री साई के
दर्शनार्थ शिरडी आता है, क्या उन सभी को लाभ पहुँचता है ? इसका उन्होंने
उत्तर दिया कि "बौर लगे आम वृक्ष की ओर देखो । यदि सभी बौर फल बन जायें तो
आमों की गणना भी न हो सकेगी । परन्तु क्या ऐसा होता है ? बहुत-से बौर झर कर
गिर जाते है । कुछ फले और बढ़े भी तो आँधी के झकोरों से गिरकर नष्ट हो
जाते है और उनमें से कुछ ही शेष रह जाते है ।
दूसरा प्रश्न मेरे स्वयं के
विषय में था । यदि बाबा ने निर्वाण ले लिया तो मैं बिलकुल ही निराश्रित हो
जाऊँगा, तब मेरा क्या होगा? इसका बाबा ने उत्तर दिया कि "जब और जहाँ भी तुम
मेरा स्मरण करोगे, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा ।" इन वचनों को उन्होंने
सन् 1918 के पूर्व भी निभाया है और सन् 1918 के पश्चात आज भी निभा रहे है ।
वे अभी भी मेरे ही साथ रहकर मेरा पथ-प्रदर्शन कर रहे है । यह घटना लगभग
सन् 1910-11 की है । "उसी समय मेरा भाई मुझसे पृथक हुआ और मेरी बहन की
मृत्यु हो गई । मेरे घर में चोरी हुई और पुलिस जाँच-पड़ताल कर रही थी ।
इन्हीं सब घटनाओं ने मुझे पागल-सा बना दिया था ।"
"मेरी बहन का स्वर्गवास होने
के कारण मेरे दुःख का पारावार न रहा और जब मैं बाबा की शरण गया तो
उन्होंने अपने मधुर उपदेशों से मुझे सान्तवना देकर अप्पा कुलकर्णी के घर
पूरणपोली खिलाई तथा मेरे मस्तक पर चन्दन लगाया ।"
"जब मेरे घर चोरी हुई और
मेरे ही एक तीसवर्षीय मित्र ने मेरी स्त्री के गहनों का सन्दूक, जिसमें
मंगलसूत्र और नथ आदि थे, चुरा लिये, तब मैंने बाबा के चित्र के समक्ष रुदन
किया और उसके दूसरे ही दिन वह व्यक्ति स्वयं गहनों का सन्दूक मुझे लौटाकर
क्षमा-प्रार्थना करने लगा ।"
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।