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शिर्डी से सीधा प्रसारण ,... "श्री साँई बाबा संस्थान, शिर्डी " ... के सौजन्य से... सीधे प्रसारण का समय ... प्रात: काल 4:00 बजे से रात्री 11:15 बजे तक ... सीधे प्रसारण का इस ब्लॉग पर प्रसारण केवल उन्ही साँई भक्तो को ध्यान में रख कर किया जा रहा है जो किसी कारणवश बाबा जी के दर्शन नहीं कर पाते है और वह भक्त उससे अछूता भी नहीं रहना चाहते,... हम इसे अपने ब्लॉग पर किसी व्यव्सायिक मकसद से प्रदर्शित नहीं कर रहे है। ...ॐ साँई राम जी...

Friday, 30 September 2011

साईं माँ

साईं माँ
  

हम ने न जाना  क्या  होती  है माँ,

दर्द हमे होता है तो रोती है माँ |

ख़ुश हम हों तो सकून से सोती है माँ,

जो हमारी ज़िन्दगी को संवार दे,

जो हम पे  सारी  खुशियाँ  निसार दे,

जो सब कुछ छोड़ के हमें प्यार दे,

सागर का वो अनमोल मोती है माँ |

कदर कर लो ऐ नादानों माँ की जन्नत में,

हम से पहले दाख़िल होती है माँ |

मुझ को अपना दास बना लो ............

ॐ साईं राम


ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे, तुझ बिन काटे कौन ओ साईं मेरे दुखों के घेरे |
ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे, ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे |
मुझ को अपना दास बना लो, दर दर की ठोकर से बचा लो |
मैं हूँ ज़माने का ठुकराया, मुझ पे करो करुणा की छाया |
         मेरे दिन भी फेरो साईं, लाखों के दिन फेरे |
ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे, ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे |
न मांगूं मैं चांदी सोना,  मुझ को नहीं दौलत का रोना |
बस इतनी सी अर्ज़ सुनो ना, दे दो चरणों में इक कोना |
ज्ञान की ज्योत जला दो मन में, कर दो दूर अंधरे |
ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे, ओ साईं मेरे आन पड़ा दर तेरे |





 






खुदा ने यूँ नवाज़ा है .........

ॐ साईं राम
                                                                           

साईं तेरी " कमी " भी है, तेरा " एहसास " भी है....

साईं तू " दूर " भी है मुझसे पर " पास " भी  है......

 
खुदा ने यूँ  नवाज़ा है तेरी " भक्ति " से मुझको कि....

खुदा का " शुक्र " भी है और खुद पे " नाज़ " भी  है | 

माँ चंद्रघंटा

पिंडजप्रवरारूढ़ा   चंडकोपास्त्रकैयुर्ता |
प्रसादं तनुते महा चन्द्रघंटेती विश्रुता ||

 माँ दुर्गा जी की तीसरी शक्ति का नाम 'चंद्रघंटा' है | नवरात्रि-उपासना में तीसरे दिन इन्ही के विग्रह का पूजन आराधन किया जाता है | इनका यह स्वरूप परम शक्तिदायक और कल्याणकारी है | इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है | इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है | इसके शरीर का रंग स्वर्ण के सामान चमकीला है | इनके दस हाथ है | इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शास्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं | इनका वाहन सिंह है | इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उधयत रहने वाली होती है | इनके घंटे की-सी भयानक चंडध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य-राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं |  

Thursday, 29 September 2011

जा को राखे साईयाँ मार सके न कोय

ॐ सांई राम




जा को राखे साईयाँ मार सके न कोय
बाल न बाका कर सके जो जग बैरी होय

बाबा मेरी रक्षा करना
साईं मेरी रक्षा करना
राह तुम्हारी देख देख मेरी अँखियाँ भर भर आई
अब तो दर्शन देदों बाबा ओ शिरडी के साईं
ओ शिरडी के साईं.ओ शिरडी के साईं
बाबा मेरी रक्षा करना
साईं मेरी रक्षा करना
बच्चों की कर देखभाल साईं बच्चों का कर ध्यान
बच्चे आखिर बच्चे है तूं साईं दीनदयाल
तूं साईं दीनदयाल.तूं साईं दीनदयाल
बाबा मेरी रक्षा करना
साईं मेरी रक्षा करना


मैं तो हूँ मज़बूर साईं है तेरी क्या मजबूरी
हाथ पकड़ लो शरण में लेलो कर दो आशा पूरी
कर दो आशा पूरी.साईं कर दो आशा पूरी
बाबा मेरी रक्षा करना
साईं मेरी रक्षा करना
हालत मेरी देख देख कर हंसने लगा ज़माना
लाखों करोड़ों हाथों वाले मेरी लाज बचाना
मेरी लाज बचाना.साईं मेरी लाज बचाना
बाबा मेरी रक्षा करना
साईं मेरी रक्षा करना
मुझ सा न कोई पापी तेरे दर पे आया होगा
और जो आया होगा खाली लौटाया न होगा
लौटाया न होगा.साईं लौटाया न होगा
बाबा मेरी रक्षा करना
साईं मेरी रक्षा करना

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 25

दामू अण्णा कासार-अहमदनगर के रुई और अनाज के सौदे, आम्र-लीला, प्रार्थना 
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प्राक्कथन
जो अकारण ही सभी पर दया करते है तथा समस्त प्राणियों के जीवन व आश्रयदाता है, जो परब्रह्म के पूर्ण अवतार है, ऐसे अहेतुक दयासिन्धु और महान् योगिराज के चरणों में साष्टांग प्रणाम कर अब हम यह अध्याय आरम्भ करते है ।
श्री साई की जय हो ! वे सन्त चूड़ामणि, समस्त शुभ कार्यों के उदगम स्थान और हमारे आत्माराम तथा भक्तों के आश्रयदाता है । हम उन साईनाथ की चरण-वन्दना करते है, जिन्होंने अपने जीवन का अन्तिम ध्येय प्राप्त कर लिया है ।
श्री साईबाबा अनिर्वचनीय प्रेमस्वरुप है । हमें तो केवल उनके चरणकमलों में दृढ़ भक्ति ही रखनी चाहिये । जब भक्त का विश्वास दृढ़ और भक्ति परिपक्क हो जाती है तो उसका मनोरथ भी शीघ्र ही सफल हो जाता है । जब हेमाडपंत को साईचरित्र तथा साई लीलाओं के रचने की तीव्र उत्कंठा हुई तो बाबा ने तुरन्त ही वह पूर्ण कर दी । जब उन्हें स्मृति-पत्र (Notes) इत्यादि रखने की आज्ञा हुई तो हेमाडपंत में स्फूर्ति, बुद्घिमत्ता, शक्ति तथा कार्य करने की क्षमता स्वयं ही आ गई । वे कहते है कि मैं इस कार्य के सर्वदा अयोग्य होते हुए भी श्री साई के शुभार्शीवाद से इस कठिन कार्य को पूर्ण करने में समर्थ हो सका । फलस्वरुप यह ग्रन्थ 'श्री साई सच्चरित्र' आप लोगों को उपलब्ध हो सका, जो एक निर्मल स्त्रोत या चन्द्रकान्तमणि के ही सदृश है, जिसमें से सदैव साई-लीलारुपी अमृत झरा करता है, ताकि पाठकगण जी भर कर उसका पान करें ।
जब भक्त पूर्ण अन्तःकरण से श्री साईबाबा की भक्ति करने लगता है तो बाबा उसके समस्त कष्टों और दुर्भाग्यों को दूर कर स्वयं उसकी रक्षा करने लगते है । अहमदनगर के श्री दामोदर साँवलराम रासने कासार की निम्नलिखित कथा उपयुक्त कथन की पुष्टि करती है ।

दामू अण्णा
पाठकों को स्मरण होगा कि इन महाशय का प्रसंग छठवें अध्याय में शिरडी के रामनवमी उत्सव के प्रसंग में आ चुका है । ये लगभग सन् 1895 में शिरडी पधारे थे, जब कि रामनवमी उत्सव का प्रारम्भ ही हुआ था और उसी समय से वे एक जरीदार बढ़िया ध्वज इस अवसर पर भेंट करते तथा वहाँ एकत्रित गरीब भिक्षुओं को भोजनादि कराया करते थे ।

दामू अण्णा के सौदे

1. रुई का सौदा
दामू अण्णा को बम्बई से उनके एक मित्र ने लिखा कि वह उनके साथ साझेदारी में रुई का सौदा करना चाहते है, जिसमें लगभग दो लाख रुपयों का लाभ होने की आशा है । सन् 1936 में नरसिंह स्वामी को दिये गये एक वक्तव्य में दामू अण्णा ने बतलाया कि रुई के सौदे का यह प्रस्ताव बम्बई के एक दलाल ने उनसे किया था, जो कि साझेदारी से हाथ खींचकर मुझ पर ही सारा भार छोड़ने वाला था । (भक्तों के अनुभव भाग 11, पृष्ठ 75 के अनुसार) । दलाल ने लिखा था कि धंधा अति उत्तम है और हानि की कोई आशंका नहीं । ऐसे स्वर्णिम अवसर को हाथ से न खोना चाहिए । दामू अण्णा के मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठ रहे थे, परन्तु स्वयं कोई निर्णय करने का साहस वे न कर सके । उन्होंने इस विषय में कुछ विचार तो अवश्य कर लिया, परन्तु बाबा के भक्त होने के कारण पूर्ण विवरण सहित एक पत्र शामा को लिख भेजा, जिसमें बाबा से परामर्श प्राप्त करने की प्रार्थना की । यह पत्र शामा को दूसरे ही दिन मिल गया, जिसे दोपहर के समय मस्जिद में जाकर उन्होंने बाबा के समक्ष रख दिया । शामा से बाबा ने पत्र के सम्बन्ध में पूछताछ की । उत्तर में शामा ने कहा कि "अहमदनगर के दामू अण्णा कासार आपसे कुछ आज्ञा प्राप्त करने की प्रार्थना कर रहे है ।" बाबा ने पूछा कि "वह इस पत्र में क्या लिख रहा है और उसने क्या योजना बनाई है? मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह आकाश को छूना चाहता है । उसे जो कुछ भी भगवत्कृपा से प्राप्त है, वह उससे सन्तुष्ट नहीं है । अच्छा, पत्र पढ़कर तो सुनाओ ।" शामा ने कहा, "जो कुछ आपने अभी कहा, वही तो पत्र में भी लिखा हुआ है । हे देवा ! आप यहाँ शान्त और स्थिर बैठे रहकर भी भक्तों को उद्घिग्न कर देते है और जब वे अशान्त हो जाते है तो आप उन्हें आकर्षित कर, किसी को प्रत्यक्ष तो किसी को पत्रों द्वारा यहाँ खींच लेते है । जब आपको पत्र का आशय विदित ही है तो फिर मुझे पत्र पढ़ने का क्यों विवश कर रहे है?" बाबा कहने लगे कि "शामा ! तुम तो पत्र पढ़ो । मै तो ऐसे ही अनापशनाप बकता हूँ । मुझ पर कौन विश्वास करता है?" तब शामा ने पत्र पढ़ा और बाबा उसे ध्यानपूर्वक सुनकर चिंतित हो कहने लगे कि "मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सेठ (दामू अण्णा) पागल हो गया है । उसे लिख दो कि उसके घर किसी वस्तु का अभाव नहीं है । इसलिये उसे आधी रोटी में ही सन्तोष कर लाखों के चक्कर से दूर ही रहना चाहिये ।" शामा ने उत्तर लिखकर भेज दिया, जिसकी प्रतीक्षा उत्सुकतापूर्वक दामू अण्णा कर रहे थे । पत्र पढ़ते ही लाखों रुपयों के लाभ होने की उनकी आशा पर पानी फिर गया । उन्हें उस समय ऐसा विचार आया कि बाबा से परामर्श कर उन्होंने भूल की है । परन्तु शामा ने पत्र में संकेत कर दिया था कि "देखने और सुनने में फर्क होता है । इसलिये श्रेयस्कर तो यही होगा कि स्वयं शिरडी आकर बाबा की आज्ञा प्राप्त करो ।" बाबा से स्वयं अनुमति लेना उचित समझकर वे शिरडी आये । बाबा के दर्शन कर उन्होंने चरण सेवा की । परन्तु बाबा के सम्मुख सौदे वाली बात करने का साहस वे न कर सके । उन्होंने संकल्प किया कि यदि उन्होंने कृपा कर दी तो इस सौदे में से कुछ लाभाँश उन्हें भी अर्पण कर दूँगा । यद्यपि यह विचार दामू अण्णा बड़ी गुप्त रीति से अपने मन में कर रहे थे तो भी त्रिकालदर्शी बाबा से क्या छिपा रह सकता था? बालक तो मिष्ठान मांगता है, परन्तु उसकी माँ उसे कड़वी ही औषधि देती है, क्योंकि मिठाई स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होती है और इस कारण वह बालक के कल्याणार्थ उसे समझा-बुझाकर कड़वी औषधि पिला दिया करती है । बाबा एक दयालु माँ के समान थे । वे अपने भक्तों का वर्तमान और भविष्य जानते थे । इसलिये उन्होंने दामू अण्णा के मन की बात जानकर कहा कि "बापू ! मैं अपने को इस सांसारिक झंझटों में फँसाना नहीं चाहता ।" बाबा की अस्वीकृति जानकर दामू अण्णा ने यह विचार त्याग दिया ।

2. अनाज का सौदा
तब उन्होंने अनाज, गेहूँ, चावल आदि अन्य वस्तुओं का धन्धा आरम्भ करने का विचार किया । बाबा ने इस विचार को भी समझ कर उनसे कहा कि तुम रुपये का 5 सेर खरीदोगे और 7 सेर को बेचोगे । इसलिये उन्हें इस धन्धे का भी विचार त्यागना पड़ा । कुछ समय तक तो अनाजों का भाव चढ़ता ही गया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि संभव है, बाबा की भविष्यवाणी असत्य निकले । परन्तु दो-एक मास के पश्चात् ही सब स्थानों में पर्याप्त वृष्टि हुई, जिसके फलस्वरुप भाव अचानक ही गिर गये और जिन लोगों ने अनाज संग्रह कर लिया था, उन्हें यथेष्ठ हानि उठानी पड़ी । पर दामू अण्णा इस विपत्ति से बच गये । यह कहना व्यर्थ न होगा कि रुई का सौदा, जो कि उस दलाल ने अन्य व्यापारी की साझेदारी में किया था, उसमें उसे अधिक हानि हुई । बाबा ने उन्हें बड़ी विपत्तियों से बचा लिया है, यह देखकर दामू अण्णा का साईचरणों में विश्वास दृढ़ हो गया और वे जीवनपर्यन्त बाबा के सच्चे भक्त बने रहे ।

आम्रलीला
एक बार गोवा के एक मामलतदार ने, जिनका नाम राले था, लगभग 300 आमों का एक पार्सल शामा के नाम शिरडी भेजा । पार्सल खोलने पर प्रायः सभी आम अच्छे निकले । भक्तों में इनके वितरण का कार्य शामा को सौंपा गया । उनमें से बाबा ने चार आम दामू अण्णा के लिये पृथक् निकाल कर रख लिये । दामू अण्णा की तीन स्त्रियाँ थी । परन्तु अपने दिये हुये वक्तव्य में उन्होंने बतलाया था कि उनकी केवल दो ही स्त्रियाँ थी । वे सन्तानहीन थे, इस कारण उन्होंने अनेक ज्योतिषियों से इसका समाधान कराया और स्वयं भी ज्योतिष शास्त्र का थोड़ा सा अध्ययन कर ज्ञात कर लिया कि जन्म कुण्डली में एक पापग्रह के स्थित होने के कारण इस जीवन में उन्हें सन्तान का मुख देखने का कोई योग नहीं है । परन्तु बाबा के प्रति तो उनकी अटल श्रद्घा थी । पार्सल मिलने के दो घण्टे पश्चात् ही वे पूजनार्थ मस्जिद में आये । उन्हें देख कर बाबा कहने लगे कि लोग आमों के लिये चक्कर काट रहे है, परन्तु ये तो दामू के है । जिसके है, उन्हीं को खाने और मरने दो । इन शब्दों को सुन दामू अण्णा के हृदय पर वज्राघात सा हुआ, परन्तु म्हालसापति (शिरडी के एक भक्त) ने उन्हें समझाया कि इस 'मृत्यु' श्ब्द का अर्थ अहंकार के विनाश से है और बाबा के चरणों की कृपा से तो वह आशीर्वादस्वरुप है, तब वे आम खाने को तैयार हो गये । इस पर बाबा ने कहा कि "वे तुम न खाओ, उन्हें अपनी छोटी स्त्री को खाने दो । इन आमों के प्रभाव से उसे चार पुत्र और चार पुत्रियाँ उत्पन्न होंगी ।" यह आज्ञा शिरोधार्य कर उन्होंने वे आम ले जाकर अपनी छोटी स्त्री को दिये । धन्य है श्री साईबाबा की लीला, जिन्होने भाग्य-विधान पलट कर उन्हें सन्तान-सुख दिया । बाबा की स्वेच्छा से दिये वचन सत्य हुये, ज्योतिषियों के नहीं ।
बाबा के जीवन काल में उनके शब्दों ने लोगों में अधिक विश्वास और महिमा स्थापित की, परन्तु महान् आश्चर्य है कि उनके समाधिस्थ होने के उपरान्त भी उनका प्रभाव पूर्ववत् ही है । बाबा ने कहा कि "मुझ पर पूर्ण विश्वास रखो । यद्यपि मैं देहत्याग भी कर दूँगा, परन्तु फिर भी मेरी अस्थियाँ आशा और विश्वास का संचार करती रहेंगी । केवल मैं ही नही, मेरी समाधि भी वार्तालाप करेगी, चलेगी, फिरेगी और उन्हें आशा का सन्देश पहुँचाती रहेगी, जो अनन्य भाव से मेरे शरणागत होंगे । निराश न होना कि मैं तुमसे विदा हो जाऊँगा । तुम सदैव मेरी अस्थियों को भक्तों के कल्याणार्थ ही चिंतित पाओगे । यदि मेरा निरन्तर स्मरण और मुझ पर दृढ़ विश्वास रखोगे तो तुम्हें अधिक लाभ होगा ।"

प्रार्थना
एक प्रार्थना कर हेमाडपंत यह अध्याय समाप्त करते है ।
"हे साई सदगुरु ! भक्तों के कल्पतरु ! हमारी आपसे प्रार्थना है कि आपके अभय चरणों की हमें कभी विस्मृति न हो । आपके श्री चरण कभी भी हमारी दृष्टि से ओझल न हों । हम इस जन्म-मृत्यु के चक्र से संसार में अधिक दुखी है । अब दयाकर इस चक्र से हमारा शीघ्र उद्घार कर दो । हमारी इन्द्रियाँ, जो विषय-पदार्थों की ओर आकर्षित हो रही है, उनकी बाह्य प्रवृत्ति से रक्षा कर, उन्हें अंतर्मुखी बना कर हमें आत्म-दर्शन के योग्य बना दो । जब तक हमारी इन्द्रयों की बहिमुर्खी प्रवृत्ति और चंचल मन पर अंकुश नहीं है, तब तक आत्मसाक्षात्कार की हमें कोई आशा नहीं है । हमारे पुत्र और मित्र, कोई भी अन्त में हमारे काम न आयेंगे । हे साई ! हमारे तो एकमात्र तुम्हीं हो, जो हमें मोक्ष और आनन्द प्रदान करोगे । हे प्रभु! हमारी तर्कवितर्क तथा अन्य कुप्रवृत्तियों को नष्ट कर दो । हमारी जिव्हा सदैव तुम्हारे नामस्मरण का स्वाद लेती रहे । हे साई! हमारे अच्छे बुरे सब प्रकार के विचारों को नष्ट कर दो । प्रभु! कुछ ऐसा कर दो कि जिससे हमें अपने शरीर और गृह में आसक्ति न रहे । हमारा अहंकार सर्वथा निर्मूल हो जाय और हमें एकमात्र तुम्हारे ही नाम की स्मृति बनी रहे तथा शेष सबका विस्मरण हो जाय । हमारे मन की अशान्ति को दूर कर, उसे स्थिर और शान्त करो । हे साई! यदि तुम हमारे हाथ अपने हाथ में ले लोगे तो अज्ञानरुपी रात्रि का आवरण शीघ्र दूर हो जायेगा और हम तुम्हारे ज्ञान-प्रकाश में सुखपूर्वक विचरण करने लगेंगे । यह जो तुम्हारा लीलामृत पान करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ तथा जिसने हमें अखण्ड निद्रा से जागृत कर दिया है, यह तुम्हारी ही कृपा और हमारे गत जन्मों के शुभ कर्मों का ही फल है ।"

विशेष:
इस सम्बन्ध में श्री. दामू अण्णा के उपरोक्त कथन को उद्घत किया जाता है, जो ध्यान देने योग्य है – "एक समय जब मैं अन्य लोगों सहित बाबा के श्रीचरणों के समीप बैठा था तो मेरे मन में दो प्रश्न उठे ।" उन्होंने उनका उत्तर इस प्रकार दिया ।
जो जनसमुदाय श्री साई के दर्शनार्थ शिरडी आता है, क्या उन सभी को लाभ पहुँचता है ? इसका उन्होंने उत्तर दिया कि "बौर लगे आम वृक्ष की ओर देखो । यदि सभी बौर फल बन जायें तो आमों की गणना भी न हो सकेगी । परन्तु क्या ऐसा होता है ? बहुत-से बौर झर कर गिर जाते है । कुछ फले और बढ़े भी तो आँधी के झकोरों से गिरकर नष्ट हो जाते है और उनमें से कुछ ही शेष रह जाते है । 
दूसरा प्रश्न मेरे स्वयं के विषय में था । यदि बाबा ने निर्वाण ले लिया तो मैं बिलकुल ही निराश्रित हो जाऊँगा, तब मेरा क्या होगा? इसका बाबा ने उत्तर दिया कि "जब और जहाँ भी तुम मेरा स्मरण करोगे, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा ।" इन वचनों को उन्होंने सन् 1918 के पूर्व भी निभाया है और सन् 1918 के पश्चात आज भी निभा रहे है । वे अभी भी मेरे ही साथ रहकर मेरा पथ-प्रदर्शन कर रहे है । यह घटना लगभग सन् 1910-11 की है । "उसी समय मेरा भाई मुझसे पृथक हुआ और मेरी बहन की मृत्यु हो गई । मेरे घर में चोरी हुई और पुलिस जाँच-पड़ताल कर रही थी । इन्हीं सब घटनाओं ने मुझे पागल-सा बना दिया था ।"
"मेरी बहन का स्वर्गवास होने के कारण मेरे दुःख का पारावार न रहा और जब मैं बाबा की शरण गया तो उन्होंने अपने मधुर उपदेशों से मुझे सान्तवना देकर अप्पा कुलकर्णी के घर पूरणपोली खिलाई तथा मेरे मस्तक पर चन्दन लगाया ।"
"जब मेरे घर चोरी हुई और मेरे ही एक तीसवर्षीय मित्र ने मेरी स्त्री के गहनों का सन्दूक, जिसमें मंगलसूत्र और नथ आदि थे, चुरा लिये, तब मैंने बाबा के चित्र के समक्ष रुदन किया और उसके दूसरे ही दिन वह व्यक्ति स्वयं गहनों का सन्दूक मुझे लौटाकर क्षमा-प्रार्थना करने लगा ।"

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

माँ ब्रम्हचारिणी

ॐ साईं राम
दधाना               कर्पद्मभ्यमक्श्मलकमन्दलु |
देवि   प्रसीदतु   मयि      ब्रम्हाचारिन्यानुत्मा  |

माँ दुर्गा की नव शक्तियों का दूसरा रूप माँ ब्रम्हचारिणी का है | यहाँ ब्रम्हा शब्द का अर्थ तपस्या है | ब्रम्हचारिणी अर्थात तप की चारिनी ( तप का आचरण करने वाली | ) ब्रम्हचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है | इनके दाहिने हाथ में जप की माला और बहिने हाथ में कमण्डल रहता है | अपने पूर्व जन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री-रूप में उत्पन हुई थीं तब नारद के उपदेश से इन्होने भगवान् शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन तपस्या की थी | दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रम्हचारिणी नाम से अभिहित किया गया | 




Wednesday, 28 September 2011

साईं के त्यौहार पर .....

 ॐ साईं राम
साईं के त्यौहार पर
 भक्त  सभी  तैयार
 मिलजुल कर कारज करे 
जैसे एक परिवार |

बूढ़े और ग़रीब को
बाबा भोज कराये
उनकी भूख मिटाए के
साईं ख़ुशी मनाये |
 
ॐ श्री साईं नाथाये नमः

 

वो दस कदम

ॐ साईं राम
 
हम जब भी उदास होते है
बाबा के दिल के करीब होते है
बाबा को बार बार मिलने को चाहता है दिल
दुनिया के रंजो गम साथ होते है
हम जब बाबा के दिल के करीब होते है
हमारे बहुत अच्छे नसीब होते है
बाबा से रूबरू होती है दिल की बातें
दुनिया के हर गम दूर होते है
जब दुनिया के हर गम दूर होते है
हमारे पास श्रद्धा और सबुरी होते है

मेरे बाबा का है ऐसा जलवा
पलके बंद करके देख पल में शिर्डी के दर्शन होते है
जब शिर्डी के दर्शन होते है
हम द्वारकामाई की गोद में होते है
बाबा करते है माँ का प्यार हमे
  क्यों के बाबा अंग संग सहाई होते है
जब मेरे बाबा अंग संग सहाई होते है
हमारी मज़िलों के नहीं दूर किनारे होते है
बैठ जा मेरा बाबा की शिर्डी वाली कश्ती में
जिस कश्ती चलाने वाले मेरे साईं होते है
जिस कश्ती चलाने वाले मेरे साईं होते है
किनारों की तो ओकात क्या मंजिले खुद चल कर आती है
ऐसा उपकार है सब पर मेरे साईं बाबा का
एक कदम बाबा की और बढ़ा के देख वो दस कदम तेरे साथ होते है 

दिन की शुरुवात होती लेकर तेरा नाम...

ॐ सांई राम


साईं की महिमा
दूर खड़ा तू देख रहा
सबके मन का भाव
पल भर में तू कर दे
पूरी मन की आस |

आस बन जाती
दिल का एक अरमान
दिन की शुरुवात होती
लेकर तेरा नाम |
तेरा नाम जप कर
दिल हो जाए मालामाल
तेरी किरपा से
खुल जाए स्वर्ग के दरबार |

हर दरबार की चादर में
जड़े हुए है हीरे मोती
जिसकी चमक से
मिल जाती मन को मुक्ति |

मन की मुक्ति पाकर
मिल जाए साईं का आशीष
आत्मा तृप्त हो जावे
मिल जावे दिल को आराम |
दिल का आराम पाकर
धन्य हो जावे जीवन
जिसकी करूणा कथा को पढ़कर
दिल हो जावे बेकरार |
बेकरार दिल एक ही गाथा गावे
जय साईंराम, जय-जय साईंराम |||

प्रथम माँ शैलपुत्री

ॐ साईं राम
आप सभी को नवरात्रों की  हार्दिक बधाई 

वंदे वाद्द्रिछतलाभाय चंद्रार्धकृतशेखरम |
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्‌ ||


दुर्गा पूजा के प्रथम दिन माता शैलपुत्री की पूजा-वंदना इस मंत्र द्वारा की जाती है.
मां दुर्गा की पहली स्वरूपा और शैलराज हिमालय की पुत्री शैलपुत्री के पूजा के साथ ही दुर्गा पूजा आरम्भ हो जाता है. नवरात्र पूजन के प्रथम दिन कलश स्थापना के साथ इनकी ही पूजा और उपासना की जाती है. माता शैलपुत्री का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प रहता है. नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं और यहीं से उनकी योग साधना प्रारंभ होता है. पौराणिक कथानुसार मां शैलपुत्री अपने पूर्व जन्म में प्रजापति दक्ष के घर कन्या रूप में उत्पन्न हुई थी. उस समय माता का नाम सती था और इनका विवाह भगवान् शंकर से हुआ था. एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ आरम्भ किया और सभी देवताओं को आमंत्रित किया परन्तु भगवान शिव को आमंत्रण नहीं दिया. अपने मां और बहनों से मिलने को आतुर मां सती बिना निमंत्रण के ही जब पिता के घर पहुंची तो उन्हें वहां अपने और भोलेनाथ के प्रति तिरस्कार से भरा भाव मिला. मां सती इस अपमान को सहन नहीं कर सकी और वहीं योगाग्नि द्वारा खुद को जलाकर भस्म कर दिया और अगले जन्म में शैलराज हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया. शैलराज हिमालय के घर जन्म लेने के कारण मां दुर्गा के इस प्रथम स्वरुप को माँ शैलपुत्री कहा जाता है.

Tuesday, 27 September 2011

किनारे ही किनारे ने ....

ॐ साईं राम
  साईं दा जे आसरा होवे नजारे ही नजारे ने ..
साईं दी जे मेहर हो जावे सहारे ही सहारे ने ...
ओ बेडी डुब नही सकदी जिदा बाबा तू मल्ला होंवे ..
ओनु मझदार दे अंदर किनारे ही किनारे ने ....
 जेडे करदे गुरां नाल प्यार ओ प्यारे लगदे ने
जेडे आंदे तेरे दरबार ओ प्यारे लगदे ने ...
सेवा करदे कदे नही थक्दे
मैल दिल्लां विच कदे नही रखदे
जेडे करदे संगत नाल प्यार ओ प्यारे लगदे ने
 

दान धर्म से भोग है कटता

ॐ सांई राम


तेरे द्वार पे चलके आया
शिरडी वाला साँई,
भिक्षा देदे माई..
चिमटा कटोरा सटका लेकर
भिक्षा माँगने आए,
तू दे न दे फिर भी साँई
आशिष दे कर जाए,
भिक्षा देदे माई..
देवे भिक्षा उसको साँई
दस पट कर लौटाए,
ना भी दे तो हरपल साँई
उसका भार उठाए,
भिक्षा देदे माई..
दान धर्म से भोग है कटता
यह बतलाने आए,
एक इशारा हो जाए उसका
भव से तू तर जाए,
भिक्षा देदे माई...

Monday, 26 September 2011

लगे तन मन धन साईं में

ॐ सांई राम


मेहरा वालेया सांईया
रखी चरणां दे कोल...
मेहरा वालेया सांईया
रखी चरणां दे कोल...


मेरे साईं अपने चरण कमलों में
मुझे आप लगाए रखना
मै तेरा दास तुम स्वामी मेरे
मुझे अपना दास बनाए रखना

लगे तन मन धन साईं में
साईं बिन अन्य मति न होय
सदा दिखे सद्गुरु में ईश्वर
ऐसा वर दो शिरडीश्वर ......

बेटा और बेटी

ॐ साईं राम 
अगर बेटा वंश है, तो बेटी अंश है l
अगर बेटा तन है, तो बेटी मन है l ओम् साईं देवा

अगर बेटा आन है, तो बेटी शान है l
अगर बेटा मान है, तो बेटी गुमान है l
 
अगर बेटा संस्कार, तो बेटी संस्कृति है l
अगर बेटा दवा है, तो बेटी दुआ है l ओम् साईं शरणं

अगर बेटा भाग्य है, तो बेटी विधाता है l
अगर बेटा शब्द है, तो बेटी अर्थ है l

अगर बेटा गीत है, तो बेटी संगीत !
अगर बेटा वारिस है, तो बेटी पारस है l

ॐ साईं राम 

Sunday, 25 September 2011

रोके ना हमें संसार......

ॐ साईं राम 


रोके ना हमें संसार हमें साईं ने बुलाया है .
अब कौन करे इनकार, हमें साईं ने बुलाया है ..
मिला हमको सन्देश, चलो दाता के देश .
पहनो चोला बस एक, देखो बदलो ना भेस .
लो हमसे बढ़ाकर प्यार, हमें साईं ने बुलाया है .. 
रोके ना हमें संसार हमें साईं ने बुलाया है .
 

क्या ख़ुशी की ख़ुशी ,
क्या हमें गम का गम .
जब तक है दम में दम,
चलते जायेंगे हम .
अब दूर नहीं दरबार,
हमें साईं ने बुलाया है ..
रोके ना हमें संसार हमें साईं ने बुलाया है .
 

चाहे गाडी रुके,
चाहे तूफ़ान चले .
चाहे बादल उड़े,
चमके बिजली भले .
बैठेंगे ना हिम्मत हार,
रोके ना हमें संसार
हमें साईं ने बुलाया है
ॐ साईं राम

हमें साईं ने बुलाया है ..
रोके ना हमें संसार हमें साईं ने बुलाया है .
 

माना मंजिल की और,
है कठिन रास्ता .
हमको साईं के सिवा,
किस से क्या वास्ता .
है बड़ा उपकार,
हमें साईं ने बुलाया है . .
रोके ना हमें संसार हमें साईं ने बुलाया है .

चरण कमलों का प्रेम दीजिये


ॐ सांई राम



कभी घबरा कर मैं संसार मांग भी लूं
तो इतनी कृपा कीजिये
जब भी मैं धन मांगू तो
श्रद्धा और भक्ति का धन दीजिये
जब मैं संपत्ति मांगू तो
सद्गुण दीजिये


जब मैं खजाना मांगू तो
चरण कमलों का प्रेम दीजिये
और यदि मैं घर मांगू
तो वादा कीजिये कि आप
अपने चरण - कमलों में
शाश्वत - शरण बना देंगे
यदि कोई इच्छा उठे तो
वह आपकी इच्छा में विलीन हो जाये
और आपका यह भक्त आप से
नवधा भक्ति के 9  सिक्के पाए !!

Saturday, 24 September 2011

तेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं


ॐ सांई राम

 

"साईं की लीला सुने,
कर साईं का ध्यान,
भक्ति सद्गुरु साईं की,
त्याग सकल अभिमान"
"साईं राम मेरा सत्य गुरु"



साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैं
तेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं
पानी से भी तुने दीप जलाये है
नीम के पत्ते तुने मीठे बनाये है
तेरी नाम वाली सदा जोत जलाऊ मैं
साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैं
तेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं
तेरी महिमा कैसे गुणगान गाऊ मैं
कहाँ तुम पैदा हुए कौन माँ बाप साईं
सारी दुनिया ना अभी तक ये जान पाई
हिंदू हो ना मुस्लिम सिक्ख हो ना इसाई
सभी धर्मो में है समाये मेरे बाबा साईं
जन्नत से प्यारी तेरी शिर्डी हो आऊ मैं
तेरी नाम की विभूति माथे पे लगाऊ मैं
साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैं
तेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं
बनके फ़कीर बाबा घर घर माँगा तुने
लेके विष दुनिया से अमृत बाटा तुने
दिन दुखियों का दुःख अपना ही जाना तुने
सारा संसार साईं अपना ही माना तुने
तुझसा दयालु कही ढूँढ ना पाऊ मैं
तेरी करुना के गीत सबको सुनाऊ मैं
साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैं
तेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं
साईं तेरा जीवन भी कितना महान है
चरणों में तेरे सारा झुकता जहान है
किसके है भाव कैसे तुने पहचान है
बाबा तेरी शक्ति पे हम सब कुर्बान है
तुझसे बिछड़ कर ना कभी रह पाऊ में
तेरा बस तेरा बस तेरा ही हो जाऊ मैं
पानी से भी तुने दीप जलाये है
नीम के पत्ते तुने मीठे बनाये है
तेरी महिमा का कैसे गुणगान गाऊ मैं
तेरी नाम वाली सदा जोत जलाऊ मैं
तेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं

Friday, 23 September 2011

साईं बाबा जी की आरतियाँ

कोई किसी को न सताएं

 

ॐ सांई राम
हे साईं इक करिश्मा दिखा दे
सब के दिलों में प्यार बसा दे,
नफरत का नामों निशा मिटा दे!
कोई किसी का दिल न दुखाएं
कोई किसी को न सताएं
हर कोई किसी के काम आए
न कोई रोए न तिलमिलाए
सिर्फ प्यार ही प्यार दिखाए
आँखों में न आँसू आए
केवल चहरे खिलखिलाएं
हे साईं ऐसा करिश्मा दिखा दे
सदा के लिए न सही, बस
इक दिन के लिए ही दिखा दे!!!........

Thursday, 22 September 2011

मेरा हाथ तब तुम पकङना सांई ...........

ॐ साईं राम
आज पावन साईं-वार है,
बाबा जी का हमको इंतज़ार है
आयेंगे साईं उड़न खटोले में सवार हो
बाबा जी आपकी सदा ही जय जयकार हो..
जब गिर के मुश्किल हो संभलना सांई,
मेरा हाथ तब तुम पकङना सांई
जब आँसू भूल जाए सूखना,
तब तुम मेरा हाथ पकङना सांई ||


माँ की दुआ
कभी खाली नहीं जाती,
उसकी बद्‌दुआ
कभी टाली नहीं जाती,
बर्तन मांझकर भी माँ
3-4 बच्चे पाल लेती है,
बेटों का आज हाल है कि
3-4 बेटों से भी एक माँ
पाली नहीं जाती है ।


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 24

श्री साई बाबा का हास्य विनोद, चने की लीला (हेमाडपंत), सुदामा की कथा, अण्णा चिंचणीकर और मौसीबाई की कथा ।
_______________________________________

प्रारम्भ
अगले अध्याय में अमुक-अमुक विषयों का वर्णन होगा, ऐसा कहना एक प्रकार का अहंकार ही है । जब तक अहंकार गुरुचरणों में अर्पित न कर दिया जाये, तब तक सत्यस्वरुप की प्राप्ति संभव नहीं । यदि हम निरभिमान हो जाये तो सफलता प्राप्त होना निश्चित ही है ।
श्री साईबाबा की भक्ति करने से ऐहिक तथा आध्यात्मिक दोनों पदार्थों की प्राप्ति होती है और हम अपनी मूल प्रकृति में स्थिरता प्राप्त कर शांति और सुख के अधिकारी बन जाते है । अतः मुमुक्षुओं को चाहिये कि वे आदरसहित श्री साईबाबा की लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करें । यदि वे इसी प्रकार प्रयत्न करते रहेंगे तो उन्हें अपने जीवन-ध्येय तथा परमानंद की सहज ही प्राप्ति हो जायेगी ।
प्रायः सभी लोगों को हास्य प्रिय होता है, परन्तु हास्य का पात्र स्वयं कोई नहीं बनना चाहता । इस विषय में बाबा की पद्घति भी विचित्र थी । जब वह भावनापूर्ण होती तो अति मनोरंजक तथा शिक्षाप्रद होती थी । इसीलिये भक्तों को यदि स्वयं हास्य का पात्र बनना भी पड़ता था तो उन्हें उसमें कोई आपत्ति न होती थी । श्री हेमाडपंत भी ऐसा एक अपना ही उदाहरण प्रस्तुत करते है ।

चना लीला
शिरडी में बाजार प्रति रविवार को लगता है । निकटवर्ती ग्रामों से लोग आकर वहाँ रास्तों पर दुकानें लगाते और सौदा बेचते है । मध्याहृ के समय मस्जिद लोगों से ठसाठस भर जाया करती थी, परन्तु इतवार के दिन तो लोगों की इतनी अधिक भीड़ होती कि प्रायः दम ही घुटने लगता था । ऐसे ही एक रविवार के दिन श्री. हेमाडपंत बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे । शामा बाबा के बाई ओर व वामनराव बाबा के दाहिनी ओर थे । इस अवसर पर श्रीमान् बूटीसाहेब और काकसाहेब दीक्षित भी वहाँ उपस्थित थे । तब शामा ने हँसकर अण्णासाहेब से कहा कि, "देखो, तुम्हारे कोट की बाँह पर कुछ चने लगे हुए-से प्रतीत होते है ।" ऐसा कहकर शामा ने उनकी बाँह स्पर्श की, जहाँ कुछ चने के दाने मिले ।
जब हेमाडपंत ने अपनी बाईं कुहनी सीधी की तो चने के कुछ दाने लुढ़क कर नीचे भी गिर पड़े, जो उपस्थित लोगों ने बीनकर उठाये ।
भक्तों को तो हास्य का विषय मिल गया और सभी आश्चर्यचकित होकर भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे, परन्तु कोई भी यह न जान सका कि ये चने के दाने वहाँ आये कहाँ से और इतने समय तक उसमें कैसे फँसे रहे । इसका संतोषप्रद उत्तर किसी के पास न था, परन्तु इस रहस्य का भेद जानने को प्रत्येक उत्सुक था । तब बाबा कहने लगे कि इन महाशय-अण्णासाहेब को एकांत में खाने की बुरी आदत है । आज बाजार का दिन है और ये चने चबाते हुए ही यहाँ आये है । मैं तो इनकी आदतों से भली भाँति परिचित हूँ और ये चने मेरे कथन की सत्यता के प्रमाण है । इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है?" हेमाडपंत बोले कि "बाबा, मुझे कभी भी एकांत में खाने की आदत नहीं है, फिर इस प्रकार मुझ पर दोशारोपण क्यों करते है? अभी तक मैंने शिरडी के बाजार के दर्शन भी नहीं किये तथा आज के दिन तो मैं भूल कर भी बाजार नहीं गया । फिर आप ही बताइये कि मैं ये चने भला कैसे खरीदता और जब मैंने खरीदे ही नही, तब उनके खाने की बात तो दूर की ही है । भोजन के समय भी जो मेरे निकट होते है, उन्हें उनका उचित भाग दिये बिना मैं कभी ग्रहण नहीं करता ।"
बाबा - "तुम्हारा कथन सत्य है । परन्तु जब तुम्हारे समीप ही कोई न हो तो तुम या हम कर ही क्या सकते है? अच्छा, बताओ, क्या भोजन करने से पूर्व तुम्हें कभी मेरी स्मृति भी आती है? क्या मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं हूँ? फिर क्या तुम पहले मुझे ही अर्पण कर भोजन किया करते हो?"

शिक्षा
इस घटना द्वारा बाबा क्या शिक्षा प्रदान कर रहे है, थोड़ा इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है । इसका सारांश यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्घि द्वारा पदार्थों का रसास्वादन करने के पूर्व बाबा का स्मरण करना चाहिए । उनका स्मरण ही अर्पण की एक विधि है । इन्द्रियाँ विषय पदार्थों की चिन्ता किये बिना कभी नहीं रह सकती । इन पदार्थों को उपभोग से पूर्व ईश्वरार्पण कर देने से उनका आसक्ति स्वभावतः नष्ट हो जाती है । इसी प्रकार समस्त इच्छाये, क्रोध और तृष्णा आदि कुप्रवृत्तियों को प्रथम ईश्वरार्पण कर गुरु की ओर मोड़ देना चाहिये । यदि इसका नित्याभ्यास किया जाय तो परमेश्वर तुम्हे कुवृत्तियों के दमन में सहायक होंगे । विषय के रसास्वादन के पूर्व वहाँ बाबा की उपस्थिति का ध्यान अवश्य रखना चाहिये । तब विषय उपभोग के उपयुक्त है या नही, यह प्रश्न उपस्थित हो जायेगा और तब अनुचित विषय का त्याग करना ही पड़ेगा । इस प्रकार कुप्रवृत्तियाँ दूर हो जायेंगी और आचरण में सुधार होगा । इसके फलस्वरुप गुरुप्रेम में वृद्घि होकर शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होगी । जब इस प्रकार ज्ञान की वृद्घि होती है तो दैहिक बुद्घि नष्ट हो चैतन्यघन में लीन हो जाती है । वस्तुतः गुरु और ईश्वर में कोई पृथकत्व नहीं है और जो भिन्न समझता है, वह तो निरा अज्ञानी है तथा उसे ईश्वर-दर्शन होना भी दुर्लभ है । इसलिये समस्त भेदभाव को भूल कर, गुरु और ईश्वर को अभिन्न समझना चाहिये । इस प्रकार गुरु सेवा करने से ईश्वर-कृपा प्राप्त होना निश्चित ही है और तभी वे हमारा चित्त शुदृ कर हमें आत्मानुभूति प्रदान करेंगे । सारांश यह है कि ईश्वर और गुरु को पहले अर्पण किये बिना हमें किसी भी इन्द्रियग्राहृ विषय का रसास्वादन न करना चाहिए । इस प्रकार अभ्यास करने से भक्ति में उत्तरोत्तर वृद्घि होगी । फिर श्री साईबाबा की मनोहर सगुण मूर्ति सदैव आँखों के सम्मुखे रहेगी, जिससे भक्ति, वैराग्य और मोक्ष की प्राप्ति शीघ्र हो जायेगी । ध्यान प्रगाढ़ होने से क्षुधा और संसार के अस्तित्व की विस्मृति हो जायेगी और सांसारिक विषयों का आकर्षण स्वतः नष्ट होकर चित्त को सुख और शांति प्राप्त होगी ।

सुदामा की कथा
उपयुक्त घटना का वर्णन करते-करते हेमाडपंत को इसी प्रकार की सुदामा की कथा याद आई, जो ऊपर वर्णित नियमों की पुष्टि करती है ।
श्री कृष्ण अपने ज्येष्ठ भ्राता बलराम तथा अपने एक सहपाठी सुदामा के साथ सांदीपनी ऋषि के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन किया करते थे । एक बार कृष्ण और बलराम लकड़ियाँ लाने के लिये वन गये । सांदीपनि ऋषि की पत्नी ने सुदामा को भी उसी कार्य के निमित्त वन भेजा तथा तीनों विद्यार्थियों को खाने को कुछ चने भी उन्होंने सुदामा के द्वारा भेजे । जब कृष्ण और सुदामा की भेंट हुई तो कृष्ण ने कहा, "दादा, मुझे थोड़ा जल दीजिये, प्यास अधिक लग रही है ।" सुदामा ने कहा, "भूखे पेट जल पीना हानिकारक होता है, इसलिये पहले कुछ देर विश्राम कर लो ।" सुदामा ने चने के संबंध में न कोई चर्चा की और न कृष्ण को उनका भाग ही दिया । कृष्ण थके हुए तो थे ही, इसलिए सुदामा की गोद में अपना सिर रखते ही वे प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गये । तभी सुदामा ने अवसर पाकर चने चबाना प्रारम्भ कर दिया । इसी बीच में अचानक कृष्ण पूछ बैठे कि "दादा, तुम क्या खा रहे हो और यह कड़कड़ की ध्वनि कैसी हो रही है?" सुदामा ने उत्तर दिया कि "यहाँ खाने को है ही क्या? मैं तो शीत से काँप रहा हूँ और इसलिये मेरे दाँत कड़कड़ बज रहे है । देखो तो, मैं अच्छी तरह से विष्णु सहस्त्रनाम भी उच्चारण नहीं कर पा रहा हूँ ।" यह सुनकर अन्तर्यामी कृष्ण ने कहा कि "दादा, मैंने अभी स्वप्न में देखा कि एक व्यक्ति दूसरे की वस्तुएँ खा रहा है । जब उससे इस विषय में प्रश्न किया गया तो उसने उत्तर दिया कि 'मैं खाक (धूल) खा रहा हूँ ।' तब प्रश्नकर्ता ने कहा, 'ऐसा ही हो' (एवमस्तु) दादा, यह तो केवल स्वप्न था, मुझे तो ज्ञात है कि तुम मेरे बिना अन्न का दाना भी ग्रहण नहीं करते, परन्तु श्रम के वशीभूत होकर मैंने तुम से ऐसा प्रश्न किया था ।" यदि सुदामा किंचित मात्र भी कृष्ण की सर्वज्ञता से परिचित होते तो वे इस भाँति आचरण कभी न करते । अतः उन्हें इसका फल भोगना ही पड़ा । श्रीकृष्ण के लँगोटिया मित्र होते हए भी सुदामा को अपना शेष जीवन दरिद्रता में व्यतीत करना पड़ा, परन्तु केवल एक ही मुट्ठी रुखे चावल (पोहा), जो उनकी स्त्री सुशीला ने अत्यन्त परिश्रम से उपार्जित किए थे, भेंट करने पर श्रीकृष्ण जी बहुत प्रसन्न हो गये और उन्हें उसके बदले में सुवर्णनगरी प्रदान कर दी । जो दूसरों को दिये बिना एकांत में खाते है, उन्हें इस कथा को सदैव स्मरण रखना चाहिए ।
श्रुति भी इस मत का प्रतिपादन करती है कि प्रथम ईश्वर को ही अर्पण करें तथा उच्छिष्ट हो जाने के उपरांत ही उसे ग्रहण करें । यही शिक्षा बाबा ने हास्य के रुप में दी है ।

अण्णा चिंचणीकर और मौसीबाई
अब श्री. हेमाडपंत एक दूसरी हास्यपूर्ण कथा का वर्णन करते है, जिसमें बाबा ने शान्ति-स्थापन का कार्य किया है । दामोदर घनश्याम बाबारे, उपनाम अण्णा चिंचणीकर बाबा के भक्त थे । वे सरल, सुदृढ़ और निर्भीक प्रकृति के व्यक्ति थे । वे निडरतापूर्वक स्पष्ट भाषण करते और व्यवहार में सदैव नगद नारायण-से थे । यद्यपि व्यावहारिक दृष्टि से वे रुखे और असहिष्णु प्रतीत होते थे, परन्तु अन्तःकरण से कपटहीन और व्यवहार-कुशल थे । इसी कारण उन्हें बाबा विशेष प्रेम करते थे । सभी भक्त अपनी-अपनी इच्छानुसार बाबा के अंग-अंग को दबा रहे थे । बाबा का हाथे कठड़े पर रखा हुआ था । दूसरी ओर एक वृदृ विधवा उनकी सेवा कर रही थी, जिनका नाम वेणुबाई कौजलगी था । बाबा उन्हें 'माँ' शब्द से सम्बोधित करते तथा अन्य लोग उन्हे मौसीबाई कहते थे । वे एक शुदृ हृदय की वृदृ महिला थी । वे उस समय दोनों हाथों की अँगुलियाँ मिलाकर बाबा के शरीर को मसल रही थी । जब वे बलपूर्वक उनका पेट दबाती तो पेट और पीठ का प्रायः एकीकरण हो जाता था । बाबा भी इस दबाव के कारण यहाँ-वहाँ सरक रहे थे । अण्णा दूसरी ओर सेवा में व्यस्त थे । मौसीबाई का सिर हाथों की परिचालन क्रिया के साथ नीचे-ऊपर हो रहा था । जब इस प्रकार दोनों सेवा में जुटे थे तो अनायास ही मौसीबाई विनोदी प्रकृति की होने के कारण ताना देकर बोली कि, "यह अण्णा बहुत बुरा व्यक्ति है और यह मेरा चुंबन करना चाहता है । इसके केश तो पक गये है, परन्तु मेरा चुंबन करने में इसे तनिक भी लज्जा नहीं आती है ।" यह सुनकर अण्णा क्रोधित होकर बोले, "तुम कहती हो कि मैं एक वृदृ और बुरा व्यक्ति हूँ । क्या मैं मूर्ख हूँ ? तुम खुद ही छेड़खानी करके मुझसे झगड़ा कर रही हो?" वहाँ उपस्थित सब लोग इस विवाद का आनन्द ले रहे थे । बाबा का स्नेह तो दोनों पर था, इसलिये उन्होंने कुशलतापूर्वक विवाद का निपटारा कर दिया । वे प्रेमपूर्वक बोले, "अरे अण्णा, व्यर्थ ही क्यों झगड़ रहे हो? मेरी समझ में नहीं आता कि माँ का चुंबन करने में दोष या हानि ही क्या हैं? 
बाबा के शब्दों को सुनकर दोनों शान्त हो गये और सब उपस्थित लोग जी भरकर ठहाका मारकर बाबा के विनोद का आनन्द लेने लगे ।

बाबा की भक्त-परायणता
बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही सेवा करने दिया करते थे और इस विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें सहन न था । एक अन्य अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थी, जिसे देख कर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे कि "माँ! कृपा कर धीरे-धीरे ही पेट दबाओ । इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और ना़ड़ियाँ ही टूट जायेंगी ।" वे इतना कह भी न पाये थे कि बाबा अपने आसन से तुरन्त उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गये । साहस किसे था, जो उन्हें रोके? उन्होंने दोनों हाथों से सटके का एक छोर पकड़ नाभि में लगाया और दूसरा छोर जमीन पर रख उसे पेट से धक्का देने लगे । सटका (सोटा) लगभग 2 या 3 फुट लम्बा था । अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पेट में छिद्र कर प्रवेश कर जायेगा । लोग भयभीत हो उठे कि अब पेट फटने ही वाला है । बाबा अपने स्थान पर दृढ़ हो, उसके अत्यन्त समीप होते जा रहे थे और प्रतिक्षण पेट फटने की आशंका हो रही थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । वे आश्चर्यचकित और भयभीत हो ऐसे खड़े थे, मानो गूँगों का समुदाय हो । यथार्थ में भक्तगण का संकेत मौसीबाई को केवल इतना ही था कि वे सहज रीति से सेवा-शुश्रूषा करें । किसी की इच्छा बाबा को कष्ट पहुँचाने की न थी । भक्तों ने तो यह कार्य केवल सदभावना से प्रेरित होकर ही किया था । परन्तु बाबा तो अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप कणमात्र भी न होने देना चाहते थे । भक्तों को तो आश्चर्य हो रहा था कि शुभ भावना से प्रेरित कार्य दुर्गति से परिणत हो गया और वे केवल दर्शक बने रहने के अतिररिक्त कर ही क्या सकते थे? भाग्यवश बाबा का क्रोध शान्त हो गया और सटका छोड़कर वे पुनः आसन पर विराजमान हो गये । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि अब दूसरों के कार्य में कभी भी हस्तक्षेप न करेंगे और सबको उनकी इच्छानुसार ही बाबा की सेवा करने देंगे । केवल बाबा ही सेवा का मूल्य आँकने में समर्थ थे ।

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एक 18 साल का लड़का ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा था. अचानक वो ख़ुशी में जोर से चिल्लाया "पिताजी, वो देखो, पेड़ पीछे जा रहा हैं". उसके पिता ने स्नेह से उसके सर पर हाँथ फिराया. वो लड़का फिर चिल्लाया "पिताजी वो देखो, आसमान में बादल भी ट्रेन के साथ साथ चल रहे हैं". पिता की आँखों से आंसू निकल गए. पास बैठा आदमी ये सब देख रहा था. उसने कहा इतना बड़ा होने के बाद भी आपका लड़का बच्चो जैसी हरकते कर रहा हैं. आप इसको किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों नहीं दिखाते?? पिता ने कहा की वो लोग डॉक्टर के पास से ही आ रहे हैं. मेरा बेटा जनम से अँधा था, आज ही उसको नयी आँखे मिली हैं. #नेत्रदान करे. किसी की जिंदगी में रौशनी भरे.