अदभुत अवतार । श्री
साईबाबा की प्रकृति, उनकी यौगिक क्रयाएँ, उनकी सर्वव्यापकता, कुष्ठ रोगी की
सेवा, खापर्डे के पुत्र प्लेग, पंढरपुर गमन,
अदभुत अवतार
अदभुत अवतार
श्री साईबाबा समस्त यौगिक
क्रियाओं में पारंगत थे । 6 प्रकार की क्रियाओं के तो वे पूर्ण ज्ञाता थे ।
6 क्रियायें, जिनमें धौति ( एक 3" चौड़े व 22 ½" लम्बे कपड़े के भीगे हुए
टुकड़े से पेट को स्वच्छ करना), खण्ड योग (अर्थात् अपने शरीर के अवयवों को
पृथक-पृथक कर उन्हें पुनः पूर्ववत जोड़ना) और समाधि आदि भी सम्मिलित हैं ।
यदि कहा जाये कि वे हिन्दू थे तो आकृति से वे यवन-से प्रतीत होते थे । कोई
भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता था कि वे हिन्दू थे या यवन । वे हिन्दुओं
का रामनवमी उत्सव यथाविधि मनाते थे और साथ ही मुसलमानों का चन्दनोत्सव भी ।
वे उत्सव में दंगलों को प्रोत्साहन तथा विजेताओं को पर्याप्त पुरस्कार
देते थे । गोकुल अष्टमी को वे 'गोपाल-काला' उत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाते
थे । ईद के दिन वे मुसलमानों को मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिये आमंत्रित
किया करते थे । एक समय मुहर्रम के अवसर पर मुसलमानों ने मस्जिद में ताजिये
बनाने तथा कुछ दिन वहाँ रखकर फिर जुलूस बनाकर गाँव से निकालने का कार्यक्रम
रचा । श्री साईबाबा ने केवल चार दिन ताजियों को वहाँ रखने दिया और बिना
किसी राग-देष के पाँचवे दिन वहाँ से हटवा दिया ।
यदि कहें कि वे यवन थे तो
उनके कान (हिन्दुओं की रीत् के अनुसार) छिदे हुए थे और यदि कहें कि वे
हिन्दू थे तो वे सुन्ता कराने के पक्ष में थे । (नानासाहेब चाँदोरकर,
जिन्होंने उनको बहुत समीप से देखा था, उन्होंने बतलाया कि उनकी सुन्नत नहीं
हुई थी । साईलीला-पत्रिका श्री. बी. व्ही. देव द्वारा लिखित शीर्षक "बाबा
यवन की हिन्दू" पृष्ठ 562 देखो ।) यदि कोई उन्हें हिन्दू घोषित करें तो वे
सदा मस्जिद में निवास करते थे और यदि यवन कहें तो वे सदा वहाँ धूनी
प्रज्वलित रखते थे तथा अन्य कर्म, जो कि इस्लाम धर्म के विरुद्ध है, जैसे -
चक्की पीसना, शंख तथा घंटानाद, होम आदि कार्य करना, अन्नदान और अघ्र्य
द्वारा पूजन आदि सदैव वहाँ चलते रहते थे ।
यदि कोई कहे कि वे यवन थे तो
कुलीन ब्राहमण और अग्निहोत्री भी अपने नियमों का उल्लंघन कर सदा उनको
साष्टांग नमस्कार किया करते थे । जो उनके स्वदेश का पता लगाने गये, उन्हें
अपना प्रश्न ही विस्मृत हो गया और वे उनके दर्शनमात्र से मोहित हो गया ।
अस्तु इसका निर्णय कोई न कर सका कि यथार्थ में साईबाबा हिन्दू थे या यवन ।
इसमें आश्चर्य ही क्या है? जो अहं व इन्द्रियजन्य सुखों को तिलांजलि देकर
ईश्वर की शरण में आ जाता है तथा जब उसे ईश्वर के साथ अभिन्नता प्राप्त हो
जाती है, तब उसकी कोई जाति-पाति नहीं रह जाती । इसी कोटि में श्री साईबाबा
थे । वे जातियों और प्राणियों में किंचित् मात्र भी भेदभाव नहीं रखते थे ।
फकीरों के साथ वे अमिष और मछली का सेवन भी कर लेते थे । कुत्ते भी उनके
भोजन-पात्र में मुँह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे, परन्तु उन्होंने कभी
कोई भी आपत्ति नहीं की । ऐसा अपूर्व और अद्भभुत श्री साईबाबा का अवतार था ।
गत जन्मों के शुभ संस्कारों
के परिणामस्वरुप मुझे भी उनके श्री चरणों के समीप बैठने और उनका सत्संग-लाभ
उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मुझे जिस आनन्द व सुख का अनुभव हुआ, उसका
वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ ? यथार्थ में बाबा अखण्ड सच्चिदानन्द थे ।
उनकी महानता और अद्वितीय का बखान कौन कर सकता है ? जिसने उनके श्री
चरण-कमलों की शरण ली, उसे साक्षात्कार की प्राप्ति हुई । अनेक सन्यासी,
साधक और अन्य मुमुक्षु जन भी श्री साईबाबा के पास आया करते थे । बाबा भी
सदैव उनके साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते, उनसे वार्तालाप कर उनका चित्तरंजन
किया करते थे । 'अल्लाह मालिक' सदैव उनके होठों पर था । वे कभी भी विवाद और
मतभेद में नहीं पडते थे तथा सदा शान्त और स्थिर रहते थे । परन्तु कभी-कभी
वे क्रोधित हो जाया करते थे । वे सदैव ही वेदान्त की शिक्षा दिया करते थे ।
कोई भी अंत तक यह नहीं जान सका कि श्री साईबाबा वास्तव में कौन थे ? अमीर
और गरीब दोनों उनके लिए एक समान थे । वे लोगों के गुह्य व्यपार को
पूर्णतया जानते थे और जब वे रहस्य स्पष्ट करते तो सब विस्मत हो जाते थे ।
स्वयं ज्ञानावतार होकर भी वे सदैव अज्ञानता का प्रदर्शन किया करते थे ।
उन्हें आदरसत्कार से सदैव अरुचि थी । इस प्रकार का श्री साईबाबा का
वैशिष्टय था । थे तो वे शरीरधारी, परन्तु कर्मों से उनकी ईश्वरीयता स्पष्ट
झलकती थी । शिरडी के सकल नर-नारी उन्हें परब्रह्म ही मानते थे ।
बाबा की प्रकृति
मैं मूर्ख जो हूँ, श्री
साईबाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन नहीं कर सकता । शिरडी के प्रायः समस्त
मंदिरों का उन्होंने जीर्णोधार किया । श्री तात्या पाटील के द्वारा शनि,
गणरति, शंकर, पार्वती, ग्राम्यदेवता और हनुमानजी आदि के मंदिर ठीक करवाये ।
उनका दान भी विलक्षण था । दक्षिणा के रुप में जो धन एकत्रित होता था,
उसमें से वे किसी को बीस रुपये, किसी को पंद्रह रुपये या किसी को पचास
रुपये, इसी प्रकार प्रतिदिन स्वच्छन्दतापूर्वक वितरण कर देते थे ।
प्राप्तिकर्ता उसे शुद्ध दान समझता था । बाबा की भी सदैव यही इच्छा थी कि
उसका उपयुक्त रीति से व्यय किया जाय ।
बाबा के दर्शन से भक्तों को
अनेक प्रकार का लाभ पहुँचता था । अनेकों निष्कपट और स्वस्थ बन गये,
दुष्टात्मा पुण्यातमा में परिणत हो गये । अनेकों कुष्ठ रोग से मुक्त हो गए
और अनेकों को मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई । बिना कोई रस या औषधि सेवन
किये, बहुत से अंधों को पुनः दृष्टि प्राप्त हो गई, पंगुओं की पंगुता नष्ट
हो गई । कोई भी उनकी महानता का अन्त न पा सका । उनकी कीर्ति दूर-दूर तक
फैलती गई और भिन्न-भिन्न स्थानों से यात्रियों के झुंड के झुंड शिरडी आने
लगे । बाबा सदा धूनी के पास ही आसन जमाये रहते और वहीं विश्राम किया करते
थे । वे कभी स्नान करते और कभी स्नान किये बिना ही समाधि में लीन रहते थे ।
वे सिर पर एक छोटी सी साफी, कमर में एक धोती और तन ढँकने के लिए एक अंगरखा
धारण करते थे । प्रारम्भ से ही उनकी वेशभूषा इसी प्रकार थी । अपने जीवनकाल
के पू्र्वार्दृ में वे गाँव में चिकित्साकार्य भी किया करते थे । रोगियों
का निदान कर उन्हें औषधि भी देते थे और उनके हाथ में अपरिमित यश था । इस
कारण से वे अल्प काल में ही योग्य चिकित्सक विख्यात हो गये । यहाँ केवल एक
ही घटना का उल्लेख किया जाता है, जो बड़ी विचित्र-सी है ।
विलक्षण नेत्र चिकित्सा
एक भक्त की आँखें बहुत लाल
हो गई थी । उन पर सूजन भी आ गई थी । शिरडी सरीखे छोटे ग्राम में डाक्टर
कहाँ । तब भक्तगण ने रोगी को बाबा के समक्ष उपस्थित किया । इस प्रकार की
पीडा में डाँक्टर प्रायः लेप, मरहम, अंजन, गाय का दूध तथा कपूरयुक्त
औषधियों को प्रयोग में लाते हैं । पर बाबा की औषधि तो सर्वथा ही भिन्न थी ।
उन्होंने भिलावाँ पीस कर उसकी दो गोलियाँ बनायीं और रोगी के नेत्रों में
एक-एक गोली चिपका कर कपड़े की पट्टी से आँखें बाँध दी । दूसरे दिन पट्टी
हटाकर नेत्रों के ऊपर जल के छींटे छोड़े गये । सूजन कम हो गई और नेत्र
प्रायः नीरोग हो गये । नेत्र शरीर का एक अति सुकोमल अंग है, परन्तु बाबा की
औषधि से कोई हानि नहीं पहुँची, वरन् नेत्रों की व्याधि दूर हो गई । इस
प्रकार अनेक रोगी नीरोग हो गये । यह घटना तो केवन उदाहरणस्वरुप ही यहाँ
लिखी गई है ।
बाबा की यौगिक क्रियाएँ
बाबा को समस्त यौगिक प्रयोग और क्रियाएँ ज्ञात थी । उनमें से केवल दो का ही उल्लेख यहाँ किया जाता है –
धौति क्रिया (आतें स्वच्छ
करने की क्रिया) - प्रति तीसरे दिन बाबा मस्जिद से प्रयाप्त दूरी पर, एक वट
वृक्ष के नीचे किया करते थे । एक अवसर पर लोगों ने देखा कि उन्होंने अपनी
आँतों को उदर के बाहर निकालकर उन्हें चारों ओर से स्वच्छ किया और समीप के
वृक्ष पर सूखने के लिये रख दिया । शिरडी में इस घटना की पुष्टि करने वाले
लोग अभी भी जीवित हैं । उन्होंने इस सत्य की परीक्षा भी की थी ।
साधारण धौति क्रिया एक 3”
चौडे व 22 ½ फुट लम्वे गीले कपड़े के टुकड़े से की जाती है । इस कपड़े को
मुँह के द्वारा उदर में उतार लिया जाता हैं तथा इसे लगभग आधा घंटे तक रखे
रहते है, ताकि उसका पूरा-पूरा प्रभाव हो जावे । तत्पश्चात् उसे बाहर निकाल
लेते निकाल लेते हैं । पर बाबा की तो यह धौति क्रिया सर्वथा विचित्र और
असाधारण ही थी ।
खण्डयोग – एक समय बाबा ने
अपने शरीर के अवयव पृथक-पृथक कर मस्जिद के भिन्न-भिन्न स्थानों में बिखेर
दिये । अकस्मात् उसी दिन एक महाशय मस्जिद में पधारे और अंगों को इस प्रकार
यहाँ-वहाँ बिखरा देखकर बहुत ही भयभीत हुए । पहले उनकी इच्छा हुई कि लौटकर
ग्राम अधिकारी के पास यह सूचना भिजवा देनी चाहिये कि किसी ने बाबा का खून
कर उनके टुकडे-टुकडे कर दिये हैं । परन्तु सूचना देने वाला ही पहले पकड़ा
जाता हैं, यह सोचकर वे मौन रहे । दूसरे दिन जब वे मस्जिद में गये तो बाबा
को पूर्ववत् हष्ट पुषट ओर स्वस्थ देखकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ । उन्हें
ऐसा लगा कि पिछले दिन जो दृश्य देखा था, वह कहीं स्वप्न तो नहीं था?
बाबा बाल्याकाल से ही यौगिक
क्रियायें किया करते थे और उन्हें जो अवस्था प्राप्त हो चुकी थी, उसका सत्य
ज्ञान किसी को भी नहीं था । चिकित्सा के नाम से उन्होंने कभी किसी से एक
पैसा भी स्वीकार नहीं किया । अपने उत्तम लोकप्रिय गुणों के कारण उनकी
कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई । उन्होंने अनेक निर्धनों और रोगियों को
स्वास्थ्य प्रदान किया । इस प्रसिदृ डाँक्टरों के डाँक्टर (मसीहों के
मसीहा) ने कभी अपने स्वार्थ की चिन्ता न कर अनेक विघ्नों का सामना किया तथा
स्वयं असहनीय वेदना और कष्ट सहन कर सदैव दूसरों की भलाई की और उन्हें
विपत्तियों में सहायता पहुँचाई । वे सदा परकल्याणार्थ चिंतित रहते थे। ऐसी
एक घटना नीचे लिखी जाती है, जो उनकी सर्वव्यापकता तथा महान् दयालुता की
द्योतक हैं ।
बाबा की सर्वव्यापकता और दयालुता
सन् 1910 में बाबा दीवाली के
शुभ अवसर पर धूनी के समीप बैठे हुए अग्नि ताप रहे थे तथा साथ ही धूनी में
लकड़ी भी डालते जी रहे थे । धूनी प्रचण्डता से प्रज्वलित थी । कुछ समय
पश्चात उन्होने लकड़ियाँ डालने के बदले अपना हाथ धूनी में डाल दिया । हाथ
बुरी तरह से झुलस गया । नौकर माधव तथा माधवराव देशपांडे ने बाबा को धूनी
में हाथ डालते देखकर तुरन्त दौड़कर उन्हें बलपूर्वक पीछे खींच लिया ।
माधवराव ने बाबा से कहा,
"देवा! आपने ऐसा क्यों किया?" बाबा सावधान होकर कहने लगे, "यहाँ से कुछ
दूरी पर एक लुहारिन जब भट्टी धौंक रही थी, उसी समय उसके पति ने उसे बुलाया ।
कमर से बँधे हुए शिशु का ध्यान छोड़ वह शीघ्रता से वहाँ दौड़कर गई ।
अभाग्यवश शिशु फिसल कर भट्टी में गिर पड़ा । मैंने तुरन्त भट्टी में हाथ
डालकर शिशु के प्राण बचा लिये हैं । मुझे अपना हाथ जल जाने का कोई दुःख
नहीं हैं, परन्तु मुझे हर्ष हैं कि एक मासूम शिशु के प्राण बच गये ।"
कुष्ठ रोगी की सेवा
माधवराव देशपांडे के द्वारा
बाबा का हाथ जल जाने का समाचार पाकर श्री नानासाहेव चाँदोरकर, बम्बई के
सुप्रसिद्ध डाँक्टर श्री परमानंद के साथ दवाईयाँ, लेप, लिंट तथा पट्टियाँ
आदि साथ लेकर शीघ्रता से शिरडी को आये । उन्होंने बाबा से डाँक्टर परमानन्द
को हाथ की परीक्षा करने और जले हुए स्थान में दवा लगाने की अनुमति माँगी ।
यह प्रार्थना अस्वीकृत हो गई । हाथ जल जाने के पश्चात एक कुष्ठ-पीडित भक्त
भागोजी शिंदे उनके हाथ पर सदैव पट्टी बाँधते थे । उनका कार्य था प्रतिदिन
जले हुए स्थान पर घी मलना और उसके ऊपर एक पत्ता रखकर पट्टियों से उसे पुनः
पूर्ववत् कस कर बाँध देना । घाव शीघ्र भर जाये, इसके लिये नानासाहेब
चाँदोरकर ने पट्टी छोड़ने तथा डाँ. परमानन्द से जाँच व चिकित्सा कराने का
बाबा से बारंबार अनुरोध किया । यहाँ तक कि डाँ. परमानन्द ने भी अनेक बार
प्रर्थना की, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए टाल दिया कि केवल अल्लाह ही मेरा
डाँक्टर है । उन्होंने हाथ की परीक्षा करवाना अस्वीकार कर दिया । डाँ.
परमानन्द की दवाइयाँ शिरडी के वायुमंडल में न खुल सकीं और न उनका उपयोग ही
हो सका । फिर भी डाँक्टर साहेव की अनुमति मिल गई । कुछ दिनों के उपरांत जब
घाव भर गया, तब सब भक्त सुखी हो गये, परन्तु यह किसी को भी ज्ञात न हो सका
कि कुछ पीडा अवशेष रही थी या नहीं । प्रतिदिन प्रातःकाल वही क्रम-घृत से
हाथ का मर्दन और पुनः कस कर पट्टी बाँधना-श्री साई बाबा की समाधि पर्यन्त
यह कार्य इसी प्रकार चलता रहा । श्री साई बाबा सदृश पूर्ण सिदृ को, यथार्थ
में इस चिकित्सा की भी कोई आवश्यकता नहीं थी, परन्तु भक्तों के प्रेमवश,
उन्होंने भागोजी की यह सेवा (अर्थात् उपासना) निर्विघ्र स्वीकार की । जब
बाबा लेण्डी को जाते तो भागोजी छाता लेकर उनके साथ ही जाते थे । प्रतिदिन
प्रातःकाल जब बाबा धूनी के पास आसन पर विराजते, तब भागोजी वहाँ पहले से ही
उपस्थित रहकर अपना कार्य प्रारम्भ कर देते थे । भागोजी ने पिछले जन्म में
अनेक पाप-कर्म किये थे । इस कारण वे कुष्ठ रोग से पीड़ित थे । उनकी
उँगलियाँ गल चुकी थी और शरीर पीप आदि से भरा हुआ था, जिससे दुर्गन्ध भी आती
थी । यद्यपि बाहृ दृष्टि से वे दुर्भागी प्रतीत होते थे, परंतु बाबा का
प्रधान सेवक होने के नाते, यथार्थ में वे ही अधिक भाग्यशाली तथा सुखी थे ।
उन्हें बाबा के सानिध्य का पूर्ण लाभ प्राप्त हुआ ।
बालक खापर्डे को प्लेग
अब मैं बाबा की एक दुसरी
अद्भभुत लीला का वर्णन करुँगा । श्रीमती खापर्डे (अमरावती के श्री
दादासाहेब खापर्डे की धर्मपत्नी) अपने छोटे पुत्र के साथ कई दिनों से शिरडी
में थी । पुत्र तीव्र ज्वर से पीड़ित था, पश्चात उसे प्लेग की गिल्टी
(गाँठ) भी निकल आई । श्रीमती खापर्डे भयभीत हो बहुत घबराने लगी और अमरावती
लौट जाने का विचार करने लगी । संध्या-समय जब बाबा वायुसेवन के लिए वाड़े
(अब जो समाधि मंदिर कहा जाता है) के पास से जा रहे थे, तब उन्होंने उनसे
लौटने की अनुमति माँगी तथा कम्पित स्वर में कहने लगी कि मेरा प्रिय पुत्र
प्लेग से ग्रस्त हो गया है, अतः अब मैं घर लौटना चाहती हूँ । प्रेमपूर्वक
उनका समाधान करते हुए बाबा ने कहा, "आकाश में बहुत बादल छाये हुए हैं ।
उनके हटते ही आकाश पूर्ववत् स्वच्छ हो जायगा ।" ऐसा कहते हुए उन्होंने कमर
तक अपनी कफनी ऊपर उठाई और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को चार अंडों के बराबर
गिल्टियाँ दिखा कर कहा, "देखो, मुझे अपने भक्तों के लिये कितना कष्ट उठाना
पड़ता हैं । उनके कष्ट मेरे हैं ।" यह विचित्र और असाधारण लीला दिखकर लोगों
को विश्वास हो गया कि सन्तों को अपने भक्तों के लिये किस प्रकार कष्ट सहन
करने पड़ते हैं । संतों का हृदय मोम से भी नरम तथा अन्तर्बाहृ मक्खन जैसा
कोमन होता है । वे अकारण ही भक्तों से प्रेम करते और उन्हे अपना निजी
सम्बंधी समझते हैं ।
पंढरपुर-गमन और निवास
बाबा अपने भक्तों से कितना
प्रेम करते और किस प्रकार उनकी समस्त इच्छाओं तथा समाचारों को पहले से ही
जान लेते थे, इसका वर्णन कर मैं यह अध्याय समाप्त करुँगा ।
नानासाहेव चाँदोरकर बाबा के
परम भक्त थे । वे खानदेश में नंदुरबार के मामलतदार थे । उनका पंढरपुर को
स्थानांतरण हो गया और श्री साई बाबा की भक्ति उन्हें सफल हो गई, क्योंकि
उन्हें पंढरपुर जो भूवैकुण्ठ (पृथ्वी का स्वर्ग) सदृश ही साझा जाता है,
उसमें रहने का अवसर प्राप्त हो गया । नानासाहेव के शीघ्र ही कार्यभार
सम्भालना था, इसलिये वे किसी के पूर्व पत्र या सूचना दिये बिना ही शीघ्रता
से शिरडी को रवाना हो गये । वे अपने पंढरपुर (शिरडी) में अचानक ही पहुँचकर
अपने विठोबा (बाबा) को नमस्कार कर फिर आगे प्रस्थान करना चाहते थे ।
नानासाहेब के आगमन की किसी को भी सूचना न थी । परन्तु बाबा से क्या छिपा था
। वे तो सर्वज्ञ थे । जैसे ही नानासाहेब नीमगाँव पहुँचे (जो शिरडी से कुछ
ही दूरी पर है), बाबा पास बैठे हुए म्हालसापति, अप्पा शिंदे और काशीराम से
वार्तालाप कर रहे थे । उसी समय मस्जिद में स्तब्धता छा गई और बाबा ने अचानक
ही कहा, "चलो, चारों मिलकर भजन करें । पंढरपुर के द्वार खुले हुए हैं" –
यह भजन प्रेमपूर्वक गावें । ("पंढरपुरला जायाचें जायाचें तिथेंच मजला
राह्याचें । तिथेच मजला राह्याचे, घर तें माईया रायांचे ।।") सब मिलकर गाने
लगे । (भावार्थ-"मुझे पंढरपुर जाकर वहीं रहना है, क्योंकि वह मेरे स्वामी
(ईश्वर) का घर है ।") बाबा गाते जाते और दुहराते जाते थे । कुछ समय में
नानासाहेब ने वहाँ सहकुटुम्ब पहुँचकर बाबा को प्रणाम किया । उन्होंने बाबा
से पंढरपुर को साथ पधारने तथा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की । पाठकों अब
इस प्रार्थना की आवश्यकता ही कहाँ थी ? भक्तगण ने नानासाहेब को बतलाया कि
बाबा पंढरपुर निवास के भाव में पहने ही से हैं । यह सुनकर नानासाहेब द्रवित
हो श्री-चरणों पर गिर पड़े और बाबा की आज्ञा, उदी तथा आशीर्वाद प्राप्त कर
वे पंढरपुर को रवाना हो गये ।
बाबा की कथाये अनन्त है ।
अन्य विषय जैसे – मानव जन्म का महत्व, बाबा का भिक्षा-वृत्ति पर निर्वाह,
बायजाबई की सेवा तथा अन्य कथाओं को अगले अध्याय के लिये शेष रखकर अब मुझे
यहाँ विश्राम करना चाहिये ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।