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शिर्डी से सीधा प्रसारण ,... "श्री साँई बाबा संस्थान, शिर्डी " ... के सौजन्य से... सीधे प्रसारण का समय ... प्रात: काल 4:00 बजे से रात्री 11:15 बजे तक ... सीधे प्रसारण का इस ब्लॉग पर प्रसारण केवल उन्ही साँई भक्तो को ध्यान में रख कर किया जा रहा है जो किसी कारणवश बाबा जी के दर्शन नहीं कर पाते है और वह भक्त उससे अछूता भी नहीं रहना चाहते,... हम इसे अपने ब्लॉग पर किसी व्यव्सायिक मकसद से प्रदर्शित नहीं कर रहे है। ...ॐ साँई राम जी...

Saturday, 31 December 2011

साईं तू सब देखता है


ॐ साईं राम
साईं तू सब देखता है
साईं तू सब जानता है 
तकदीर तूने लिखी है, 
मेरी क्या इसमें खता है 
मैने तो वो ही किया है
जो तूने  करवाया है 
तू ही तो है विधाता 
सब तेरा ही तो लिखा है 
साईं तू सब देखता है  
साईं तू सब जानता है 
तेरे ही दम है ये  
जीवन की मेरी खुशियाँ  
मैने कभी न माँगा पर
तूने सब कुछ दिया है 
राज़ी है हम उसी में  
जिसमे तेरी रज़ा है

साईं तू सब देखता है,
साईं तू सब जानता है

यह प्रस्तुति बाबा की बेटी साईं काजल द्वारा लिखी गई |

-: आज का साईं सन्देश :-

इधर उधर क्यों भटकता,
कैसा तेरा ज्ञान |
बाबा जहाँ बिराजते,
वहीँ मिले भगवान् ||

साईं नाम लिये बिना,
होय नहीं कल्याण |
पछतावा रह जायेगा
छूट जायेंगे प्राण ||


Friday, 30 December 2011

मुझसे क्या भूल हुई साईं


ॐ साईं राम

मुझसे क्या भूल हुई साईं
जो यूँ मुझसे मुह मोड़ लिया
जपूं मै तेरा ही नाम सदा
फिर भी नाता क्यों तोड़ लिया
तेरी रहमत हो जाये अगर
जन्नत भी यहीं दिख जाये
मैंने छोड़ के सब पीर पैगम्बर
तेरे चरणों से मन को जोड़ लिया
लाखों देखे योगी तपस्वी
पा न सका प्रभु दर्शन कभी
जब से देखी तेरी सूरत साईं
झूठे जग से नाता तोड़ लिया

मुझसे क्या भूल हुई साईं
जो यूँ मुझसे मुह मोड़ लिया
जपूं मै तेरा ही नाम सदा
फिर भी नाता क्यों तोड़ लिया

यह अरदास बाबा की बेटी जास्मिन करण वालिया द्वारा प्रस्तुत की गई |


-: आज का साईं सन्देश :-


मन इच्छा पूरण करें,
जो झोली फैलाय |
साईं के दरबार से,
कोई न खाली जाय ||


सभी जगह वही रूप है,
कृष्ण कहो या राम |
शिर्डी तीरथ जाय के,
कर लो चारों धाम ||


Thursday, 29 December 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 38

बाबा की हांडी, नानासाहेब द्वारा देव-मूर्ति की उपेक्षा, नैवेद्य वितरण, छाँछ का प्रसाद ।
गत अध्याय में चावड़ी के समारोह का वर्णन किया गया है । अब इस अध्याय में बाबा की हांडी तथा कुछ अन्य विषयों का वर्णन होगा ।
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प्रस्तावना
हे सदगुरु साई ! तुम धन्य हो ! हम तुम्हें नमन करते है । तुमने विश्व को सुख पहुँचाया और भक्तों का कल्याण किया । तुम उदार हृदय हो । जो भक्तगण तुम्हारे अभय चरण-कमलों में अपने को समर्पित कर देते है, तुम उनकी सदैव रक्षा एवं उद्घार किया करते हो । भक्तों के कल्याण और परित्राण के निमित्त ही तुम अवतार लेते हो । ब्रह्म के साँचे में शुद्घ आत्मारुपी द्रव्य ढाला गया और उसमें से ढलकर जो मूर्ति निकली, वही सन्तों के सन्त श्री साईबाबा है । साई स्वयं ही "आत्माराम" और "चिरआनन्द" धाम है । इस जीवन के समस्त कार्यों को नश्वर जानकर उन्होंने भक्तों को निष्काम और मुक्त किया ।

बाबा की हांडी
मानव धर्म-शास्त्र में भिन्न-भिन्न युगों के लिये भिन्न-भिन्न साधनाओं का उल्लेख किया गया है । सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में दान का विशेष माहात्म्य है । सर्व प्रकार के दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । जब मध्याहृ के समय हमें भोजन प्राप्त नहीं होता, तब हम विचलित हो जाते है । ऐसी ही स्थिति अन्य प्राणियों की अनुभव कर जो किसी भिक्षुक या भूखे को भोजन देता है, वही श्रेष्ठ दानी है । तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है कि "अन्न ही ब्रह्म है और उसी से सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा उससे ही वे जीवित रहते है और मृत्यु के उपरांत उसी में लय भी हो जाते है ।" जब कोई अतिथि दोपहर के समय अपने घर आता है तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम उसका अभिन्नदन कर उसे भोजन करावे । अन्य दान जैसे-धन, भूमि और वस्त्र इत्यादि देने में तो पात्रता का विचार करना पड़ता है, परन्तु अन्न के लिये विशेष सोचविचार की आवश्यकता नहीं है । दोपहर के समय कोई भी अपने द्वार पर आए, उसे शीघ्र भोजन कराना हमारा परम कर्त्व्य है । प्रथमतः लूले, लंगड़े, अन्धे या रुग्ण भिखारियों को, फिर उन्हें, जो हाथ पैर से स्वस्थ है और उन सभी के बाद अपने संबन्धियों को भोजन कराना चाहिये । अन्य सभी की अपेक्षा पंगुओं को भोजन कराने का मह्त्व अधिक है । अन्नदान के बिना अन्य सब प्रकार के दान वैसे ही अपूर्ण है, जैसे कि चन्द्रमा बिना तारे, पदक बिना हार, कलश बिना मन्दिर, कमलरहित तलाब, भक्तिरहित, भजन, सिन्दूररहित सुहागिन, मधुर स्वरविहीन गायन, नमक बिना पकवान । जिस प्रकार अन्य भोज्य पदार्थों में दाल उत्तम समझी जाती है, उसी प्रकार समस्त दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । अब देखें कि बाबा किस प्रकार भोजन तैयार कराकर उसका वितरण किया करते थे ।
हम पहले ही उल्लेख कर चुके है कि बाबा अल्पाहारी थे और वे थोड़ा बहुत जो कुछ भी खाते थे, वह उन्हें केवल दो गृहों से ही भिक्षा में उपलब्ध हो जाया करता था । परन्तु जब उनके मन में सभी भक्तों को भोजन कराने की इच्छा होती तो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक संपूर्ण व्यवस्था वे स्वयं किया करते थे । वे किसी पर निर्भर नहीं रहते थे और न ही किसी को इस संबंध में कष्ट ही दिया करते थे । प्रथमतः वे स्वयं बाजार जाकर सब वस्तुएं – अनाज, आटा, नमक, मिर्ची, जीरा खोपरा और अन्य मसाले आदि वस्तुएँ नगद दाम देकर खरीद लाया करते थे । यहाँ तक कि पीसने का कार्य भी वे स्वयं ही किया करते थे । मस्जिद के आँगन में ही एक भट्टी बनाकर उसमें अग्नि प्रज्वलित करके हांडी के ठीक नाप से पानी भर देते थे । हांडी दो प्रकार की थी – एक छोटी और दूसरी बड़ी । एक में सौ और दूसरी में पाँच सौ व्यक्तियों का भोजन तैयार हो सकता था । कभी वे मीठे चावल बनाते और कभी मांसमिश्रित चावल (पुलाव) बनाते थे । कभी-कभी दाल और मुटकुले भी बना लेते थे । पत्थर की सिल पर महीन मसाला पीस कर हांडी में डाल देते थे । भोजन रुचिकर बने, इसका वे भरसक प्रयत्न किया करते थे । ज्वार के आटे को पानी में उबाल कर उसमें छाँछ मिलाकर अंबिल (आमर्टी) बनाते और भोजन के साथ सब भक्तों को समान मात्रा में बाँट देते थे । भोजन ठीक बन रहा है या नहीं, यह जानने के लिये वे अपनी कफनी की बाँहें ऊपर चढ़ाकर निर्भय हो उबलती हांडी में हाथ डाल देते और उसे चारों ओर घुमाया करते थे । ऐसा करने पर भी उनके हाथ पर न कोई जलन का चिन्ह और न चेहरे पर ही कोई व्यथा की रेखा प्रतीत हुआ करती थी । जब पूर्ण भोजन तैयार हो जाता, तब वे मस्जिद से बर्तन मँगाकर मौलवी से फातिहा पढ़ने को कहते थे, फिर वे म्हालसापति तथा तात्या पाटील के प्रसाद का भाग पृथक् रखकर शेष भोजन गरीब और अनाथ लोगों को खिलाकर उन्हें तृप्त करते थे । सचमुच वे लोग धन्य थे । कितने भाग्यशाली थे वे, जिन्हें बाबा के हाथ का बना और परोसा हुआ भोजन खाने को प्राप्त हुआ ।
यहाँ कोई यह शंका कर सकता है कि क्या वे शाकाहारी और मांसाहारी भोज्य पदार्थों का प्रसाद सभी को बाँटा करते थे ? इसका उत्तर बिलकुल सीधा और सरल है । जो लोग मांसाहारी थे, उन्हें हांडी में से दिया जाता था तथा शाकाहारियों को उसका स्पर्श तक न होने देते थे । न कभी उन्होंने किसी को मांसाहार का प्रोत्साहन ही दिया और न ही उनकी आंतरिक इच्छा थी कि किसी को इसके सेवन की आदत लग जाये । यह एक अति पुरातन अनुभूत नियम है कि जब गुरुदेव प्रसाद वितरण कर रहे हो, तभी यदि शिष्य उसके ग्रहण करने में शंकित हो जाय तो उसका अधःपतन हो जाता है । यह अनुभव करने के लिये कि शिष्यगण इस नियम का किस अंश तक पालन करते है, वे कभी-कभी परीक्षा भी ले लिया करते थे । उदाहरणार्थ एक एकादशी के दिन उन्होंने दादा केलकर को कुछ रुपये देकर कुछ मांस खरीद लाने को कहा । दादा केलकर पूरे कर्मकांडी थे और प्रायः सभी नियमों का जीवन में पालन किया करते थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि द्रव्य, अन्न और वस्त्र इत्यादि गुरु को भेंट करना पर्याप्त नहीं है । केवल उनकी आज्ञा ही शीघ्र कार्यान्वित करने से वे प्रसन्न हो जाते है । यही उनकी दक्षिणा है । दादा शीघ्र कपडे पहिन कर एक थैला लेकर बाजार जाने के लिये उद्यत हो गये । तब बाबा ने उन्हें लौटा दिया और कहा कि तुम न जाओ, अन्य किसी को भेज दो । दादा ने अपने नौकर पाण्डू को इस कार्य के निमित्त भेजा । उसको जाते देखकर बाबा ने उसे भी वापस बुलाने को कहकर यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया ।
ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्होंने दादा से कहा कि देखो तो नमकीन पुलाव कैसा पका है ? दादा ने यों ही मुंह देखी कह दिया कि अच्छा है । तब वे कहने लगे कि तुमने न अपनी आँखों से ही देखा है और न जिहा से स्वाद लिया, फिर तुमने यह कैसे कह दिया कि उत्तम बना है ? थोड़ा ढक्कन हटाकर तो देखो । बाबा ने दादा की बाँह पकड़ी और बलपूर्वक बर्तन में डालकर बोले – थोड़ासा इसमें से निकालो और अपना कट्टरपन छोड़कर चख कर देखो । जब माँ का सच्चा प्रेम बच्चे पर उमड़ आता है, तब माँ उसे चिकोटी भरती है, परन्तु उसका चिल्लाना या रोना देखकर वह उसे अपने हृदय से लगाती है । इसी प्रकार बाबा ने सात्विक मातृप्रेम के वश हो दादा का इस प्रकार हाथ पकड़ा । यथार्थ में कोई भी सन्त या गुरु कभी भी अपने कर्मकांडी शिष्य को वर्जित भोज्य के लिये आग्रह करके अपनी अपकीर्ति कराना पसन्द न करेगा ।
इस प्रकार यह हांडी का कार्यक्रम सन् 1910 तक चला और फिर स्थगित हो गया । जैसा पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, दासगणू ने अपने कीर्तन द्वारा समस्त बम्बई प्रांत में बाबा की अधिक कीर्ति फैलाई । फलतः इस प्रान्त से लोगों के झुंड के झुंड शिरडी को आने लगे और थोड़े ही दिनों में शिरडी पवित्र तीर्थ-क्षेत्र बन गया । भक्तगण बाबा को नैवेद्य अर्पित करने के लिये नाना प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ लाते थे, जो इतनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाता था कि फकीरों और भिखारियों को सन्तोषपूर्वक भोजन कराने पर भी बच जाता था । नैवेद्य वितरण करने की विधि का वर्णन करने से पूर्व हम नानासाहेब चाँदोरकर की उस कथा का वर्णन करेंगे, जो स्थानीय देवी-देवताओं और मूर्तियों के प्रति बाबा की सम्मान-भावना की द्योतक है ।

नानासाहेब द्वारा देव-मूर्ति की उपेक्षा
कुछ व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार बाबा को ब्राह्मण तथा कुछ उन्हें यवन समझा करते थे, परन्तु वास्तव में उनकी कोई जाति न थी । उनकी और ईश्वर की केवल एक जाति थी । कोई भी निश्चयपूर्वक यह नहीं जानता कि वे किस कुल में जन्में और उनके माता-पिता कौन थे । फिर उन्हें हिन्दू या यवन कैसे घोषित किया जा सकता है । यदि वे यवन होते तो मसजिद में सदैव धूनी और तुलसी वृन्दावन ही क्यों लागते और शंख, घण्टे तथा अन्य संगीत वाद्य क्यों बजने देते । हिन्दुओं की विविध प्रकार की पूजाओं को क्यों स्वीकार करते । यदि सचमुच यवन होते तो उनके कान क्यों छिदे होते तथा वे हिन्दू मन्दिरों का स्वयं जीर्णोद्घार क्यों करवाते । उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तियों तथा देवी-देवताओ की जरा सी उपेक्षा भी कभी सहन नहीं की ।
एक बार नानासाहेब चाँदोरकर अपने साढू (साली के पति) श्री बिनीवले के साथ शिरडी आये । जब वे मसजिद में पहुँचे, बाबा वार्तालाप करते हुए अनायास ही क्रोधित होकर कहने लगे कि, "तुम दीर्घकाल से मेरे सानिध्य में हो, फिर भी ऐसा आचरण क्यों करते हो ?" नानासाहेब प्रथमतः इन शब्दों का कुछ भी अर्थ न समझ सके । अतः उन्होंने अपना अपराध समझाने की प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि, "तुम कब कोपरगाँव आये और फिर वहाँ से कैसे शिरडी आ पहुँचे ?" तब नानासाहेब को अपनी भूल तुरन्त ही ज्ञात हो गयी । उनका यह नियम था कि शिरडी आने से पूर्व वे कोपरगाँव में गोदावरी के तट पर स्थित श्री दत्त का पूजन किया करते थे । परन्तु रिश्तेदार के दत-उपासक होने पर भी इस बार विलम्ब होने के भय से उन्होंने उनको भी दत्त मंदिर में जाने से हतोत्साहित किया और वे दोनों सीधे शिरडी चले आये थे । अपना दोष स्वीकार कर उन्होंने कहा कि "गोदावरी स्नान करते समय पैर में एक बड़ा काँटा चुभ जाने के कारण अधिक कष्ट हो गया था ।" बाबा ने कहा कि "यह तो बहुत छोटासा दंड था" और उन्हें भविष्य में ऐसे आचरण के लिये सदैव सावधान रहने की चेतावनी दी ।

नैवेद्य -वितरण
अब हम नैवेद्य -वितरण का वर्णन करेंगे । आरती समाप्त होने पर बाबा से आर्शीवाद तथा उदी प्राप्त कर जब भक्तगण अपने-अपने घर चले जाते, तब बाबा परदे के पीछे प्रवेश कर निम्बर के सहारे पीठ टेककर भोजन के लिये आसन ग्रहण करते थे । भक्तों की दो पंक्तियाँ उनके समीप बैठा करती थी । भक्तगण नाना प्रकार के नैवेद्य, पूरी, माण्डे, पेड़ा बर्फी, बांसुदीउपमा (सांजा) अम्बे मोहर (भात) इत्यादि थाली में सजा-सजाकर लाते और जब तक वे नैवेद्य स्वीकार न कर लेते, तब तक भक्तगण बाहर ही प्रतीक्षा किया करते थे । समस्त नैवेद्य एकत्रित कर दिया जाता, तब वे स्वयं ही भगवान को नैवेद्य अर्पण कर स्वयं ग्रहण करते थे । उसमें से कुछ भाग बाहर प्रतीक्षा करने वालों को देकर शेष भीतर बैठे हुए भक्त पा लिया करते थे । जब बाबा सबके मध्य में आ विराजते, तब दोनों पंक्तियों में बैठे हुए भक्त तृप्त होकर भोजन किया करते थे । बाबा प्रायः शामा और निमोणकर से भक्तों को अच्छी तरह भोजन कराने और प्रत्येक की आवश्यकता का सावधानीपूर्वक ध्यान रखने को कहते थे । वे दोनों भी इस कार्य को बड़ी लगन और हर्ष से करते थे । इस प्रकार प्राप्त प्रत्येक ग्रास भक्तों को पोषक और सन्तोषदायक होता था । कितना मधुर, पवित्र, प्रेमरसपूर्ण भोजन था वह? सदा मांगलिक और पवित्र ।

छाँछ (मठ्ठा) का प्रसाद
इस सत्संग में बैठकर एक दिन जब हेमाडपंत पूर्णतः भोजन कर चुके, तब बाबा ने उन्हें एक प्याला छाँछ पीने को दिया । उसके श्वेत रंग से वे प्रसन्न तो हुए, परन्तु उदर में जरा भी गुंजाइश न होने के कारण उन्होंने केवल एक घूँट ही पिया । उनका यह उपेक्षात्मक व्यवहार देखकर बाबा ने कहा कि, "सब पी जाओ । ऐसा सुअवसर अब कभी न पाओगे ।" तब उन्होंने पूरी छाँछ पी ली, किन्तु उन्हे बाबा के सांकेतिक वचनों का मर्म शीघ्र ही विदित हो गया, क्योंकि इस घटना के थोड़े दिनों के पश्चात् ही बाबा समाधिस्थ हो गये ।
पाठकों ! अब हमें अवश्य ही हेमाडपंत के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये, क्योंकि उन्होंने तो छाँछ का प्याला पिया, परन्तु वे हमारे लिये यथेष्ठ मात्रा में श्री साई-लीला रुपी अमृत दे गये । आओ, हम उस अमृत के प्याले पीकर संतुष्ट और सुखी हो जाये ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

साईं तुम तो दौड़े आओगे

ॐ सांई राम

हमसे कैसे दूर जाओगे
जब कभी हम पुकारेंगे तुमको
साईं तुम तो दौड़े आओगे

अपने भक्तों की दुःख भरी आहें
उनकी गम में तड़प रही आँखें
वो ही आँखें तुम्हे बुलाएंगी
फिर तो साईं दौड़े आओगे
 
हमसे कैसे दूर जाओगे
जब कभी हम पुकारेंगे तुमको
साईं तुम तो दौड़े आओगे


जो शिर्डी तेरा बसेरा था
उस शिर्डी में जो भी जाता है
और दर्शन करे समाधी के
उसे गले से तुम लगाओगे
 
हमसे कैसे दूर जाओगे
जब कभी हम पुकारेंगे तुमको
साईं तुम तो दौड़े आओगे


अपने भक्तों से तुमको प्यार तो था
इसीलिये ही वचन निभाते हो
जब कोई दिल से पुकारेगा तुम्हे
फिर तो बाबा दौड़े आओगे


हमसे कैसे दूर जाओगे
जब कभी हम पुकारेंगे तुमको
साईं तुम तो दौड़े आओगे
 

बाबा की बेटी
साईं प्रिया
 :- आज का साईं सन्देश :-
लख चौरासी जीव हैं,
किस-किस में तू  जाय |
साईलीला श्रवण से,
मोक्ष द्वार खुल जाय ||
अगर देखना हो तुझे,
सबसे बड़ा अमीर |
शिर्डी जाकर देख ले,
बाबा रूप फ़क़ीर ||







Wednesday, 28 December 2011

खबर लो हमारी

ॐ साईं राम
 खबर लो हमारी, दया हो तुम्हारी, सुनो साईबाबा
पिलादो, पिलादो प्रेम का प्याला, करो पूरी आशा
खबर लो....
शिर्डी मैं साईनाथ की होती है रोज आरती
कहते है सदगुरु सभी भजते है सारे भारती
इसलाम, हिन्दू, पारसी निस्वार्थी,स्वार्थी
भाविक है जितने आदमी, सबका है तू महात्मा
खबर लो....
एक रोगी महारोगी था, चरणों नाथ के गिरा,
बोला मेरा करो भला, बाबा को आ गयी दया,
थोडी सी खाक के दिया, प्रसाद भक्त ने लिया,
विश्वास का ये फ़ल मिला, रोगी निरोगी हो गया.
खबर लो....
सदगुरु का एक भक्त था, एक मित्र उसका था बुरा,
बोला जिसे तू मानता, क्या उसकी पास है धारा,
निंदक की हो गई दशा, चोरों के हाथ लूट गया,
जब उसने मांग ली क्षमा, चोरी का माल मिल गया.
खबर लो....
अगसर बड़े बड़े है साधन, करते है नाथ का भजन,
भक्ति मैं रहते है मग्न, कलियुग के नाथ है मोहन,
है सत्य पूरण ये वचन, छु ले जो नाथ के चरण,
हो जाये सारे दुःख हरण, सुख पाए उसकी आत्मा.
खबर लो....
बाबा की बेटी
साईं प्रिया


 

Tuesday, 27 December 2011

बाबा के अमृत तुल्य वचन

ॐ साईं राम

दर्शन मेरे पाय वह, प्रेमी मेरा होय |
बिन मेरे संसार को, शून्य मानता होय ||

जप करता हो नाम का, सतत लगाए ध्यान |
केवल मेरी शरण ले, और करे गुणगान ||

शरणागत मेरा बने, छोड़े सकल जहान |
उसका ऋण मुझ पर चढ़े, मुक्ति करूँ प्रदान ||

भूख प्यास मम प्रेम हो, मेरे में मन लाय |
मुझको भोग लगाए बिन, भोजन न कर पाय ||

अहंकार को त्याग के, हृदय होय आसीन |
जो आवे मेरी शरण, मैं उसके आधीन ||

नदियाँ बन भक्तन चलें, मिलें समुन्दर जाय |
मैं सागर बन कर मिलूँ, मुझ में भक्त समाय ||


Sunday, 25 December 2011

जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े

ॐ साईं राम
 
कभी कभी भगवान् को भी भक्तों से काम पड़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े

अवध छोड़ प्रभु वन को धाये
सिया राम लखन गंगा तट आये
केवट मन ही मन हर्षाये
घर बैठे प्रभु दर्शन पाये
हाथ जोड़कर प्रभु के आगे केवट मग्न खड़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े 
कभी कभी भगवान् को भी भक्तों से काम पड़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े

प्रभु बोले तुम नाव चलाओ 
अरे पार हमें केवट पहुँचाओ
केवट बोला सुनो हमारी
चरण धूल की माया भारी
मैं गरीब नैया मेरी नारी न बोये परे
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
कभी कभी भगवान् को भी भक्तों से काम पड़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े

चली नाव गंगा की धारा
सिया राम लखन को पार उतारा
प्रभु देने लगे नाव उतराई
केवट कहे नहीं रघुराई
पार किया मैंने तुमको
अब तू मोहे पार करे   
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
कभी कभी भगवान् को भी भक्तों से काम पड़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े

केवट दौड़ के जल भर लाया
चरण धोये चरणामृत पाया 
वेद ग्रन्थ जिनके गुण गाये
केवट उनको नाव चढ़ाये
बरसे फूल गगन से ऐसे
भक्त के भाग बढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
कभी कभी भगवान् को भी भक्तों से काम पड़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े


 

Friday, 23 December 2011

सबका राम एक है और सबका रहीम एक है

ॐ साईं राम
 
साईं की लीलाओं का,
किसी ने पार न पाया है,
शिर्डी जैसे गाँव को,
बाबा ने स्वर्ग बनाया है,

बाबा जी कहते है,
भेद भाव को दूर करो,
एक परिवार की तरह,
तुम सब मिलकर चलो,

कोई न हिन्दू है न मुस्लिम,
सबका मालिक एक है,
सबका राम एक है और,
सबका रहीम एक है,

भूखों को खाना खिलाकर,
कर्म अच्छे तुम करते जाओ,
जरूरतमंद की मदद करो और,
काम नेक करते जाओ,

कुछ नहीं रहेगा यहाँ,
सब मिटटी में मिल जायेगा,
यह शरीर तुम्हारा,
किसी काम न आएगा,

मानव जन्म मिला है तो,
कर्म कुछ नेक कर लो,
मालिक के पास जाना है,
रूह को अपनी नेक कर लो,

  
बाबा की बेटी
आँचल साईं

Thursday, 22 December 2011

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 37

अध्याय 37 
 चावड़ी का समारोह

इस अध्याय में हम कुछ वेदान्तिक विषयों पर प्रारम्भिक दृष्टि से समालोचना कर चावड़ी के भव्य समारोह का वर्णन करेंगे ।
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प्रारम्भ
धन्य है श्रीसाई, जिनका जैसा जीवन था, वैसी ही अवर्णनीय लीला विलास, और अदभुत क्रियाओं से पूर्ण नित्य के कार्यक्रम भी । कभी तो वे समस्त सांसारिक कार्यों से अलिप्त रहकर कर्मकाण्डी से प्रतीत होते और कभी ब्रह्मानंद और कभी आत्मज्ञान में निमग्न रहा करते थे । कभी वे अनेक कार्य करते हुए भी उनसे असंबन्ध रहते थे । यद्यपि कभी-कभी वे पूर्ण निष्क्रिय प्रतीत होते, तथापि वे आलसी नहीं थे । प्रशान्त महासागर की तरह सदैव जागरुक रहकर भी वे गंभीर, प्रशान्त और स्थिर दिखाई देते थे । उनकी प्रकृति का वर्णन तो सामर्थ्य से परे है ।
यह तो सर्व विदित है कि वे बालब्रह्मचारी थे । वे सदैव पुरुषों को भ्राता तथा स्त्रियों को माता या बहिन सदृश ही समझा करते थे । उनकी संगति द्वारा हमें जिस अनुपम ज्ञान की उपलब्धि हुई है, उसकी विस्मृति मृत्युपर्यन्त न होने पाये, ऐसी उनके श्रीचरणों में हमारी विनम्र प्रार्थना है । हम समस्त भूतों में ईश्वर का ही दर्शन करें और नामस्मरण की रसानुभूति करते हुए हम उनके मोहविनाशक चरणों की अनन्य भाव से सेवा करते रहे, यही हमारी आकांक्षा है ।
हेमाडपंत ने अपने दृष्टिकोण द्वारा आवश्यकतानुसार वेदान्त का विवरण देकर चावड़ी के समारोह का वर्णन निम्न प्रकार किया है -

चावड़ी का समारोह
बाबा के शयनागार का वर्णन पहले ही हो चुका है । वे एक दिन मस्जिद में और दूसरे दिन चावड़ी में विश्राम किया करते थे और यह कार्यक्रम उनकी महासमाधि पर्यन्त चालू रहा । भक्तों ने चावड़ी में नियमित रुप से उनका पूजन-अर्चन 10 दिसम्बर, सन् 1909 से आरम्भ कर दिया था ।
अब उनके चरणाम्बुजों का ध्यान कर, हम चावड़ी के समारोह का वर्णन करेंगे । इतना मनमोहक दृश्य था वह कि देखने वाले ठिठक-ठिठक कर रह जाते थे और अपनी सुध-बुध भूल यही आकांक्षा करते रहते थे कि यह दृश्य कभी हमारी आँखों से ओझल न हो । जब चावड़ी में विश्राम करने की उनकी नियमित रात्रि आती तो उस रात्रि को भक्तों का अपार जन-समुदाय मस्जिद के सभा मंडप में एकत्रित होकर घण्टों तक भजन किया करता था । उस मंडप के एक ओर सुसज्जित रथ रखा रहता था और दूसरी ओर तुलसी वृन्दावन था । सारे रसिक जन सभा-मंडप मे ताल, चिपलिस, करताल, मृदंग, खंजरी और ढोल आदि नाना प्रकार के वाद्य लेकर भजन करना आरम्भ कर देते थे । इन सभी भजनानंदी भक्तों को चुम्बक की तरह आकर्षित करने वाले तो श्री साईबाबा ही थे ।
मस्जिद के आँगन को देखो तो भक्त-गण बड़ी उमंगों से नाना प्रकार के मंगल-कार्य सम्पन्न करने में संलग्न थे । कोई तोरण बाँधकर दीपक जला रहे थे, तो कोई पालकी और रथ का श्रृंगार कर निशानादि हाथों में लिये हुए थे । कही-कही श्री साईबाबा की जयजयकार से आकाशमंडल गुंजित हो रहा था । दीपों के प्रकाश से जगमगाती मस्जिद ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो आज मंगलदायिनी दीपावली स्वयं शिरडी में आकर विराजित हो गई हो । मस्जिद के बाहर दृष्टिपात किया तो द्वार पर श्री साईबाबा का पूर्ण सुसज्जित घोड़ा श्यामसुंदर खड़ा था । श्री साईबाबा अपनी गादी पर शान्त मुद्रा में विराजित थे कि इसी बीच भक्त-मंडलीसहित तात्या पटील ने आकर उन्हें तैयार होने की सूचना देते हुए उठने में सहायता की । घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण तात्या पाटील उन्हें 'मामा' कहकर संबोधित किया करते थे । बाबा सदैव की भाँति अपनी वही कफनी पहिन कर बगल में सटका दबाकर चिलम और तम्बाखू संग लेकर धन्धे पर एक कपड़ा डालकर चलने को तैयार हो गये । तभी तात्या पाटील ने उनके शीश पर एक सुनहरा जरी का शेला डाल दिया । इसके पश्चात् स्वयं बाबा ने धूनी को प्रज्वलित रखने के लिये उसमें कुछ लकड़ियाँ डालकर तथा धूनी के समीप के दीपक को बाँयें हाथ से बुझाकर चावड़ी को प्रस्थान कर दिया । अब नाना प्रकार के वाद्य बजने आरम्भ हो गये और उनसे भाँति-भाँति के स्वर निकलने लगे । सामने रंग-बिरंगी आतिशबाजी चलने लगी और नर-नारी भाँति-भाँति के वाद्य बजाकर उनकी कीर्ति के भजन गाते हुए आगे-आगे चलने लगे । कोई आनंद-विभोर हो नृत्य करने लगा तो कोई अनेक प्रकार के ध्वज और निशान लेकर चलने लगे । जैसे ही बाबा ने मस्जिद की सीढ़ी पर अपने चरण रखे, वैसे ही भालदार ने ललकार कर उनके प्रस्थान की सूचना दी । दोनों ओर से लोग चँवर लेकर खड़े हो गये और उन पर पंखा झलने लगे । फिर पथ पर दूर तक बिछे हुए कपड़ो के ऊपर से समारोह आगे बढ़ने लगा । तात्या पाटील उनका बायाँ तथा म्हालसापति दायाँ हाथ पकड़ कर तथा बापूसाहेब जोग उनके पीछे छत्र लेकर चलने लगे । इनके आगे-आगे पूर्ण सुसज्जित अश्व श्यामसुंदर चल रहा था और उनके पीछे भजन मंडली तथा भक्तों का समूह वाद्यों की ध्वनि के संग हरि और साई नाम की ध्वनि, जिससे आकाश गूँज उठता था, उच्चारित करते हुए चल रहा था । अब समारोह चावड़ी के कोने पर पहुँचा और सारा जनसमुदाय अत्यन्त आनंदित तथा प्रफुल्लित दिखलाई पड़ने लगा । जब कोने पर पहुँचकर बाबा चावड़ी के सामने खड़े हो गये, उस समय उनके मुख-मंडल की दिव्यप्रभा बड़ी अनोखी प्रतीत होने लगी और ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो अरुणोदय के समय बाल रवि क्षितिज पर उदित हो रहा हो । उत्तराभिमुख होकर वे एक ऐसी मुद्रा में खड़े गये, जैसे कोई किसी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हो । वाद्य पूर्ववत ही बजते रहे और वे अपना दाहिना हाथ थोड़ी देर ऊपर-नीचे उठाते रहे । वादक बड़े जोरों से वाद्य बजाने लगे और इसी समय काकासाहेब दीक्षित गुलाल और फूल चाँदी की थाली में लेकर सामने आये और बाबा के ऊपर पुष्प तथा गुलाल की वर्षा करने लगे । बाबा के मुखमंडल पर रक्तिम आभा जगमगाने लगी और सब लोग तृप्त-हृदय हो कर उस रस-माधुरी का आस्वादन करने लगे । इस मनमोहक दृश्य और अवसर का वर्णन शब्दों में करने में लेखनी असमर्थ है । भाव-विभोर होकर भक्त म्हालसापति तो नृत्य करने लगे, परन्तु बाबा की अभंग एकाग्रता देखकर सब भक्तों को महान् आश्चर्य होने लगा । एक हाथ में लालटेन लिये तात्या पाटील बाबा के बाँई ओर और आभूषण लिये म्हालसापति दाहिनी ओर चले । देखो तो, कैसे सुन्दर समारोह की शोभा तथा भक्ति का दर्शन हो रहा है । इस दृश्य की झाँकी पाने के लिये ही सहस्त्रों नर-नारी, क्या अमीर और क्या फकीर, सभी वहाँ एकत्रित थे । अब बाबा मंद-मंद गति से आगे बढ़ने लगे और उनके दोनों ओर भक्तगम भक्तिभाव सहित, संग-संग चले लगे और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण दिखाई पड़ने लगा । सम्पूर्ण वायुमंडल भी खुशी से झूम उठा और इस प्रकार समारोह चावड़ी पहुँचा । अब वैसा दृश्य भविष्य में कोई न देख सकेगा । अब तो केवल उसकी याद करके आँखों के सम्मुख उस मनोरम अतीत की कल्पना से ही अपने हृदय की प्यास शान्त करनी पड़ेगी ।
चावड़ी की सजावट भी अति उत्तम प्रकार से की गई थी । उत्तम चाँदनी, शीशे और भाँति-भाँति के हाँड़ी-लालटेन (गैस बत्ती) लगे हुए थे । चावड़ी पहुँचने पर तात्या पाटील आगे बढ़े और आसन बिछाकर तकिये के सहारे उन्होंने बाबा को बैठाया । फिर उनको एक बढ़िया अँगरखा पहिनाया और भक्तों ने नाना प्रकार से उनकी पूजा की, उन्हें स्वर्ण-मुकुट धारण कराया, तथा फूलों और जवाहरों की मालाएँ उनके गले में पहनाई । फिर ललाट पर कस्तूरी का वैष्णवी तिलक तथा मध्य में बिन्दी लगाकर दीर्घ काल तक उनकी ओर अपलक निहारते रहे । उनके सिर का कपड़ा बदल दिया गया और उसे ऊपर ही उठाये रहे, क्योंकि सभी शंकित थे कि कहीं वे उसे फेक न दे, परन्तु बाबा तो अन्तर्यामी थे और उन्होंने भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने दिया । इन आभूषणों से सुसज्जित होने के उपरान्त तो उनकी शोभा अवर्णनीय थी ।
नानासाहेब निमोणकर ने वृत्ताकार एक सुन्दर छत्र लगाया, जिसके केंद्र में एक छड़ी लगी हुई थी । बापूसाहेब जोग ने चाँदी की एक सुन्दर थाली में पादप्रक्षालन किया और अघ्र्य देने के पश्चात् उत्तम विधि से उनका पूजन-अर्चन किया और उनके हाथों में चन्दन लगाकर पान का बीड़ा दिया । उन्हें आसन पर बिठलाया गया । फिर तात्या पाटील तथा अन्य सब भक्त-गण उनके श्री-चरणों पर अपने-अपने शीश झुकाकर प्रणाम करने लगे । जब वे तकिये के सहारे बैठ गये, तब भक्तगण दोनों ओर से चँवर और पंखे झलने लगे । शामा ने चिलम तैयार कर तात्या पाटील को दी । उन्होंने एक फूँक लगाकर चिलम प्रज्वलित की और उसे बाबा को पीने को दिया । उनके चिलम पी लेने के पश्चात फिर वह भगत म्हालसापति को तथा बाद में सब भक्तों को दी गई । धन्य है वह निर्जीव चिलम । कितना महान् तप है उसका, जिसने कुम्हार द्वारा पहिले चक्र पर घुमाने, धूप में सुखाने, फिर अग्नि में तपाने जैसे अनेक संस्कार पाये । तब कहीं उसे बाबा के कर-स्पर्श तथा चुम्बन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । जब यह सब कार्य समाप्त हो गया, तब भक्तगण ने बाबा को फूलमालाओं से लाद दिया और सुगन्धित फूलों के गुलदस्ते उन्हें भेंट किये । बाबा तो वैराग्य के पूर्ण अवतार थे और वे उन हीरे-जवाहरात व फूलों के हारों तथा इस प्रकार की सजधज में कब रुचि लेने वाले थे ? परन्तु भक्तों के सच्चे प्रेमवश ही, उनके इच्छानुसार पूजन करने में उन्होंने कोई आपत्ति न की । अन्त में मांगलिक स्वर में वाद्य बजने लगे और बापूसाहेब जोग ने बाबा की यथाविधि आरती की । आरती समाप्त होने पर भक्तों ने बाबा को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर सब एक-एक करके अपने घर लौटने लगे । तब तात्या पाटील ने उन्हें चिनम पिलाकर गुलाब जल, इत्र इत्यादि लगाया और विदा लेते समय एक गुलाब का पुष्प दिया । तभी बाबा प्रेमपूर्वक कहने लगे कि, "तात्या, मेरी देखभाल भली भाँति करना । तुम्हें घर जाना है तो जाओ, परन्तु रात्रि में कभी-कभी आकर मुझे देख भी जाना ।" तब स्वीकारात्मक उत्तर देकर तात्या पाटील चावड़ी से अपने घर चले गये । फिर बाबा ने बहुत सी चादरें बिछाकर स्वयं अपना बिस्तर लगाकर विश्राम किया ।
अब हम भी विश्राम करें और इस अध्याय को समाप्त करते हुये हम पाठकों से प्रार्थना करते है कि वे प्रतिदिन शयन के पूर्व श्री साईबाबा और चावड़ी समारोह का ध्यान अवश्य कर लिया करें ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Wednesday, 21 December 2011

बस बाबा के पास ही रहना चाहूं मैं

ॐ साईं राम
  आज न जाने क्यों मन अशांत है,
साईं से मिलने की आस है,
शिर्डी जाना चाहूं पर,
कुछ मजबूरियां मेरे साथ है,

बाबा के सिवा कुछ न चाहूं मैं,
बस बाबा के पास ही रहना चाहूं मैं,
सेवा करू साईं चरणों की,
दुनिया को भूल जाऊं मैं,

साईं के प्यारे माथे पर,
चन्दन लगाना चाहूं मैं,
बाबा के पावन चरणों पर,
फूल चढ़ाना चाहूं मैं,

बाबा के लिए भोग बनाना चाहूं में,
भोग में बाबा की पसंदिता,
पूरनपोली, और कचौहरी,
बनाना चाहूं मैं,

कर दो कृपा मेरे देवा,
ये इतना सा बस मांगूं मैं,
तेरी सेवा के बदले,
तुझसे कुछ न चाहूं में,

आज ना जाने क्यों मन अशांत है,
साईं से मिलने की आस है,
शिर्डी जाना चाहूं पर,
कुछ मजबूरियां मेरे साथ है
 
बाबा की बेटी
आँचल साईं

Tuesday, 20 December 2011

अब हम जैसे भी है, साईं जी तेरे है

ॐ साईं राम
 अब हम जैसे भी है, साईं जी  तेरे है,
तू है मालिक हमारा, हम सेवक तेरे है,

ये जानते है हम बाबा जी,
क़ि हम किसी लायक नहीं,
लेकिन तेरे सिवा बाबा,
कोई हमे अपनाएगा नहीं,

अब हम जैसे भी है, साईं जी  तेरे है,
तू है मालिक हमारा, हम सेवक तेरे है,

करम कर दो मेरे साईं,
अपना लो हमे,
झूटी इस दुनिया से,
बचा लो हमे,

बचा लो हमे,

अब हम जैसे भी है, साईं जी  तेरे है,
तू है मालिक हमारा, हम सेवक तेरे है,

न माँगूं कुछ मैं तुझे बाबा,
तू जाने सब कुछ है,
बिन मांगे मेरे साईं,
देता तू सब कुछ है,

देता तू सब कुछ है,

अब हम जैसे भी है,
साईं जी  तेरे है,
तू है मालिक हमारा,
हम सेवक तेरे है
बाबा की बेटी
आँचल साईं
 

Monday, 19 December 2011

शिर्डी है पावन धाम हमारा

ॐ साईं राम
शिर्डी है पावन धाम हमारा,
वहां है हमारे साईं का ठिकाना,

साईं विराजे है सिंघासन पे,
करते भक्तो का इंतज़ार है,
भक्तो के लिए बाबा,
करते हर इन्तेजाम है,

करके बाबा के दर्शन,
भक्तो के मन को आता करार,
टेक के माथा समाधी पे,
मिटता हर जन जाल है,

गुरु स्थान पे जाकर ध्यान लगाओ,
बाबा ने वहाँ तपस्या की,
नीम वृक्ष के पत्ते कडवे थे,
बाबा ने मिठास उनमे भी भर दी,

द्वारकामाई में बाबा ने,
धुनी माई थी जलाई,
उद्दी की महिमा आज तक,
न किसी की समझ आई ! 
 
बाबा की बेटी
आँचल साईं

Sunday, 18 December 2011

श्रद्धा सबुरी

ॐ साईं राम
  हर चीज़ देन है मेरे साईं की,
साईं से ही मेरा संसार,
बिन साईं के मैं ऐसी,
जैसे बिन माझी के नाव,

जब से मिला है साईं सहारा,
आस नहीं किसी और चीज़ की,
पूरी होती हर मुराद वही से,
उलझन नहीं किसी चीज़ की,

बाबा आप तो कृपालु हो,

सब पर अपना प्यार बरसाते,
उसके बदले भक्तो से तुम,
बस श्रद्धा सबुरी चाहते हो,

हे दिन दयालु साईं,
कृपा मुझपे भी कर दो,
मेरी झोली में बस बाबा तुम,
श्रद्धा सबुरी भर दो,

श्रद्धा सबुरी
जो मुझे मिल जाएगी,
तो हर चीज़ मिल जाएगी,
श्रद्धा हमेशा बरसेगी बाबा,
सबुरी में जिंदगी बीत जाएगी!
 
बाबा की बेटी 
आँचल साईं

Saturday, 17 December 2011

साईं के दरबार में पूरी होती हर कामना

ॐ साईं राम

साईं के दरबार में पूरी होती हर कामना,
माथा टेक समाधी पे शुद्ध होती आत्मा,

बाबा प्रेम भक्त से करते है,
उसके हर दुःख हर लेते है,
भटकने से गलत राह पर,
भक्तो को बचा लेते है,

आता है जो दरबार में रोता हुआ,
बाबा उससे हसा के भेजते है,
जिसकी जैसी होती है भावना,
वैसा ही फल देते है,

साईं की लीलाओं का,
किसी ने पार न पाया है,
भक्तो के खातिर बाबा ने,
स्वयं भार उठाया है,

सबकी इच्छा पूरी करते है साईं,
सबका ध्यान रखते है,
बाबाजी अपने भक्तो से,
बहुत प्रेम करते है,

झुका दो अपना शीश तुम भी,
बाबा के पावन चरणों में,
स्वर्ग मिलेगा जीते जी,
बाबाजी के पावन चरणों में!


साईं कृपा हम सब पर बनी रहे!

Friday, 16 December 2011

एक संदेसा

ॐ साईं राम

शिर्डी जो भी जाए ,
मेरा संदेसा लेकर जाए,
बाबा जी को कहना,
आँचल को जल्दी बुलाये,

तरसती हूँ मैं तेरे दरबार को,
जल्दी बुला लो मेरे साईं,
दर्शन देकर अपने मुझे,
मेरी प्यास बुझा दो,

तेरा भोग खाते ही बाबा,
भूख मेरी मिट जाती है,
आरती तेरी करने से,
सब पीड़ा मिट जाती है,

जब मैं बैठूँ द्वारकामाई में,
पास मेरे किसी रूप में आ जाना,
अपने प्यारे हाथों से,
सिर मेरा सहलाना,

जाऊं जब में गुरुस्थान पर,
माथा टेकूं भोग लगाऊँ,
और प्रसाद रूप में,
मीठे नीम के पत्ते मैं पाऊँ,

बाबा तुम तो हो कृपालु,
कृपा मुझ पर भी कर दो,
बुला लो शिर्डी जल्दी से,
और न अब देर करो !!

एक संदेसा
बाबा की बेटी आँचल साईं

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एक 18 साल का लड़का ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा था. अचानक वो ख़ुशी में जोर से चिल्लाया "पिताजी, वो देखो, पेड़ पीछे जा रहा हैं". उसके पिता ने स्नेह से उसके सर पर हाँथ फिराया. वो लड़का फिर चिल्लाया "पिताजी वो देखो, आसमान में बादल भी ट्रेन के साथ साथ चल रहे हैं". पिता की आँखों से आंसू निकल गए. पास बैठा आदमी ये सब देख रहा था. उसने कहा इतना बड़ा होने के बाद भी आपका लड़का बच्चो जैसी हरकते कर रहा हैं. आप इसको किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों नहीं दिखाते?? पिता ने कहा की वो लोग डॉक्टर के पास से ही आ रहे हैं. मेरा बेटा जनम से अँधा था, आज ही उसको नयी आँखे मिली हैं. #नेत्रदान करे. किसी की जिंदगी में रौशनी भरे.