*चित्र की कथा, चिंदियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी के पठन की कथा ।*
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गत अध्याय में वर्णित घटना के नौ वर्ष पश्चात् अली मुहम्मद हेमाडपंत से मिले और वह पिछली कथा निम्निखित रुप में सुनाई ।
"एक दिन बम्बई में
घूमते-फिरते मैंने एक दुकानदार से बाबा का चित्र खरीदा । उसे फ्रेम कराया
और अपने घर (मध्य बम्बई की बस्ती में) लाकर दीवार पर लगा दिया । मुझे बाबा
से स्वाभाविक प्रेम था । इसलिये मैं प्रतिदिन उनका श्री दर्शन किया करता था
। जब मैंने आपको (हेमाडपंत को) वह चित्र भेंट किया, उसके तीन माह पूर्व
मेरे पैर में सूजन आने के कारण शल्यचिकित्सा भी हुई थी । मैं अपने साले नूर
मुहम्मद के यहाँ पड़ा हुआ था । खुद मेरे घर पर तीन माह से ताला लगा था और
उस समय वहाँ पर कोई न था । केवल प्रसिद्ध बाबा अब्दुल रहमान, मौलाना साहेब,
मुहम्मद हुसेन, साई बाबा, ताजुद्दीन बाबा और अन्य सन्त चित्रों के रुप में
वही विराजमान थे, परन्तु कालचक्र ने उन्हें भी वहाँ न छोड़ा । मैं वहाँ
(बम्बई) बीमार पड़ा हुआ था तो फिर मेरे घर में उन लोगों (फोटो) को कष्ट
क्यों हो? ऐसा समझ में आता है कि वे भी आवागमन (जन्म और मृत्यु) के चक्कर
से मुक्त नहीं है । अन्य चित्रों की गति तो उनके भाग्यनुसार ही हुई, परन्तु
केवल श्री साईबाबा का ही चित्र कैसे बच निकला, इसका रहस्योदघाटन अभी तक
कोई नहीं कर सका है । इससे श्री साईबाबा की सर्वव्यापकता और उनकी असीम
शक्ति का पता चलता है ।"
*"कुछ वर्ष पूर्व मुझे
मुहम्मद हुसेन थारिया टोपण से सन्त बाबा अब्दुल रहमान का चित्र प्राप्त हुआ
था, जिसे मैंने अपने साले नूर मुहम्मद पीरभाई को दे दिया, जो गत आठ वर्षों
से उसकी मेज पर पड़ा हुआ था । एक दिन उसकी दृष्टि इस चित्र पर पड़ी, तब
उसने उसे फोटोग्राफर के पास ले जाकर उसकी बड़ी फोटो बनवाई और उसकी कापियाँ
अपने कई रिश्तेदारों और मित्रों में वितरित की । उनमें से एक प्रति मुझे भी
मिली थी, जिसे मैंने अपने घर की दीवार पर लगा रखा था । नूर मुहम्मद सन्त
अब्दुल रहमान के शिष्य थे । जब सन्त अब्दुल रहमान साहेब का आम दरबार लगा
हुआ था, तभी नूर मुहम्मद उन्हें वह फोटो भेंट करने के हेतु उनके समक्ष
उपस्थित हुए । फोटो को देखते ही वे अति क्रोधित हो नूर मुहम्मद को मारने
दौड़े तथा उन्हें बाहर निकाल दिया । तब उन्हें बड़ा दुःख और निराशा हुई ।
फिर उन्हें विचार आया कि मैंने इतना रुपया व्यर्थ ही खर्च किया, जिसका
परिणाम अपने गुरु के क्रोध और अप्रसन्नता का कारण बना । उनके गुरु मूर्ति
पूजा के विरोधी थे, इसलिये वे हाथ में फोटो लेकर अपोलो बन्दर पहुँचे और एक
नाव किराये पर लेकर बीच समुद्र में वह फोटो विसर्जित कर आये । नूर मुहम्मद
ने अपने सब मित्रों और सम्बन्धियों से भी प्रार्थना कर सब फोटो वापस बुला
लिये (कुल छः फोटो थे) और एक मछुए के हाथ से बांद्रा के निकट समुद्र में
विसर्जित करा दिये ।"
*इस समय मैं अपने साले के घर
पर ही था । तब नूर मुहम्मद ने मुझसे कहा कि यदि तुम सन्तों के सब चित्रों
को समुद्र में विसर्जित करा दोगे तो तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे । यह सुनकर
मैंने मैनेजर मेहता को अपने घर भेजा और उसके द्वारा घर में लगे हुए सब
चित्रों को समुद्र में विसर्जित करा दिया । दो माह पश्चात जब मैं अपने घर
वापस लौटा तो बाबा का चित्र पूर्ववत् लगा देखकर मुझे महान् आश्चर्य हुआ ।
मैं समझ न सका कि मेहता ने अन्य सब चित्र तो निकालकर विसर्जित कर दिये, पर
केवल यही चित्र कैसे बच गया ? तब मैंने तुरन्त ही उसे निकाल लिया और सोचने
लगा कि कहीं मेरे साले की दृष्टि इस चित्र पर पड़ गई तो वह इसकी भी इतिश्री
कर देगा । जब मैं ऐसा विचार कर ही रहा था कि इस चित्र को कौन अच्छी तरह
सँभाल कर रख सकेगा, तब स्वयं श्री साईबाबा ने सुझाया कि मौलाना इस्मू
मुजावर के पास जाकर उनसे परामर्श करो और उनकी इच्छानुसार ही कार्य करो ।
मैंने मौलाना साहेब से भेंट की और सब बाते उन्हें बतलाई । कुछ देर विचार
करने के पस्चात् वे इस निर्णय पर पहुँचे कि इस चित्र को आपको (हेमाडपंत) ही
भेंट करना उचित है, क्योकि केवल आप ही इसे उत्तम प्रकार से सँभालने के
लिये सर्वथा सत्पात्र है । तब हम दोनों आप के घर आये और उपयुक्त समय पर ही
यह चित्र आपको भेंट कर दिया । इस कथा से विदित होता है कि बाबा
त्रिकालज्ञानी थे और कितनी कुशलता से समस्या हल कर भक्तों की इच्छायें
पूर्ण किया करते थे । निम्नलिखित कथा इस बात का प्रतीक है कि आध्यात्मिक
जिज्ञासुओं पर बाबा किस प्रकार स्नेह रखते तथा किस प्रकार उनके कष्ट निवारण
कर उन्हें सुख पहुँचाते थे ।"
*चिन्दियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी का पठन*
*श्री. बी. व्ही. देव, जो उस
समय डहाणू के मामलेदार थे, को दीर्घकाल से अन्य धार्मिक ग्रन्थों के
साथ-साथ ज्ञानेश्वरी के पठन की तीव्र इच्छा थी । (ज्ञानेश्वरी भगवदगीता पर
श्री ज्ञानेश्वर महाराज द्वारा रचित मराठी टीका है ।) वे भगवदगीता के एक
अध्याय का नित्य पाठ करते तथा थोड़े बहुत अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करते
थे । परन्तु जब भी वे ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो उनके समक्ष अनेक
बाधाएँ उपस्थित हो जाती, जिससे वे पाठ करने से सर्वथा वंचित रह जाया करते
थे । तीन मास की छुट्टी लेकर वे शिरडी पधारे और तत्पश्चात वे अपने घर पौड
में विश्राम करने के लिये भी गये । अन्य ग्रन्थ तो वे पढ़ा ही करते थे,
परन्तु जब ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो नाना प्रकार के कलुषित
विचार उन्हें इस प्रकार घेर लेते कि लाचार होकर उसका पठन स्थगित करना पड़ता
था । बहुत प्रयत्न करने पर भी जब उनको केवल दो चार ओवियाँ पढ़ना भी दुष्कर
हो गया, तब उन्होंने यह निश्चय किया कि जब दयानिधि श्री साई ही कृपा करके
इस ग्रन्थ के पठन की आज्ञा देंगे, तभी उसका श्रीगणेश करुँगा । सन् 1914 के
फरवरी मास में वे सहकुटुम्ब शिरडी पधारे । तभी श्री. जोग ने उनसे पूछा कि
क्या आप ज्ञानेश्वरी का नित्य पठन करते है ? श्री. देव ने उत्तर दिया कि
"मेरी इच्छा तो बहुत है, परन्तु मैं ऐसा करने में सफलता नहीं पा रहा हूँ ।
अब तो जब बाबा की आज्ञा होगी, तभी प्रारम्भ करुँगा ।" श्री, जोग ने सलाह दी
कि ग्रन्थ की एक प्रति खरीद कर बाबा को भेंट करो और जब वे अपने करकमलों से
स्पर्श कर उसे वापस लौटा दे, तब उसका पठन प्रारम्भ कर देना । श्री. देव ने
कहा कि, "मैं इस प्रणाली को श्रेयस्कर नहीं समझता, क्योंकि बाबा तो
अन्तर्यामी है और मेरे हृदय की इच्छा उनसे कैसे गुप्त रह सकती है ? क्या वे
स्पष्ट शब्दों में आज्ञा देकर मेरी मनोकामना पूर्ण न करेंगें?"
*श्री. देव ने जाकर बाबा के
दर्शन किये और एक रुपया दक्षिणा भेंट की । तब बाबा ने उनसे बीस रुपये
दक्षिणा और माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी । रात्रि के समय श्री. देव ने
बालकराम से भेंट की और उनसे पूछा, "आपने किस प्रकार बाबा की भक्ति तथा कृपा
प्राप्त की है ?" बालकराम ने कहा, "मैं दूसरे दिन आरती समाप्त होने के
पश्चात् आपको पूर्ण वृतान्त सुनाऊँगा ।" दूसरे दिन जब श्री. देवसाहब
दर्शनार्थ मस्जिद में आये तो बाबा ने फिर बीस रुपये दक्षिणा माँगी, जो
उन्होंने सहर्ष भेंट कर दी । मस्जिद में भीड़ अधिक होने के कारण वे एक ओर
एकांत में जाकर बैठ गये । बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने समीप बैठा लिया ।
आरती समाप्त होने के पश्चात जब सब लोग अपने घर लौट गये, तब श्री. देव ने
बालकराम से भेंट कर उनसे उनका पूर्व इतिहास जानने की जिज्ञासा प्रगट की तथा
बाबा द्वारा प्राप्त उपदेश और ध्यानादि के संबंध में पूछताछ की । बालकराम
इन सब बातों का उत्तर देने ही वाले थे कि इतने में चन्द्रू कोढ़ी ने आकर
कहा कि श्री. देव को बाबा ने याद किया है । जब देव बाबा के पास पहुँचे तो
उन्होंने प्रश्न किया कि वे किससे और क्या बातचीत कर रहे थे? श्री. देव ने
उत्तर दिया कि वे बालकराम से उनकी कीर्ति का गुणगान श्रवण कर रहे थे । तब
बाबा ने उनसे पुनः 25 रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी । फिर
बाबा उन्हें भीतर ले गये और अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात् उन पर दोषारोपण
करते हुए कहा कि, "मेरी अनुमति के बिना तुमने मेरी चिन्दियों की चोरी की
है ।" श्री. देव ने उत्तर दिया "भगवन! जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने ऐसा
कोई कार्य नहीं किया है ।" परन्तु बाबा कहाँ मानने वाले थे? उन्होंने अच्छी
तरह ढँढ़ने को कहा । उन्होंने खोज की, परन्तु कहीं कुछ भी न पाया । तब
बाबा ने क्रोधित होकर कहा कि तुम्हारे अतिरिक्त यहाँ और कोई नहीं हैं ।
तुम्ही चोर हो । तुम्हारे बाल तो सफेद हो गये है और इतने वृद्ध होकर भी तुम
यहां चोरी करने को आये हो? इसके पश्चात् बाबा आपे से बाहर हो गये और उनकी
आँखें क्रोध से लाल हो गई । वे बुरी तरह से गालियाँ देने और डाँटने लगे ।
देव शान्तिपूर्वक सब कुछ सुनते रहे । वे मार पड़ने की भी आशंका कर रहे थे
कि एक घण्टे के पश्चात् ही बाबा ने उनसे वाड़े में लौटने को कहा । वाड़े को
लौटकर उन्होंने जो कुछ हुआ था, उसका पूर्ण विवरण जोग और बालकराम को सुनाया
। दोपहर के पश्चात बाबा ने सबके साथ देव को भी बुलाया और कहने लगे कि शायद
मेरे शब्दों ने इस वृद्ध को पीड़ा पहुँचाई होगी । इन्होंने चोरी की है और
इसे ये स्वीकार नहीं करते है । उन्होंने देव से पुनः बारह रुपये दक्षिणा
माँगी, जो उन्होंने एकत्र करके सहर्ष भेंट करते हुए उन्हें नमस्कार किया ।
तब बाबा देव से कहने लगे कि, "तुम आजकल क्या कर रहे हो ?" देव ने उत्तर
दिया कि, "कुछ भी नहीं ।" तब बाबा ने कहा, "प्रतिदिन पोथी (ज्ञानेश्वरी) का
पाठ किया करो । जाओ, वाडें में बैठकर क्रमशः नित्य पाठ करो और जो कुछ भी
तुम पढ़ो, उसका अर्थ दूसरों को प्रेम और भक्तिपूर्वक समझाओ । मैं तो
तुम्हें सुनहरा शेला (दुपट्टा) भेंट देना चाहता हूँ, फिर तुम दूसरों के
समीप चिन्दियों की आशा से क्यों जाते हो? क्या तुम्हें यह शोभा देता है ?"
*पोथी पढ़ने की आज्ञा
प्राप्त करके देव अति प्रसन्न हुए । उन्होंने सोचा कि मुझे इच्छित वस्तु की
प्राप्ति हो गई है और अब मैं आनन्दपूर्वक पोथी (ज्ञानेश्वरी) पढ़ सकूँगा ।
उन्होंने पुनः साष्टांग नमस्कार किया और कहा कि, "हे प्रभु! मैं आपकी शरण
हूँ । आपका अबोध शिशु हूँ । मुझे पाठ में सहायता कीजिये ।" अब उन्हें
चिन्दियों का अर्थ स्पष्टतया विदित हो गया था । उन्होंने बालकराम से जो कुछ
पूछा था, वह चिन्दी स्वरुप था । इन विषयों में बाबा को इस प्रकार का कार्य
रुचिकर नहीं था । क्योंकि वे स्वयं प्रत्येक शंका का समाधान करने को सदैव
तैयार रहते थे । दूसरों से निरर्थक पूछताछ करना वे अच्छा नहीं समझते थे,
इसलिये उन्होंने डाँटा और क्रोधित हुए । देव ने इन शब्दों को बाबा का शुभ
आर्शीवाद समझा तथा वे सन्तुष्ट होकर घर लौट गये ।
*यह कथा यहीं समाप्त नहीं
होती । अनुमति देने के पश्चात् भी बाबा शान्त नहीं बैठे तथा एक वर्ष के
पश्चात ही वे श्री. देव के समीप गये और उनसे प्रगति के विषय में पूछताछ की।
2 अप्रैल, सन् 1914 गुरुवार को सुबह बाबा ने स्वप्न में देव से पूछा कि,
"क्या तुम्हें पोथी समझ में आई?" जब देव ने स्वीकारात्मक उत्तर न दिया तो
बाबा बोले कि, "अब तुम कब समझोगे?" देव की आँखों से टप-टप करके अश्रुपात
होने लगा और वे रोते हुए बोले कि, "मैं निश्चयपूर्वक कह रहा हूँ कि, हे
भगवान् ! जब तक आपकी कृपा रुपी मेघवृष्टि नहीं होती, तब तक उसका अर्थ समझना
मेरे लिये सम्भव नहीं है और यह पठन तो भारस्वरुप ही है ।" तब वे बोले कि,
"मेरे सामने मुझे पढ़कर सुनाओ । तुम पढ़ने में अधिक शीघ्रता किया करते हो
।" फिर पूछने पर उन्होंने अध्यात्म विषयक अंश पढ़ने को कहा । देव पोथी लाने
गये और जब उन्होंने नेत्र खोले तो उनकी निद्रा भंग हो गई थी । अब पाठक
स्वयं ही इस बात का अनुमान कर लें कि देव को इस स्वप्न के पश्चात् कितना
आनंद प्राप्त हुआ होगा ?
*(श्री.
देव अभी (सन् 1944) जीवित है और मुझे गत 4-5 वर्षों के पूर्व उनसे भेंट
करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । जहाँ तक मुझे पता चला है, वह यही है कि
वे अभी भी ज्ञानेश्वरी का पाठ किया करते है । उनका ज्ञान अगाध और पूर्ण है ।
यह उनके साई लीला के लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है) । (ता. 19.10.1944)
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।