मुक्ति-दान
सन्यासी विजयानंद
बालाराम मानकर
नूलकर
मेघा और
बाबा के सम्मुख बाघ की मुक्ति
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इस अध्याय में हेमाडपंत बाबा के सामने कुछ भक्तों की मृत्यु तथा बाघ के प्राण-त्याग की कथा का वर्णन करते है ।
प्रारम्भ
मृत्यु के समय जो अंतिम
इच्छा या भावना होती है, वही भवितव्यता का निर्माण करती है । श्री कृष्ण ने
गीता (अध्याय-8) में कहा है कि जो अपने जीवन के अंतिम क्षण में मुझे स्मरण
करता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है तथा उस समय वह जो कुछ भी दृश्य देखता
है, उसी को अन्त में पाता है । यह कोई भी निश्चयात्मक रुप से नहीं कह सकता
कि उस क्षण हम केवल उत्तम विचार ही कर सकेंगे । जहाँ तक अनुभव में आया है,
ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय अनेक कारणों से भयभीत होने की संभावना अधिक
होती है । इसके अनेक कारण है । इसलिये मन को इच्छानुसार किसी उत्तम विचार
के चिंतन में ही लगाने के लिए नित्याभ्यास अत्यन्त आवश्यक है । इस कारण सभी
संतों ने हरिस्मरण और जप को ही श्रेष्ठ बताया है, ताकि मृत्यु के समय हम
किसी घरेलू उलझन में न पड़ जायें । अतः ऐसे अवसर पर भक्तगण पूर्णतः सन्तों
के शरणागत हो जाते है, ताकि संत, जो कि सर्वज्ञ है, उचित पथप्रदर्शन कर
हमारी यथेष्ठ सहायता करें । इसी प्रकार के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है ।
1. विजयानन्द
एक मद्रासी सन्यासी विजयानंद
मानसरोवर की यात्रा करने निकले । मार्ग में वे बाबा की कीर्ति सुनकर शिरडी
आये, जहाँ उनकी भेंट हरिद्वार के सोमदेव जी स्वामी से हुई और इनसे
उन्होंने मानसरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में पूछताछ की । स्वामीजी ने
उन्हें बताया कि गंगोत्री से मानसरोवर 500 मील उत्तर की ओर है तथा मार्ग
में जो कष्ट होते है, उनका भी उल्लेख किया जैसे कि बर्फ की अधिकता, 50 कोस
तक भाषा में भिन्नता तथा भूटानवासियों के संशयी स्वभाव, जो यात्रियों को
अधिक कष्ट पहुँचाया करते है । यह सब सुनकर सन्यासी का चित्त उदास हो गया और
उसने यात्रा करने का विचार त्यागकर मस्जिद में जाकर बाबा के श्री चरणों
का स्पर्श किया । बाबा क्रोधित होकर कहने लगे – "इस निकम्मे सन्यासी को
निकालो यहाँ से । इसका संग करना व्यर्थ है ।" सन्यासी बाबा के स्वभाव से
पूर्ण अपरिचित था । उसे बड़ी निराशा हुई, परन्तु वहाँ जो कुछ भी गतिविधियाँ
चल रही थी, उन्हें वह बैठे-बैठे ही देखता रहा । प्रातःकाल का दरबार लोगों
से ठसाठस भरा हुआ था और बाबा को यथाविधि अभिषेक कराया जा रहा था । कोई
पाद-प्रक्षालन कर रहा था तो कोई चरणों को छूकर तथा कोई तीर्थस्पर्श से अपने
नेत्र सफल कर रहा था । कुछ लोग उन्हें चन्दन का लेप लगा रहे थे तो कोई
उनके शरीर में इत्र ही मल रहा था । जातिपाँति का भेदभाव भुलाकर सब भक्त यह
कार्य कर रहे थे । यद्यपि बाबा उस पर क्रोधित हो गये थे तो भी सन्यासी के
हृदय में उनके प्रति बड़ा प्रेम उत्पन्न हो गया था । उसे यह स्थान छोड़ने
की इच्छा ही न होती थी । दो दिन के पश्चात् ही मद्रास से पत्र आया कि उसकी
माँ की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है, जिसे पढ़कर उसे बड़ी निराशा हुई और वह
अपनी माँ के दर्शन की इच्छा करने लगा, परन्तु बाबा की आज्ञा के बिना वह
शिरडी से जा ही कैसे सकता था? इसलिये वह हाथ में पत्र लेकर उनके समीप गया
और उनसे घर लौटने की अनुमति माँगी । त्रिकालदर्शी बाबा को तो सबका भविष्य
विदित ही था । उन्होंने कहा कि "जब तुम्हें अपनी माँ से इतना मोह था तो फिर
सन्यास धारण करने का कष्ट ही क्यों उठाया ? ममता या मोह भगवा
वस्त्रधारियों को क्या शोभा देता है ? जाओ, चुपचाप अपने स्थान पर रहकर कुछ
दिन शांतिपूर्वक बिताओ । परन्तु सावधान ! वाड़े में चोर अधिक है । इसलिए
द्वार बंद कर सावधानी से रहना, नहीं तो चोर सब कुछ चुराकर ले जायेंगे ।
'लक्ष्मी' यानी संपत्ति चंचला है और यह शरीर भी नाशवान् है, ऐसा ही समझ कर
इहलौकिक व पालौकिक समस्त पदार्थों का मोह त्याग कर अपना कर्तव्य करो । जो
इस प्रकार का आचरण कर श्रीहरि के शरणागत हो जाता है, उसका सब कष्टों से
शीघ्र छुटकारा हो उसे परमानंद की प्राप्ति हो जाती है । जो परमात्मा का
ध्यान व चिंतन प्रेंम और भक्तिपूर्वक करता है, परमात्मा भी उसकी अविलम्ब
सहायता करते है । पूर्वजन्मों के शुभ संस्कारों के फलस्वरुप ही तुम यहाँ
पहुँचे हो और अब जो कुछ मैं कहता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो और अपने जीवन
के अंतिम ध्येय पर विचार करो । इच्छारहित होकर कल से भागवत का तीन सप्ताह
तक पठन-पाठन प्रारम्भ करो । तब भगवान् प्रसन्न होंगे और तुम्हारे सब दुःख
दूर कर देंगे । माया का आवरण दूर होकर तुम्हें शांति प्राप्त होगी ।" बाबा
ने उसका अंतकाल समीप देखकर उसे यह उपचार बता दिया और साथ ही 'रामविजय'
पढ़ने की भी आज्ञा दी, जिससे यमराज अधिक प्रसन्न् होते है । दूसरे दिन
स्नानादि तथा अन्य शुद्घि के कृत्य कर उसने लेंडी बाग के एकांत स्थान में
बैठकर भागवत का पाठ आरम्भ कर दिया । दूसरी बार का पठन समाप्त होने पर वह
बहुत थक गया और वाड़े में आकर दो दिन ठहरा । तीसरे दिन बड़े बाबा की गोद
में उसके प्राण पखेरु उड़े गये । बाबा ने दर्शनों के निमित्त एक दिन के
लिये उसका शरीर सँभाल कर रखने के लिये कहा । तत्पश्चात् पुलिस आई और
यथोचित्त जाँच-पडताल करने के उपरांत मृत शरीर को उठाने की आज्ञा दे दी ।
धार्मिक कृत्यों के साथ उसकी उपयुक्त स्थान पर समाधि बना दी गई । बाबा ने
इस प्रकार सन्यासी की सहायता कर उसे सदगति प्रदान की ।
2. बालाराम मानकर
बालाराम मानकर नामक एक
गृहस्थबाबा के परम भक्त थे । जब उनकी पत्नी का देहांत हो गया तो वो बड़े
निराश हो गये और सब घरबार अपने लड़के को सौंप वे शिरडी में आकर बाबा के पास
रहने लगे । उनकी भक्ति देखकर बाबा उनके जीवन की गति परिवर्तित कर देना
चाहते थे । इसीलिये उन्होंने उन्हें बारह रुपये देकर मच्छिंद्रगढ़ (जिला
सातार) में जाकर रहने को कहा । मानकर की इच्छा उनका सानिध्य छोड़कर अन्य
कहीं जाने की न थी, परन्तु बाबा ने उन्हें समझाया कि तुम्हारे कलायाणार्थ
ही मैं यह उत्तम उपाय तुम्हें बतलता रहा हूँ । इसीलिये वहाँ जाकर दिन में
तीन बार प्रभु का ध्यान करो । बाबा के शब्दों में विश्वास कर वह
मच्छिंद्रगढ़ चला गया और वहाँ के मनोहर दृश्यों, शीतल जल तथा उत्तम पवन और
समीपस्थ दृश्यों को देखकर उसके चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई । बाबा द्वारा
बतलाई विधि से उसने प्रभु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ दिनों
पश्चात् ही उसे दर्शन प्राप्त हो गया । बहुधा भक्तों को समाधि या
तुरीयावस्था में ही दर्शन होते है, परन्तु मानकर जब तुरीयास्था से
प्राकृतावस्था में आया, तभी उसे दर्शन हुए । दर्शन होने के पश्चात् मानकर
ने बाबा से अपने को वहाँ भेजने का कारण पूछा । बाबा ने कहा कि, "शिरडी में
तुम्हारे मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे थे । इसी कारण
मैंने तुम्हें वहाँ भेजा कि तुम्हारे चंचल मन को शांति प्राप्त हो ।
तुम्हारी धारणा थी कि मैं शिरडी में ही विद्यमान हूँ और साढ़े तीन हाथ के
इस पंचतत्व के पुतले के अतिरिक्त कुछ नही हूँ, परन्तु अब तुम मुझे देखकर यह
धारणा बना लो कि जो तुम्हारे सामने शिरडी में उपस्थित है और जिसके तुमने
दर्शन किये, वह दोनों अभिन्न है या नहीं । मानकर वह स्थान छोडकर अपने निवास
स्थान बाँद्रा को रवाना हो गया । वह पूना से दादर रेल द्वारा जाना चाहता
था । परन्तु जब वह टिकट-घर पर पहुँचा तो वहाँ अधिक भीड़ होने के कारण वह
टिकट खरीद न सका । इतने में ही एक देहाती, जिसके कंधे पर एक कम्बल पड़ा था
तथा शरीर पर केवल एक लंगोटी के अतिरिक्त कुछ न था, वहाँ आया और मानकर से
पूछने लगा कि "आप कहाँ जा रहे है ?" मानकर ने उत्तर दिया कि, "मैं दादर जा
रहा हूँ ।" तब वह कहने लगा कि, "मेरा यह दादर का टिकट आप ले लीजिये,
क्योंकि मुझे यहाँ एक आवश्यक कार्य आ जाने के कारण मेरा जाना आज न हो सकेगा
।" मानकर को टिकट पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई और अपनी जेब से वे पैसे निकालने
लगे । इतने में ही टिकट देने वाला आदमी भीड़ में कहीं अदृस्य हो गया ।
मानकर ने भीड़ में पर्याप्त छानबीन की, परन्तु सब व्यर्थ ही हुआ । जब तक
गाड़ी नहीं छूटी, मानकर उसके लौटने की ही प्रतीक्षा करता रहा, परन्तु वह
अन्त तक न लौटा । इस प्रकार मानकर को इस विचित्र रुप में द्वितीय बार दर्शन
हुए । कुछ दिन अपने घर ठहरकर मानकर फिर शिरडी लौट आया और श्रीचरणों में ही
अपने दिन व्यतीत करने लगा । अब वह सदैव बाबा के वचनों और आज्ञा का पालन
करने लगा । अन्ततः उस भाग्यशाली ने बाबा के समक्ष ही उनका आशीर्वाद प्राप्त
कर अपने प्राण त्यागे ।
3. तात्यासाहेब नूलकर
हेमाडपंत ने तात्यासाहेब
नूलकर के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं लिखा है । केवल इतना ही लिखा है कि
उनका देहांत शिरडी में हुआ था । साईलीला पत्रिका में संक्षिप्त विवरण
प्रकाशित हुआ था, जो नीचे उद्घृत है – सन 1909 में जिस समय तात्यासाहेब
पंढरपुर में उपन्यायाधीश थे, उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर भी वहाँ के
मामलतदार थे । ये दोनो आपस में बहुधा मिला करते और प्रेमपूर्वक वार्तालाप
किया करते थे । तात्यासाहेब सन्तों में अविश्वास करते थे, जबकि नानासाहेब
की सन्तों के प्रति विशेष श्रद्घा थी । नानासाहेब ने उन्हें साईबाबा की
लीलाएँ सुनाई और एक बार शिरडी जाकर बाबा का दर्शन-लाभ उठाने का आग्रह भी
किया । वे दो शर्तों पर चलने को तैयार हुए –
उन्हें ब्राह्मण रसोइया मिलना चाहिये ।
भेंट के लिये नागपुर से उत्तम संतरे होने चाहिये ।
शीघ्र ही ये दोनों शर्ते
पूर्ण हो गयी । नानासाहेब के पास एक ब्राह्मण नौकरी के लिये आया, जिसे
उन्होंने तात्यासाहेब के पास भिजवा दिया और एक संतरे का पार्सल भी आया, जिस
पर भेजने वाले का कोई पता न लिखा था । उनकी दोनों शर्ते पूरी हो गई थी ।
इसीलिये अब उन्हें शिरडी जाना ही पड़ा । पहले तो बाबा उन पर क्रोधित हुए,
परन्तु जब धीरे-धीरे तात्यासाहेब को विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही
ईश्वरावतार है तो वे बाबा से प्रभावित हो गये और फिर जीवनपर्यन्त वहीं रहे ।
जब उनका अन्तकाल समीप आया तो उन्हें पवित्र धार्मिक पाठ सुनाया गया और
अंतिम क्षणों में उन्हें बाबा का पद तीर्थ भी दिया गया । उनकी मृत्यु का
समाचार सुनकर बाबा बोल उठे – अरे तात्या तो आगे चला गया । अब उसका पुनः
जन्म नहीं होगा ।
4. मेघा
28वे अध्याय में मेघा की कथा
का वर्णन किया जा चुका है । जब मेघा का देहांत हुआ तो सब ग्रामबासी उनकी
अर्थी के साथ चले और बाबा भी उनके साथ सम्मिलित हुए तथा उन्होंने उसके मृत
शरीर पर फूल बरसाये । दाह-संस्कार होने के पश्चात् बाबा की आँखों से आँसू
गिरने लगे । एक साधारण मनुष्य के समान उनका भी हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया
। उनके शरीर को फूलों से ढँककर एक निकट सम्बन्धी के सदृश रोते-पीटते वे
मस्जिद को लौटे । सदगति प्रदान करते हुए अनेक संत देखने में आये है, परन्तु
बाबा की महानता अद्वितीय ही है । यहाँ तक कि बाघ सरीखा एक हिंसक पशु भी
अपनी रक्षा के लिये बाबा की शरण में आया, जिसका वृतान्त नीचे लिखा है -
5. बाघ की मुक्ति
बाबा के समाधिस्थ होने के
सात दिन पूर्व शिरडी में एक विचित्र घटना घटी । मस्जिद के सामने एक
बैलगाड़ी आकर रुकी, जिस पर एक बाघ जंजीरों से बँधा हुआ था । उसका भयानक मुख
गाड़ी के पीछे की ओर था । वह किसी अज्ञात पीड़ा या दर्द से दुःखी था ।
उसके पालक तीन दरवेश थे, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में जाकर उसके नित्य
प्रदर्शन करते और इस प्रकार यथेएष्ठ द्रव्य संचय करते थे और यही उनके
जीविकोवपार्जन का एक साधन था । उन्होंने उसकी चिकित्सा के सभी प्रयत्न
किये, परन्तु सब कुछ व्यर्थ हुआ । कहीं से बाबा की कीर्ति भी उनके कानों
में पड़ गई और वे बाघ को लेकर साई दरबार में आये । हाथों से जंजीरें पकड़कर
उन्होंने बाघ को मस्जिद के दरवाजे पर खड़ा कर दिया । वह स्वभावतः ही भयानक
था, पर रुग्ण होने के कारण वह बेचैन था । लोग भय और आश्चर्य के साथ उसकी
ओर देखने लगे । दरवेश अन्दर आये और बाबा को सब हाल बताकर उनकी आज्ञा लेकर
वे बाघ को उनके सामने लाये । जैसे ही वह सीढ़ियों के समीप पहुँचा, वैसे ही
बाबा के तेजःपुंज स्वरुप का दर्शन कर एक बार पीछे हट गया और अपनी गर्दन
नीचे झुका दी । जब दोनों की दृष्टि आपस में एक हुई तो बाघ सीढ़ी पर चढ़ गया
और प्रेमपूर्ण दृष्टि से बाबा की ओर निहारने लगा । उसने अपनी पूँछ हिलाकर
तीन बार जमीन पर पटकी और फिर तत्क्षम ही अपने प्राण त्याग दिये । उसे मृत
देखकर दरवेशी बड़े निराश और दुःखी हुए । तत्पश्चात जब उन्हें बोध हुआ तो
उन्होंने सोचा कि प्राणी रोगग्रस्त था ही और उसकी मृत्यु भी सन्निकट ही थी ।
चलो, उसके लिये अच्छा ही हुआ कि बाबा सरीखे महान् संत के चरणों में उसे
सदगति प्राप्त हो गई । वह दरवेशियों का ऋणी था और जब वह ऋण चुक गया तो वह
स्वतंत्र हो गया और जीवन के अन्त में उसे साई चरणों में सदगति प्राप्त हुई ।
जब कोई प्राणी संतों के चरणों पर अपना मस्तक रखकर प्राण त्याग दे तो उसकी
मुक्ति हो जाती है । पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों के अभाव में ऐसा सुखद
अंत प्राप्त होना कैसे संभव है?
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।